अब हम इस अध्याय में उन 16 संस्कारों का संक्षिप्त विवरण देंगे जो भारत की अथवा हिंदुत्व की चेतना के मूल स्वरों में सम्मिलित हैं । अध्ययन की सुविधा के लिए हमने इन 16 संस्कारों को दो भागों में विभक्त कर लिया है । पहले अध्याय में हम पहले 8 संस्कारों के बारे में तो दूसरे अध्याय में हम शेष 8 संस्कारों के बारे में चर्चा करेंगे।
गर्भाधान संस्कार
इन 16 संस्कारों में सबसे पहला संस्कार गर्भाधान का संस्कार है । हमारे देश में प्राचीन काल में गर्भाधान संस्कार से पूर्व स्वस्थ मन मस्तिष्क के पति – पत्नी इस संस्कार को संपन्न करने के लिए वैसे ही तैयारी करते थे जैसे कोई किसान अच्छी फसल लेने के लिए अपने खेत की अच्छी तैयारी जुताई आदि करके करता है । किसान जानता है कि यदि जुताई उत्तम न हो या खेत में बीज अच्छा न पड़े या ऋतु भी अनुकूल न हो तो फसल अच्छी नहीं हो सकती। इसलिए इन सब चीजों पर किसान ध्यान देता है। वैसे ही सुयोग्य माता – पिता सुयोग्य संतान की प्राप्ति के लिए अपने मनोभावों को इन तीनों चीजों से पहले तैयार करते हैं। मानो वह गर्भाधान की क्रिया के माध्यम से श्रेष्ठ गुण , कर्म , स्वभाव वाली आत्मा का आवाहन करते हैं और उनका यह आवाहन ही उनका याज्ञिक कार्य है अर्थात संतानोत्पत्ति भी यज्ञ की भावना से संपन्न की जाती है। यह आवाहन माता पिता के माध्यम से श्रेष्ठ समाज की संरचना के लिए किया जाता है । मानो वह कह रहे हैं कि देवत्वीकरण और समाजीकरण की प्रक्रिया को सुदृढ़ करने के लिए वह कह रहे हैं कि हे दयानिधे ! हमें आप श्रेष्ठ सुयोग्य , सुसन्तान प्रदान कीजिए ।
गर्भाधान की इस क्रिया के लिए आयुर्वेद के अनुसार पुरुष की न्यूनतम आयु 25 वर्ष तथा स्त्री की 16 वर्ष आवश्यक होती है। सबसे कम आयु में यदि विवाह किया जाता है तो वह अवस्था अपरिपक्व अवस्था होती है । जिसमें श्रेष्ठ संतान की अपेक्षा माता-पिता से नहीं की जा सकती । वैदिक संस्कृति की यह मान्यता है कि हम जैसी संतान चाहते हैं वैसी ही संतान प्राप्त कर सकते हैं । इसके लिए शर्त केवल एक ही है कि माता – पिता बनने की इच्छा रखने वाले पति – पत्नी स्वयं संयमी , विवेकी , वैराग्यवान , विद्यावान और त्यागी – तपस्वी विचारधारा के धनी हों। अल्पायु में किए गए विवाह संस्कार के कारण हमारे युवा व युवतियां इतने परिपक्व नहीं होते , जितने परिपक्व होने की उनसे अपेक्षा की जाती है। यही कारण रहा कि जब परिस्थितिवश हमारे देश में बाल विवाह की बीमारी ने प्रवेश किया तो अपरिपक्व अवस्था में बनने वाले माता-पिता के द्वारा जो संतानें देश को प्राप्त हुईं वे उतनी सुयोग्य नहीं थीं ,जितनी होनी चाहिए थीं । फलस्वरूप नैतिक , आध्यात्मिक व चारित्रिक बल से हीन इन संतानों के कारण देश , समाज और राष्ट्र भी दुर्बल हुए।
