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महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय – १२ ख राजा सेनजित और ब्राह्मण का संवाद

  राजा के शोक निवारण के प्रति गंभीर हुए ब्राह्मण ने राजा को समझाते हुए आगे कहा कि "राजन! इस समय तुम्हें यह विचार करना चाहिए कि संसार में प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी प्रकार के दु:ख में फंसा रहता है। प्रत्येक प्राणी दु:खों में ग्रस्त हो रहा है। ऐसा नहीं है कि यह दु:ख केवल आपके द्वार पर ही आया है , अपितु इसके बारे में सच यही है कि इस प्रकार का दु:ख संसार के प्रत्येक प्राणी को झेलना पड़ता है। जिस प्रकार समुद्र में बहते हुए दो काठ कभी एक दूसरे से मिल जाते हैं तथा मिलकर फिर अलग हो जाते हैं इसी प्रकार संसार में प्राणियों का समागम होता रहता है, कभी मिलते हैं तो कभी बिछुड़ते हैं। बिछुड़ने के बाद फिर मिलन होता है । यह अंतहीन खेल है जो अनादिकाल से अनंतकाल तक चलता रहेगा। इसीलिए संसार को असार कहा जाता है। इसे इसके वास्तविक स्वरूप में देखने का प्रयास करना चाहिए। हमें मानना चाहिए कि हमें जो कुछ दिखाई दे रहा है ,वह सब नाशवान है। नश्वर में मन को रमाना व्यक्ति की मूर्खता का प्रमाण है। तुम्हें संसार के नियम को समझना चाहिए। विधि के विधान को समझना चाहिए । जो सबका राजाओं का भी राजा है (अर्थात ईश्वर ) उसकी बनाई हुई व्यवस्था के समक्ष नतमस्तक होना चाहिए और उसे विनम्र भाव से स्वीकार करना चाहिए। ईश्वर की निश्चित व्यवस्था में आपको किसी प्रकार का रोड़ा नहीं बनना चाहिए।"

ब्राह्मण ने राजा को बताया कि “राजन ! जिस प्रकार अन्य प्राणी संसार में आकर मिलते बिछुड़ते रहते हैं, उसी प्रकार हमें अपने निजी संबंधियों के बारे में भी समझना चाहिए । चाहे पुत्र हो, चाहे पुत्री हो, चाहे पत्नी हो, चाहे पति हो – ये सब भी कुछ देर के ही संबंधी रहते हैं। समय आने पर सब बिछुड़ते रहते हैं। इनके बारे में हमें समझना चाहिए कि एक समय ऐसा भी था जब यह हमसे मिले थे तो वह मिलन ही इनके बिछुड़ने के लिए हुआ था। इनसे वियोग होना निश्चित है। जहां संयोग हुआ है, वहां वियोग होना निश्चित है।”
“जिसे तुम अपना पुत्र मान रहे हो, वह किसी अज्ञात स्थिति से आपके पास आया था और अब वह फिर अपनी उसी अज्ञात स्थिति में चला गया है । ना तो वह तुम्हें जानता था और ना तुम उसे जानते थे। फिर तुम उसके क्या हो और उसके लिए किस रूप में शोक मना रहे हो ? इस पर तुम्हें इस समय विचार करना चाहिए।”
ब्राह्मण ने राजा से आगे कहा कि “इस शोक पूर्ण परिवेश में आपको यह भी विचार करना चाहिए कि संसार में विषयों की तृष्णा से व्याकुलता बढ़ती है, घटती नहीं है। तृष्णा की इसी व्याकुलता का नाम दु:ख होता है । उस दु:ख का विनाश हो जाना ही सुख है। पर ध्यान रखना चाहिए कि इस प्रकार के सुख की प्राप्ति के पश्चात पुनः कामनाओं से पैदा हुआ दु:ख प्रकट होता है । इस प्रकार बारंबार दु:ख की प्राप्ति होती रहती है। दु:ख और सुख यह दोनों आते जाते रहते