-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
वेद चार हैं। चार वेदों का ज्ञान अनादि व नित्य ज्ञान है जो सदैव व सर्वदा परमात्मा के ज्ञान में विद्यमान रहता है। यह चार वेद ईश्वर प्रदत्त बीज-रूप में सब सत्य विद्याओं का ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ परमात्मा से परमात्मा द्वारा उत्पन्न आदि चार ऋषियों यथा अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को प्राप्त हुआ था। परमात्मा निराकार एवं सर्वान्तर्यामी ज्ञानवान सत्ता है। वह सभी जीवों एवं संसार के पदार्थों में व्यापक होने के कारण ऋषितुल्य चेतन जीवात्माओं को प्रेरणा देकर उन्हें ज्ञान प्राप्त करा सकती है। परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अग्नि ऋषि को ऋग्वेद, वायु ऋषि को यजुर्वेद, आदित्य ऋषि को सामवेद तथा अंगिरा ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। हम यह भी कह सकते हैं कि परमात्मा ने इन चार आदि ऋषियों की आत्माओं में एक-एक वेद का ज्ञान स्थापित किया था। इस ज्ञान को प्राप्त कर ही ऋषियों को बोलना वा बात करना आया और उन्होंने सृष्टि की आदि में उत्पन्न अन्य मनुष्यों को बोलना सिखाया व वेदज्ञान की आवश्यक व उपयोगी सभी बातों से परिचित कराया था। यहीं से वेदाध्ययन वा वेद पठन-पाठन की परम्परा जिसे श्रुति परमम्परा कहा जाता है, आरम्भ हुई थी।
अथर्ववेद के काण्ड 10 सूक्त 2 मन्त्र 31 में मानव शरीर का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध मन्त्र आया है जो कि निम्न हैः
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।
इस मन्त्र का वेदभाष्यकार पं. विश्वनाथ विद्यालंकार वेदोपाध्याय द्वारा किया गया पदार्थ वा शब्दार्थ निम्न हैः
(अष्टाचक्रा) आठ चक्रों वाली, (नवद्वारा) नौ द्वारों वाली, (देवानाम्, पूः) इन्द्रिय-देवों की पुरी (अयोध्या) अयोध्या है। (तस्याम्) उस पुरी में (हिरण्ययः) सुवर्ण सदृश चमकीला (कोशः) कोश है, (स्वर्गः) जिसे कि स्वर्ग कहते हैं, (ज्योतिषा आवृतः) जो कि ब्राह्मी ज्योति द्वारा घिरा हुआ है।
यह वेदार्थ संस्कृत आर्ष व्याकरण द्वारा इस मन्त्र का किया गया प्रमाणित अर्थ है। मन्त्र में बताया गया है कि मानव देवों का शरीर आठ चक्रों वाला तथा नौ द्वारों वाला है। यह आठ चक्र एवं नव द्वारों से युक्त इन्द्रियवान्-देवों की पुरी अयोध्या है। हमारे इस शरीर में सुवर्ण सदृश चमकीला कोश (हृदय) है जिसे स्वर्ग कहते है। यह स्वर्ग वा कोश ब्राह्मी-ज्योति (सर्वव्यापक परमात्मा) से घिरा हुआ है।
अष्ट-चक्रों का उल्लेख कर भाष्यकार लिखते हैं कि अष्टचक्रा=सुषुम्णा नाडी और मस्तिष्क में आठ चक्र हैं, यथा ‘‘मूलाधार-चक्र, स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपूर-चक्र, अनाहत-चक्र, विशुद्ध-चक्र, आज्ञा-चक्र, सहस्रार-चक्र। आठवां चक्र सम्भवतः ब्रह्मरन्ध्र है, जोकि आज्ञा-चक्र और सहस्रारचक्र के मध्यवर्ती है। अथवा आठवां चक्र सम्भवतः ‘‘कुण्डलिनी” है। इन का विस्तृत विवरण ‘‘पातंजल योग प्रदीप” ग्रन्थ जो आर्य साहित्य मण्डल, अजमेर से प्रकाशित हुआ था, में उपलब्ध है। अब यह पातंजल योग प्रदीप ग्रन्थ गीता पे्रस, गोरखपुर से प्रकाशित हुआ भी प्राप्तव्य है।
शरीर के नवद्वारों का उल्लेख कर भाष्यकार पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी लिखते हैं कि नवद्वारा=दो आंखों के छिद्र, दो नासिकारन्ध्र, दो कर्णछिद्र, 1 मुख का छिद्र, 1 लिंग का, और 1 गुदा का छिद्र-ये 9 द्वार हैं। अयोध्या का अर्थ बताते हुए पंडित जी लिखते हैं कि अयोध्या=परमेश्वर प्रदर्शित मार्गों पर चलने से रोग, तथा काम क्रोध आदि शत्रुओं द्वारा शरीर-पुरी पराजित नहीं होती, और न रोग आदि इस पुरी के साथ युद्ध करने की शक्ति ही रखते हैं। हृदय को हिरण्यय कोश कहा है जोकि ब्राह्मीज्योति द्वारा आवृत है, यह हृदय स्वर्ग है, जहां कि ब्रह्म के सन्निधान (ध्यान वा उपासना आदि) द्वारा सुख-विशेष की प्राप्ति होती है।
हमने यह लेख इस लिए लिखा है कि हमारे सनातनी विद्वान मन्त्र में अयोध्या शब्द को देखकर इसे वर्तमान उत्तरप्रदेश की रामनगरी ‘‘अयोध्या” का वाचक स्वीकार करते हैं। यह तथ्य है कि वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए थे। इस कारण इसमें सृष्टि का इतिहास नहीं है। अयोध्या नाम बाद में जब यहां लोग बसे थे तथा दशरथ जी व उनके पूर्वजों ने राज्य किया, उनमें से किसी आदि पूर्वज द्वारा इसका नामकरण अयोध्या नाम से किया गया होगा। सृष्टि उत्पन्न होने के समय संसार की समस्त भूमि पर जितने नगर व गांव आदि बसे हुए हैं उनमें से किसी का कोई नाम नहीं था। सब स्थान नामों से रहित थे। वर्तमान के प्रचलित व, कुछ पुराने नाम जो बदल दिये गये, सृष्टि व वेद उत्पत्ति के बाद सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों वा महापुरुषों ने रखें हैं और इसमें, शब्दचयन में, वेदों की सहायता ली गई है। इस आशय के श्लोक भी प्राचीन साहित्य में उपलब्ध होते हैं। हमारे जो विद्वान वेदमन्त्र में प्रयुक्त अयोध्या शब्द को वर्तमान अयोध्या नगरी का पर्यायवाची शब्द मानते हैं वह उचित नहीं है। मन्त्र का वही अर्थ है जो संस्कृत व्याकरण के अनुसार पं. विश्वनाथ विद्यालंकार वेदोपाध्याय जी ने किया है। हमें वेदों का प. विश्वनाथ विद्यालंकार जी द्वारा किया गया अर्थ ही स्वीकार करना चाहिये और इससे भिन्न कल्पना नहीं करनी चाहिये। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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