आयुर्वेद का कहना है कि गर्भाधान से पहले व गर्भाधान के समय जैसी शारीरिक व मानसिक स्थिति माता-पिता की होती है, उसी का प्रभाव आने वाली सन्तान पर पड़ता है। आयुर्वेद के इस चिंतन से स्पष्ट होता है कि गर्भाधान की यह क्रिया बहुत महत्वपूर्ण क्रिया है । उस क्रिया से हमारे देश , समाज व राष्ट्र का भूत , वर्तमान और भविष्य तीनों जुड़े होते हैं ।
जीव पुरुष के माध्यम से स्त्री में अभिसिंचित होता है। पुरुष में इसका प्रवेश औषध अर्थात् अनाज, वनस्पति अर्थात् फल और आपः अर्थात् प्रवहणशील तत्व जल और प्राण के माध्यम से होता है। जीव का अवतरण यम- वायु अर्थात योगसिद्ध वायु से होता है। आयुर्वेद ने पति और पत्नी दोनों को सचेत किया है कि प्रक्षेपण और धारण क्रिया अत्यंत सहज और सौम्य हो ।
2 – पुंसवन संस्कार
गर्भस्थ शिशु के भीतर पुरुषत्व उत्पन्न करने के लिए यह संस्कार गर्भावस्था के दूसरे या तीसरे माह में किया जाता है । बालक ह्रष्ट – पुष्ट एवं स्वस्थ हो इसके लिए हमारे ऋषियों के द्वारा इस संस्कार का विधान किया गया । आज के चिकित्सक लोग किसी भी गर्भवती महिला को अपना ग्राहक या मुवक्किल बना लेते हैं और उससे पूरे 9 महीने पैसे ऐंठते रहते हैं । इनके पास ऐसी कोई दवा या औषधि नहीं है , जिससे वह गर्भस्थ शिशु के भीतर पुरुषत्व की भावना उत्पन्न कर सकते हैं । गर्भावस्था के काल में गर्भवती स्त्री के लिए यह विधान किया गया कि उसे बहुत शांत चित्त रहना है और ऐसे भोजन को ग्रहण करना है जिससे उसके विचारों में सात्विकता बनी रहे। सात्विकता के बने रहने से ही संयमी , तपस्वी , धर्मशील और सर्वगुण संपन्न संतान के होने की अधिकतम संभावना होती है । तामसिक या राजसिक विचारों की उत्पत्ति न हो इसके लिए उसकी दिनचर्या को इस प्रकार ढाला जाता था कि वह प्रकृति के सान्निध्य में रहे और सात्विक विचारों की उत्पत्ति करने वाले साहित्य और भोजन पानी को ग्रहण करती रहे। ‘जैसा खाओ अन्न – वैसा होगा मन’ – यह बहुत ही गहरा रहस्य है । जिसे हमारे ऋषियों ने और चिकित्साशास्त्रियों ने खोजकर हमें प्रदान किया । उनके चिंतन की गंभीरता का पता इसी से चलता है कि गर्भावस्था में गर्भवती महिला के लिए हमारे पूर्वज किस प्रकार की उसकी जीवन चर्या और दिनचर्या बनाने का प्रयास करते थे ?