हैं । इनमें से कोई सा भी स्थायी रूप से हमारा मित्र नहीं हो सकता। मनुष्य के जीवन में इन दोनों का चक्र चल रहा है । अभी तुम इस समय दु:ख की अनुभूति कर रहे हो , पर एक समय ऐसा भी आएगा जब आप सुख की अनुभूति कर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे होंगे। इसका कारण केवल यह है कि संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जिसके जीवन में इन दोनों में से कोई सा एक ही स्थाई रूप से रहता हों। ना तो सदा सुख रह पाता है और ना सदा दु:ख ही रह पाता है ।”
राजा को अपनी बातों में रुचि रखते हुए देखकर ब्राह्मण कुछ उत्साहित सा हुआ और राजा को आगे बताने लगा कि “हम जिस प्रकार के संबंधों में एक दूसरे से बंधे हुए अनुभव करते हैं यह बालू से बने हुए पुल के समान होते हैं। जल के वेग की भांति यह समय आने पर अपने आप बह जाते हैं। कभी किसी भी मनुष्य की विषय कामना सफल नहीं होती । तेली लोग तेल के लिए जैसे तिलों को कोल्हू में पेरते हैं वैसे ही स्नेह के कारण सब लोग अज्ञान जनित क्लेशों द्वारा सृष्टि चक्र में पीसे जा रहे हैं। ज्ञानी वही है जो इस प्रकार के सृष्टि चक्र की सच्चाई को जानता है । जो व्यक्ति सृष्टि चक्र की इस सच्चाई को जानकर भी उसकी ओर से आंख मूंदने का प्रयास करता है वह निरा अज्ञानी ही है।”
राजा के मर्म को छूते हुए ब्राह्मण ने कहा कि “राजन ! तुम अज्ञानी पुरुष नहीं हो। इसलिए तुम्हें अज्ञानियों का सा आचरण नहीं करना चाहिए बल्कि ज्ञानी पुरुष की भांति इस समय विवेक से काम लेना चाहिए।”
मनुष्य अपने परिवार के लिए चोरी करता है, हिंसा करता है और भी दूसरे कई प्रकार के अपराध करता है। पाप कर्मों में संयुक्त रहता है। इसके उपरांत भी जब वह संसार से जाता है तो अकेला ही जाता है, पर उसके साथ उसके कर्म अवश्य जाते हैं। जिनका उसे परिणाम अर्थात फल भोगना ही पड़ता है। दुखदाई फल से बचने के लिए व्यक्ति को शुभ कर्मों पर ध्यान देना चाहिए। संसार में रहकर हमें बेकार का ममत्व का भाव पैदा नहीं करना चाहिए । उसे निकालने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यह ममत्व का भाव ही हमारे लिए बंधन का कारण बन जाता है।”
ब्राह्मण ने राजा को समझाया कि “राजन ! मनुष्य कामनाओं में से जिस कामना का परित्याग करता जाता है, वही उसके सुख की पूर्ति करने वाली होती चली जाती है। जो मनुष्य कामनाओं के पीछे भागता है, वह उन्हीं के पीछे भागता भागता नष्ट हो जाता है। इसलिए कामनाओं के पीछे भागने की प्रवृत्ति से मनुष्य को बचना चाहिए । यह आदमी को थका थकाकर मार डालती हैं। कामनाओं के पीछे पागल होकर भागने वाला व्यक्ति ही मृग मरीचिका का शिकार कहलाता है और मृग मरीचिका कभी भी अच्छी नहीं कहीं जा सकती ।”
