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लेखक आर्य सागर खारी 🖋️
आर्ष वैदिक कालीन आयुर्वेद परंपरा के मूलतः दो ग्रंथ सौभाग्य से उपलब्ध है ‘चरक संहिता’ व ‘सुश्रुत संहिता’। आचार्य वागभट्ट का ‘अष्टांग हृदयम’ भी इसी परंपरा को समृद्ध संकलित करता है ,भले ही यह वैदिक कालीन ग्रंथ ना हो।
उपरोक्त उलेखित उपलब्ध ग्रन्थों में ‘अन्नपानविधि’ नामक शीर्षक से स्वतंत्र पृथक पृथक अध्याय मिलते हैं। महर्षि सुश्रुत, अपनी संहिता में ‘अन्नपानविधि ‘(Dietetics) अध्याय का आरंभ करते हुए कहते हैं—” प्राणियों के बल वर्ण ,ओज का मूल आधार आहार है। आहार के छः रस होते हैं। आहार के गुण, विपाक से दोषो की वृद्धि, क्षय समता होती है”।
इसी कसौटी को आधार बनाते हुए महर्षि चरक, महर्षि सुश्रुत आचार्य वागभट्ट ने अपने-अपने ग्रन्थों में खाने योग्य व न खाने योग्य स्वास्थ्य के लिए हितकारी व स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक अर्थात दोषों को प्रकुपित करने वाले भक्ष्य, अभक्ष्य पदार्थो की गुण तासीर विपाक रस , वीर्य की व्याख्या करते हुए विस्तृत आहार सूची प्रदान की है। जिसमें प्रचलित सभी दालों , धान्य, फल, मसाले साग सब्जियां ,मेवो, रसों का उल्लेख मिलता है।
आयुर्वेद के इन तीनों ही ग्रन्थों में सरसों के शाक या साग को उत्कृष्ट स्वास्थ्यवर्धक हितायु साधक शाक नहीं माना गया है। शाक वर्ग नामक शीर्षक में मकोय ,पाठा,चोलाई चागेरी , वर्षाभू, पोई , पुनर्नवा वास्तुकम् (बथुआ), जीवंती व सार्षपं (सरसों) जैसे दर्जन से अधिक सागो का उल्लेख मिलता है।
बथुआ ,जीवंती के साग को बलवर्धक त्रिदोष नाशक मधुर, ग्राही, पाचक माना गया है वहीं अन्य सागो को भी आयुर्वेदकारो ने आज की भाषा में कहे तो उत्तरोत्तर क्रम में रेटिंग दी है लेकिन सरसों के साग को सभी ने एक स्वर में विदाही अर्थात जलन उत्पन्न करने वाला, मल मूत्र के वेगो को रोकने वाला अर्थात कब्ज कारक व पेशाब की मात्रा में कमी लाने वाला एंटीड्यूरेटिक, रुखा व त्रिदोषो वात, पित ,कफ को प्रकुपित करने वाला, बढ़ाने वाला माना गया है ।
सुश्रुत्कार सरसों के साग का वर्णन इस प्रकार करते हैं।
विदाहि, बद्धविणमुत्र ,रूक्ष तीक्ष्णोष्ण मेव च त्रिदोषं शाकं सार्षपं शाकं ।
सरसों के विषय में यही सम्मति महर्षि चरक व आचार्य वागभट्ट की है अर्थात सरसों का साग शरीर के स्रोतों का अवरोध करता है, मल- मूत्र को रोकता है, तीनों दोषों को बढ़ाता है पचने में भारी व उष्ण होता है।
आयुर्वेद का आधारभूत सिद्धांत है कोई भी खाने योग्य या पीने योग्य पदार्थ यदि इन दुष्ट गुणधर्मों को रखता है तो वह स्वास्थ को नुकसान पहुंचाता है। सरसों का शाक या साग आरोग्य का शत्रु है। चरक व सुश्रुत ऋषि थे। ऋषि कभी भी असत्य भाषण, लेखन नहीं करते तर्क व प्रमाणों से युक्त बात ही ऋषि करते हैं। सरसों के साग से उनकी कोई शत्रुता नहीं थी सरसों के तेल व बीज को उन्होंने उत्तम माना है।
ऐसा होना जरूरी नहीं है प्रत्येक अन्न औषधि वनस्पति लता का प्रत्येक भाग ही उत्तम उत्कृष्ट हो।
