जातीय सर्वेक्षण एवं पिछड़ेपन का सच
सुधाकर आशावादी – विनायक फीचर्स
बिहार में हुए जातीय सर्वेक्षण में एक तथ्य स्पष्ट हुआ कि भूमिहार जाति अन्य जातियों की अपेक्षा आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई है। आरक्षण आरक्षण चिल्लाने वाले तत्वों की बोलती बंद है, कि जिस असमानता को समानता में परिवर्तित करने के लिए आरक्षण की वकालत की जाती है, उसका आधार ही गलत सिद्ध हो रहा है। राजनीति के दिग्गज नफ़े नुक़सान की परवाह अधिक करते हैं, सो जातीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट पेश करते हुए बिहार में पिछड़ों की राजनीति करने वाले लोग खुद असमंजस में हैं । जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी की बात करने वाले तत्व यदि हिस्सेदारी की बात करेंगे तो जातीय गणना की बात करने वाले लोगों में से आधे लोगों को अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ सकता है। विडम्बना यह है कि सियासी जुमलेबाज हकीकत से समझौता करने के लिए क़तई तैयार नहीं हैं। ज्वलंत प्रश्न है कि राष्ट्र सर्वोपरि है या जाति-धर्म व सम्प्रदाय पर आधारित विभेदकारी व्यवस्था? यह चिंतन का विषय है, किन्तु विडम्बना यही है कि विश्व का विख्यात लोकतंत्र भेदभावपूर्ण व्यवस्था एवं तथाकथित जातिवादी तत्वों के कारण स्वस्थ लोकतंत्र नहीं बन पा रहा है। देश का दुर्भाग्य है कि वोट बैंक की राजनीति मतदाताओं का विभाजन करने से बाज नहीं आ रही है। जातियों के नेता स्वयं को जाति नायक सिद्ध करते हुए जातिगत बंटवारे की बात करने में तनिक भी संकोच का अनुभव नहीं करते। कोई जाति गणना की बात करता है, तो कोई मज़हबी आधार पर जनगणना की । विचारणीय प्रश्न है कि क्या मानव को जानवरों की तरह विविध प्रजातियों के गुणधर्म के आधार पर अलग अलग परिभाषित किया जा सकता है? यदि नहीं तो वे कौन से अलंबरदार हैं, जो धर्मग्रंथों के मूल भाव को नकारकर अपने स्वार्थ पूर्ण करते हुए समाज में वैमनस्य फैला रहे है? संविधान में एकरूपता की जगह दोहरे कानून बनाकर समाज को पिछडऩे के लिए विवश कर रहे हैं । जातिनायक अपनी जातियों का उत्थान करने की जगह अपना ही उत्थान कर रहे हैं । इतिहास साक्षी है कि अपनी जातियों को अपनी बपौती मानने वालों ने कभी अपनी जाति का उत्थान नहीं किया। जिन जाति नायकों को साइकिल भी नसीब नहीं थी, वे और उनका खानदान महलों में रह रहे हैं , वायुयानों में घूम रहे हैं , किन्तु उनके लिए सड़कों पर लडऩे वाले जहाँ के तहाँ हैं । देश में कोई भी दिशानायक हो, वह पर उपदेश कुशल बहुतेरे का अनुसरण कर रहा है । निर्धन हो या हो धनवान, सबको शिक्षा एक समान का नारा लगाने वालों की संताने विदेशों में पढ़ रही हैं और जाति नायक दलित सवर्ण, अगड़ा पिछड़ा, अल्पसंख्यक बहुसंख्यक में समाज को बांटने में लगे हैं । क्या विश्व के किसी भी देश में मानव मानव के बीच भारत जैसी स्थिति है? विश्व में अपने ज्ञान और कौशल से नागरिक आगे बढऩा चाहते हैं और हम हैं कि आगे बढऩे की जगह स्वयं को दलित और पिछड़ा बनाए रखने पर आमादा हैं । सवाल यही है कि अपने कुतर्कों जाति नायकों के बहकावे में आकर कब तक हम दबे कुचले और पिछड़े बने रहने के अधिकार मांगते रहेंगे ? आखिर अपनी गुणवत्ता और कौशल को बिसराकर कब तक स्वयं के प्रति अविश्वास व्यक्त करते रहेंगे ? (विनायक फीचर्स)
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