अपनी पत्नी के प्रति कबूतर की इस प्रकार की आत्मीयता भरी बातों को सुनकर सभी पक्षी जिज्ञासा भाव से बड़े भावविभोर से दिखाई दे रहे थे। कबूतर जिस निश्छल भाव से अपनी बात को व्यक्त किये जा रहा था वे सब उन पक्षियों को अच्छी लग रही थीं। कबूतर कह रहा था कि “यदि घर स्त्री से शून्य है तो वह निश्चय ही घोर घने जंगल के समान है। पत्नी घर की शोभा होती है। उसके बिना घर सूना ही लगता है। पुरुष के धर्म ,अर्थ और काम के अवसरों पर उसकी पत्नी ही इसकी मुख्य सहायिका होती है। परदेश जाने पर वही उसके लिए विश्वसनीय मित्र का काम करती है।”
कबूतर की बातों पर सभी पक्षियों की हां की टिप्पणी आती जा रही थी। जिससे कबूतर और भी अधिक उत्साहित और प्रेरित होकर अपनी कबूतरी की प्रशंसा किये जा रहा था। उसने कहा कि “पुरुष की प्रधान संपत्ति उसकी पत्नी बताई जाती है जो मनुष्य रोग से पीड़ित हो और बहुत समय से संकट में फंसा हो , उस पीड़ित मनुष्य के लिए भी पत्नी के समान दूसरी कोई औषधि नहीं है । प्रत्येक विषम परिस्थिति में पत्नी अपने पति की एक औषधि बनकर काम आती है। प्रत्येक विषम परिस्थिति से पति को बाहर निकालने में भी वह एक अच्छे मित्र की भूमिका निभाती है।”
कबूतर अपने साथियों से अपने दु:ख को हल्का करते हुए कह रहा था कि “मित्रो ! संसार में पत्नी के समान कोई बंधु नहीं है। जैसे बंधु हमारे भय का हरण करता है, वैसे ही पत्नी भी हमारे भय का हरण करने में सहायिका होती है। पत्नी के समान धर्म संग्रह में सहायक भी संसार में दूसरा अन्य कोई नहीं हो सकता। जिसके घर में मधुरभाषिऋणी भार्या ना हो, उसे वन चला जाना चाहिए।”
इस कहानी को आगे बढ़ाते हुए भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा कि “राजन ! वह कबूतरी उस पेड़ के नीचे सो रहे बहेलिया के पिंजरे में बंद हुई अपने पति की सारी बातों को सुन रही थी। अपने पति कबूतर के इस प्रकार के विलाप को सुनकर उसने उस बहेलिया के पिंजरे में कैद रहते हुए कहा कि “मेरे प्रियतम पतिदेव ! मेरे लिए यह बहुत सौभाग्य की बात है कि आप मेरे गुणों का इस प्रकार बखान कर रहे हो। मैं समझती हूं कि इतने गुण मेरे अंदर नहीं है। पर फिर भी आपका मेरे प्रति प्रेम यह बताता है कि आपके हृदय में मेरे लिए कितना स्थान है ? जिस पत्नी का पति उससे संतुष्ट न हो, उसे पत्नी नहीं समझना चाहिए।”
तब उस कबूतरी ने कहा कि “प्राणनाथ ! जो मैं बताऊं आप वैसा ही करने का प्रयास करना। यह बहेलिया आपके निवास स्थान पर आकर सर्दी और भूख से व्याकुल होकर सो रहा है। आपको चाहिए कि आप इसकी यथोचित सेवा करें। प्रत्येक गृहस्थ का यह धर्म है कि वह अपने निवास पर पहुंचे हुए अतिथि का यथाशक्ति सम्मान करे। इस समय आपको अपने इस धर्म का निर्वाह करना चाहिए। जिससे आपके अतिथि का मन प्रसन्न हो जाए। यदि कोई अतिथि हमारे घर पर आकर भी भूखा सो रहा है तो इससे भारी पाप कोई नहीं हो सकता।”
ऐसा कहकर वह कबूतरी अत्यंत दु:खित भाव से अपने पति की ओर देखने लगी। अपनी पत्नी की इस प्रकार की बातों को सुनकर कबूतर को बहुत अच्छा लगा । उसने अपनी पत्नी को अपने सामने सकुशल देखा तो उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसे यह बात और भी अधिक अच्छी लगी कि उसकी पत्नी उसे उस समय धर्म का उपदेश दे रही थी। तब उस कबूतर ने पक्षियों की हिंसा से ही जीवन यापन करने वाले उस बहेलिया की ओर देखकर कहा कि “आज आपका स्वागत है । ”
उसके पश्चात कबूतर ने कहा कि “बहेलिया ! मैं आपकी इस समय क्या सेवा कर सकता हूं ? इस समय आपको ऐसा अनुभव होना चाहिए जैसे आप अपने ही घर में हैं। मैं आपसे बहुत विनम्रता के साथ यह पूछना चाहता हूं कि आपकी मैं इस समय किस प्रकार की सेवा कर सकता हूं। प्रत्येक ऐसे गृहस्थ को अपने घर पर आए अतिथि का सम्मान करना ही चाहिए, जो पंचमहायज्ञ में विश्वास करता है।”