इसके लिए विधान किया गया कि गर्भवती स्त्री सदा प्रसन्न रहे, पवित्र आभूषणों को पहने, श्वेत वस्त्र को धारण करे, मन शान्त रखे, सेवाभावी और सबके प्रति सद्भाव रखने वाली सहृदयी बनी रहे । कामवासना को अपने निकट भी फ़टकने न दे और मन में कामुक विचार या कामुक चिंतन को आने न दे। जिससे चित्त विकृत हो ऐसे दृश्यों और साहित्य को न तो देखे और न पढ़े । जिससे मन में किसी के प्रति ईर्ष्या द्वेष का भाव उत्पन्न हो या क्रोध आदि आवेग उत्पन्न हों , ऐसी बेचैनी उत्पन्न करने वाली बातों से अपने आप को दूर रखे। रात के बासी भोजन को या सड़े गले भोजन को भूलकर भी ग्रहण न करे । किसी ऐसे स्थान पर न सोए न जाए जहां जाने से या सोने से भय उत्पन्न होता हो या कोई भी ऐसा विचार उत्पन्न हो जो गर्भस्थ शिशु पर विपरीत प्रभाव डालें। अपने विचारों में सात्विकता का भाव भरे रखने के लिए चिल्लाने या किसी पर क्रोध करने या किसी की चुगली आदि करने में समय नष्ट ना करे ।
इस प्रकार गर्भवती महिला के लिए निश्चित की गई ऐसी दिनचर्या को देखने से पता चलता है कि संतानोत्पत्ति कोई खेल नहीं था , अपितु पूर्णतया एक साधना थी । इस साधना को गर्भवती महिला पूर्ण करती थी । कहने का अभिप्राय है कि मां बनने से पहले भी एक साधना से महिला को गुजरना पड़ता था । उस साधना में वह जितनी सफल होती थी उतनी ही सुंदर और सफल उसे संतान प्राप्त होती थी । जिससे देश , समाज व राष्ट्र का कल्याण होता था । क्योंकि संतानोत्पत्ति के माध्यम से दिव्य समाज की स्थापना करना हमारे पूर्वजों का उद्देश्य हुआ करता था । यही कारण रहा कि प्राचीन काल में हमारे देश में सपूत पर सारे समाज का अधिकार मानने की परंपरा विकसित हुई । उस समय भारतवर्ष में माना जाता था कि यह नवजात शिशु संसार में आया ही इसलिए है कि अपने संपूर्ण जीवन लोक कल्याण के कार्यों में लगा रहेगा । उस पर सारे समाज का समान अधिकार होता था । यह भाव भारत में आज भी देखा जा सकता है।
चरक संहिता के अध्ययन करने से पता चलता है कि उकडूं बैठने, ऊंचे-नीचे स्थानों में फिरने, कठिन आसन पर बैठने, वायु-मलमूत्रादि के वेग को रोकने, कठोर परिश्रम करने, गर्म तथा तेज वस्तुओं का सेवन करने एवं बहुत भूखा रहने से गर्भ सूख जाता है, मर जाता है या उसका स्राव हो जाता है। इसी प्रकार चोट लगने, गर्भ के किसी भांति दबने, गहरे गड्ढे , कुंआ ,पहाड़ आदि के विकट स्थानों को देखने से गर्भपात हो सकता है। सदैव सीधी उत्तान लेटी रहने से नाड़ी गर्भ के गले में लिपट सकती है , जिससे गर्भ मर सकता है।
इस अवस्था में गर्भवती अगर नग्न सोती है या इधर-उधर फिरती है तो सन्तान पागल हो सकती है। लड़ने-झगड़ने वाली गर्भवती की सन्तान को मृगी हो सकती है। यदि वो मैथुनरत रहेगी तो सन्तान कामी तथा निरन्तर शोकमग्ना की सन्तान भयभीत, कमजोर, न्यूनायु होगी। आयुर्वेदाचार्य और विद्वानों का मानना है कि परधन ग्रहण की इच्छुक महिला की सन्तान ईर्ष्यालु , चोर, आलसी, द्रोही, कुकर्मी, होगी। बहुत सोने महिला वाली की सन्तान आलसी, मूर्ख मन्दाग्नि वाली होगी। यदि गर्भवती शराब पीएगी तो सन्तान विकलचित्त, बहुत मीठा खानेवाली की प्रमेही, अधिक खट्टा खानेवाली की त्वचारोगयुक्त, अधिक नमक सेवन से सन्तान के बाल शीघ्र सफेद होना, चेहरे पर सलवटें एवं गंजापनयुक्त, अधिक चटपटे भोजन से सन्तान में दुर्बलता, अल्पवीर्यता, बांझ या नपुंसकता के लक्षण उत्पन्न होंगे एवं अति कड़वा खाने वाली महिला की सन्तान सूखे शरीर अर्थात् कृष होगी।
जब महिला गर्भ अवस्था काल में गर्भस्थ शिशु के दिव्य निर्माण के दृष्टिगत अपने लिए ऐसी साधना की रूपरेखा खींचती है तो सचमुच वह दिव्य संतति को उत्पन्न करती है , इसीलिए हमारे समाज में माता को निर्माता कहकर संतान के निर्माण में उसके महत्वपूर्ण योगदान को नमन किया गया है।
क्रमश:
डॉ राकेश कुमार आर्य