संसार के दु:ख ,कष्ट और क्लेशों से सावधान करते हुए ब्राह्मण ने राजा से कहा कि “कछुआ जैसे अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है वैसे ही कोई व्यक्ति जब अपनी संपूर्ण कामनाओं को समेटकर परमपिता परमेश्वर के साथ अपना योग स्थापित कर लेता है और उसमें रमकर आनंद की अनुभूति करने लगता है, तब उसका अंतःकरण पवित्र होने लगता है। संसार के असार रूप को वह समझ जाता है। तब वह संसार की नीरस रुई के नीरस स्वाद को त्याग कर मधुरस, सोमरस, अमृत रस अर्थात परमपिता परमेश्वर के सानिध्य में मिलने वाले आत्मिक आनंद की अनुभूति करने लगता है। तब उसके अंतःकरण में बैठा हुआ परमात्मा उसे शुभ कर्मों की ओर बढ़ने की प्रेरणा देने लगता है।”
राजा को प्रेरित करते हुए ब्राह्मण बोला “राजन! ऐसे योगी को जब अपने अंतःकरण में स्वप्रकाशस्वरूप परमात्मा के दर्शन होते हैं तो वह भी संसार की सभी प्रकार की कामनाओं को लात मार देता है। तब वह किसी भी प्रकार के घाटे के सौदा को करने के लिए तैयार नहीं होता। इसका कारण केवल एक ही है कि तब उसे आनंद का वास्तविक खजाना मिल गया होता है। आनंद के उस खजाने की कीमत पर उसे सारे संसार के सुख फीके दिखाई देने लगते हैं।
ऐसे मनुष्य को कभी किसी भी प्रकार का भय नहीं होता। परमपिता परमेश्वर का शुभ आशीर्वाद सदा उसके साथ बना रहता है। जिसके आनंद की अनुभूति में वह अपने आपको डुबोए रखता है। उस कल्याणकारी अवस्था को प्राप्त हुए व्यक्ति से कोई दूसरा प्राणी भी भयभीत नहीं होता है। उस समय ऐसा व्यक्ति न तो कुछ चाहता है और न किसी से द्वेष ही करता है , परब्रह्म परमात्मा के साथ उसका इस प्रकार योग हो जाता है कि उसे छोड़ने में संसार के अन्य सभी विषय उसके लिए गौण हो जाते हैं। सत्य और असत्य , शोक और हर्ष , भय और अभय तथा प्रिय और अप्रिय आदि संपूर्ण द्वंद्वों का वह व्यक्ति परित्याग कर देता है। उसका चित्त शांत हो जाता है। ऐसे पुरुष किसी भी प्राणी के प्रति मन , वचन, कर्म से कभी भी ऐसा कोई अपराध नहीं करते जिससे उस प्राणी को कष्ट होता हो।”
अंत में राजा को सावधान करते हुए ब्राह्मण ने कहा कि “खोटी बुद्धि वाले मनुष्य के लिए जिसका त्याग करना कठिन है, जो मनुष्य के वृद्ध हो जाने पर भी कभी जीर्ण नहीं होती, जो प्राणों के साथ जाने वाला रोग है, उस तृष्णा को जो त्याग देता है, उस व्यक्ति को सुख मिलता है।”
ब्राह्मण के उस उपदेश का उपसंहार करते हुए भीष्म जी ने युधिष्ठिर से कहा कि “राजन ! ब्राह्मण के कहे हुए इन युक्तियुक्त और शास्त्रसंगत वचनों से राजा सेनजित का चित्त स्थिर हो गया । वह उस दुःखसागर से अपने आपको उबारकर बाहर लाने में सफल हो गए और इसके पश्चात हुए प्रसन्नतापूर्वक जीवन यापन करने लगे।”
कहानी हमें शिक्षा देती है कि संसार की असारता को समझ कर ही हमें अपना जीवन जीना चाहिए। संसार में रहकर इस बात का ठेका मत लो कि मैं सबको सुधार कर रख दूंगा। सही समय पर सही बात कह दो, कोई स्वीकार करता है तो अच्छा नहीं करता है तो भी अच्छा का भाव रख कर आगे बढ़ो। इसके साथ ही साथ शुभ कर्मों पर ध्यान देते हुए परमपिता परमेश्वर से समय रहते हुए अपना योग अर्थात मित्रभाव स्थापित कर लें। यह मित्र भाव ही हमें मोक्ष तक पहुंचाएगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)

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