आधुनिक फूड साइंस की बात करें तो सरसों वर्ग के जितनी भी पौधे हैं इनमें ऑक्जेलिक एसिड गोइईट्रोजन नाइट्रो सेइमन जैसे हानिकारक एलर्जी उत्पन्न करने वाले पदार्थ पाए जाते हैं जो थायराइड जैसी अंत स्त्रावी ग्रंथि और गुर्दों की क्रिया प्रणाली को प्रभावित करते हैं।
यह शोध ऋषियों के चिंतन को पुष्ट कर रहे हैं। आधुनिक बीमारियों से यदि हम तीन दोषो की साम्यता देखें तो जितनी भी तीन दोषो को प्रकोपित करने वाले आहार हैं वह गठिया ,इरिटेबल बॉवेल डिजीज अन्य क्रॉनिक इन्फ्लेमेटरी जैसी ऑटोइम्यून डिजीज को उत्पन्न करते हैं।
अब यदि हम लोक में सरसों के साथ को लेकर चर्चा करते हैं तो यह सर्दियों के साग में इतना प्रसिद्ध प्रचारित है लोग प्रथम तो सुनने को ही तैयार नहीं होते। मुझे एक घटना स्मरण है पिछले वर्ष नवंबर माह की प्रसिद्ध आयुर्वेद मनीषी योग गुरु स्वामी कर्मवीर जी महाराज जो स्वामी रामदेव जी महाराज के गुरुभाई रहे हैं उन्होंने गाजियाबाद जनपद के सकलपुरा गांव में राजेश पायलट महाविद्यालय में आर्य प्रतिनिधि सभा ग़ाज़ियाबाद द्वारा आयोजित चतुर्वेदीय पारायण महायज्ञ के समापन समारोह में सरसों के साग को लेकर आयुर्वेद के आधार पर यथार्थ वर्णन किया था । सम उपस्थित जनसमूह से उन्होंने कहा था अपील करते हुए- “यदि आपको अपने घुटने बचाने हैं एग्रेसिव अर्थराइटिस से, किडनी लीवर स्वस्थ रखना है तो सरसों के साग का सेवन आज ही बंद कर दीजिए”। यह सुनते ही उपस्थित जन समूह मे कुछ सुपठित भूतपूर्व शिक्षक भी थे जो स्वामी जी की बात पर विश्वास नही कर पा रहे थे । ग्रामीण जनजीवन में सरसों के साग का प्रचलन प्राचीन नहीं अर्वाचीन है। हमारे पूर्वज इतना अधिक कठोर परिश्रम करते थे वह सरसों के साग को भी ‘आहारसात्मय’ बना लेते थे। आहार सातम्य क्या है? यह भी आयुर्वेद का निराला विषय है जिस पर कभी फिर लिखा जाएगा।
लेकिन सत्य कड़वा होता है सरसों का साग खाने योग्य साग नहीं है न हीं इंसानों के लिए न हीं पशुओं के लिए सरसों का तेल उत्कृष्ट है सरसों का पुष्प पत्र अर्थात बीज हवन के लिए ,नवजात प्रसूता के गृह में धूपन धूनी देने के लिए उत्तम है यह जीवाणु नाशक है लेकिन इसका साग खाने योग्य नहीं है।
प्रत्येक पदार्थ के अपने विलक्षण निज गुण धर्म होते हैं जिसे ना में बदल सकता हूं न आप नैसर्गिक स्थिति में।
हमें परंपरावादी नहीं बनना चाहिए बहुत सी दुष्ट परंपराएं रही हैं जीवन पद्धति की सामाजिक जीवन में या धार्मिक क्षेत्र में उन सभी का हमने युक्ति व तर्क के आधार पर उन्मूलन किया है। ऋषियों का भी ऐसा ही चिंतन रहा है। हमें सत्यवादी सत्याग्रही निष्पक्षवादी बने रहना चाहिए। हमारे पूर्वज ऋषि ऐसे ही थे। यदि आप अपना व अपने परिवार का स्वास्थ्य चाहते हैं तो सरसों के साग को तिलांजली दे दे । चोलाई, मेथी, पालक बथुआ जैसे चिर परिचित साग भी सुउपलब्ध रहते है इनमें लोक सुलभ बथुआ तो सर्वोत्तम साग है ही।आप इनका सेवन कर सकते हैं सरसों के साग के अनेको उत्तम उत्कृष्ट विकल्प है। आहार जिव्हा के लिए नहीं शरीर के आरोग्य व बल के लिए ग्रहण किया जाता है।
लेखक आर्य सागर खारी ✍