कबूतर की इस बात को सुनकर बहेलिया ने कहा कि “मुझे इस समय बहुत ठंड लग रही है। इससे बचने का कोई उपाय कीजिए। तब उस पक्षी ने बहुत से पत्ते लाकर भूमि पर रख दिये और अग्नि लाने के लिए अपने पंखों द्वारा यथाशक्ति बड़ी तेजी से उड़ान लगाई । वह किसी लोहार के घर पहुंचा और वहां से आग ले आया। उसे सूखे पत्तों पर रखकर उसने वहां अग्नि प्रज्जवलित कर दी। जिससे बहेलिया को बहुत अच्छा अनुभव हुआ।
तब बहेलिया ने कहा कि “हे कबूतर ! इस समय मुझे भूख लग रही है। यदि मेरे लिए कुछ भोजन की व्यवस्था हो जाए तो बहुत अच्छा होगा । बहेलिया की इस बात को सुनकर कबूतर ने कहा कि “हम वनवासी पक्षी हैं और प्रतिदिन चुगे हुए अन्न से ही अपना गुजारा करते हैं । हमारे पास भोजन का कोई संग्रह नहीं रहता ।” ऐसा कहकर कबूतर चिंता में डूब गया और सोचने लगा कि मुझे अब अपने इस अतिथि के लिए क्या करना चाहिए ? कुछ देर में उसके भीतर एक विचार आया और उसने कहा कि “बहेलिया ! आप थोड़ा इंतजार कीजिए। मैं तुम्हारे लिए भोजन का कोई प्रबंध करता हूं ।”
उसने ऐसा कहकर फिर से आग जलाई और बोला कि “मैं अब आपका भोजन का प्रबंध करता हूं। ऐसा कहकर उस पक्षी ने अग्नि की तीन बार परिक्रमा की और हंसता हुआ सा अग्नि में प्रवेश हो गया। अग्नि में प्रविष्ट हुए उस पक्षी को देखकर बहेलिया मन ही मन सोचने लगा कि “मैंने यह क्या कर डाला? मैं कितना क्रूर और बुद्धिहीन हूं, जो इतना पाप कर रहा हूं। बारंबार अपनी निंदा करता हुआ वह बहेलिया अपने आप से ही कहने लगा कि “मैं अति दुष्ट बुद्धि मनुष्य हूं ।मुझ पर किसी को विश्वास नहीं करना चाहिए। मेरे जैसे कुकर्मी के लिए भी महात्मा कबूतर ने अपने शरीर की आहुति देकर अपना मांस अर्पित किया है । उसने मुझे धर्माचरण का उपदेश दिया है। अब मैं पाप से मुख मोड़ कर स्त्री, पुत्र और अपने प्रियप्राणों का भी परित्याग कर दूंगा। महात्मा कबूतर ने मुझे बहुत बड़ा उपदेश दिया है। आज से मैं अपने शरीर को संपूर्ण भोगों से वंचित करके वैसे ही सुखा डालूंगा, जैसे गर्मी में छोटा सा सरोवर सूख जाता है।महात्मा कबूतर ने अपने शरीर का दान करके मेरे समक्ष अतिथि सत्कार का उज्ज्वल आदर्श उपस्थित किया है। सचमुच अतिथि सत्कार में बड़ा आनंद है।”
भीष्म पितामह कहने लगे कि “युधिष्ठिर ! उस कबूतर के मांस को खाकर वह बहेलिया तो वहां से चला गया पर उस कबूतरी से अपने पति का इस प्रकार संसार से विदा होना देखा नहीं गया। यद्यपि उसने ही अपने पति कबूतर को अतिथि यज्ञ के लिए प्रेरित किया था। वह यह भी जानती थी कि उसके पति किस सीमा तक जाकर अतिथि की सेवा के लिए अपने आपको समर्पित कर देंगे ? पर फिर भी पति का वियोग हो जाना उसके लिए असीम कष्टदायक था। वह उस अग्नि के पास बैठकर विलाप करने लगी। उसे जीवन की अनेक घटनाएं याद आ रही थीं, जब साथ रहते हुए उन दोनों ने अपने घर गृहस्थ को सजाया संवारा था। वह कह रही थी कि “पिता ,भ्राता और पुत्र सब लोग नारी को कुछ सीमित सा सुख देते हैं, पर वास्तविक सुख तो उसे अपने पति से ही मिलता है। स्त्री के लिए पति के समान कोई रक्षक नहीं और पति के तुल्य कोई सुख भी नहीं है। प्राणनाथ ! संसार में आपके बिना जीवन से भी अब मेरा कोई लगाव नहीं रह गया है । शायद ही कोई पत्नी ऐसी होगी जो अपने पति के बिना जीवित रह सके, यदि किसी स्त्री के जीवन में ऐसे पल आ जाएं, जब उसे अपने पति का वियोग सहन करना पड़े तो उससे बड़ी अभागिन कोई नहीं होती। इस प्रकार करुणाजनक विलाप करके वह कबूतरी भी इस जलती हुई अग्नि में समा गई।
कहानी अतिथि सत्कार के धर्म के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित करती है । अतिथि चाहे कितने ही दुष्ट भाव का क्यों ना हो ,पर जब वह शरणागत हो जाता है तो उस समय उसके प्रति किसी प्रकार का दुर्भाव हमें नहीं रखना चाहिए। इसके साथ ही साथ पति और पत्नी के आदर्श प्रेम को भी यह कहानी स्पष्ट करती है। जहां अतिथि सत्कार का ऐसा पवित्र भाव होता है और पति-पत्नी इस प्रकार प्रेम में बंधे होते हैं ,सचमुच वहां स्वर्ग होता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)