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महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय- ११ क बहेलिया और कपोत – कपोती

(यह कहानी महाभारत के ‘शांति पर्व’ में आती है। जिस समय भीष्म पितामह युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश कर रहे हैं, उस समय युधिष्ठिर ने उनसे पूछा कि “सभी शास्त्रों के मर्मज्ञ पितामह! आप मुझे यह बताइए कि शरणागत की रक्षा करने वाले प्राणी को किस प्रकार का फल प्राप्त होता है ?”
भीष्म जी धर्म के मर्मज्ञ थे। धर्मराज युधिष्ठिर के मुख से ऐसा प्रश्न सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। अपनी प्रसन्नता को व्यक्त करते हुए उन्होंने युधिष्ठिर को उनके पूछे गए प्रश्न का उत्तर देना आरंभ किया । उन्होंने कहा कि “राजन ! शिवि आदि महात्मा राजाओं ने शरणागतों की रक्षा करते हुए ही मोक्ष प्राप्त किया था।”
तब उन्होंने अपनी बात को और भी सरल शब्दों में स्पष्ट करते हुए युधिष्ठिर को एक कहानी सुनाई। वे कहने लगे कि “प्राचीन काल में एक कबूतर ने शरण में आए हुए शत्रु का यथायोग आदर सत्कार किया। इतना ही नहीं , उसने अपने अतिथि को अपना ही मांस खाने के लिए भी आमंत्रित किया। उसे कबूतर का वह आदर्श प्रत्येक काल में मनुष्य को उसका धर्म याद कराने के लिए पर्याप्त है।” – लेखक)

धर्मराज युधिष्ठिर को नीति का पाठ पढ़ाते हुए महाज्ञानी और महबुद्धिमान भीष्म पितामह बोले कि “युधिष्ठिर ! बहुत प्राचीन काल की बात है । किसी जंगल में एक बड़ा ही दुष्ट स्वभाव का बहेलिया चारों ओर घूम रहा था। उसके विचार इतने गिरे हुए थे कि वह पृथ्वी पर काल के समान ही दिखाई देता था। वह प्रतिदिन जाल लेकर वन में जाता और बहुत से पक्षियों को मारकर उन्हें बाजार में बेच दिया करता था । उसका इस प्रकार का आचरण वैदिक संस्कृति के सर्वथा विपरीत था। उसे पापी बहेलिया की जीवन-चर्या और दिनचर्या दिन-रात पाप में डूबी रहती थी।
एक दिन की बात है कि वह बहेलिया वन में शिकार के लिए घूम रहा था उसी समय चारों ओर से बड़े जोर की आंधी उठी। आंधी का वेग इतना प्रचंड था कि वृक्षों को धराशायी करता हुआ सा दिखाई दे रहा था । चारों ओर अंधेरा सा छा गया था। जंगल की इस आंधी के शोर में कुछ सुनाई नहीं देता था । ऊपर से बादल घिर आए थे और बार-बार बिजली चमक रही थी। तभी बादलों ने बरसना आरंभ कर दिया और आकाश से इतना पानी गिरा कि जल जंगल सब एक हो गया।
मौसम की उस मार से बहेलिया बहुत अधिक परेशान हो गया था। लगातार हो रही मूसलाधार वर्षा से वह मारे ठंड के ठिठुरने लगा और अचेत सी अवस्था में इधर-उधर भटकने लगा । उस समय वन से होकर गुजरने वाले रास्ते पर पानी भर गया था। जिससे यह पता नहीं चल पा रहा था कि बहेलिया को जंगल से निकालने के लिए किस ओर आगे बढ़ना चाहिए । इतना ही नहीं, पगडंडी के पानी में डूब जाने से उसके ऊंचा नीचा होने का भी कोई अनुमान नहीं लग पा रहा था । कितने ही पक्षी मरकर भूमि पर लोट गए थे। कुछ अपने घोंसलों में छिपे हुए बैठे थे। मृग, सिंह और सूअर आदि स्थल भूमि का आश्रय लेकर सो रहे थे। उधर बहेलिया सर्दी से खड़ा नहीं हो पा रहा था। इसी अवस्था में उसने भूमि पर गिरी हुई एक कबूतरी को देखा। वह कबूतरी भी सर्दी के कारण व्याकुल हो रही थी।
कबूतरी को उस स्थिति में देखकर उस बहेलिया को दया आ गई । तब उसने उस समय अपने कष्ट को भुलाकर कबूतरी के कष्ट का निवारण करना उचित माना। अपने इस कर्तव्य कर्म का निर्वाह करते हुए बहेलिया ने कबूतरी को बड़े करुणाभाव से अपने हाथों में उठाया और पिंजरे में डाल दिया। इस प्रकार उसने अपने आप पीड़ित होकर भी दूसरे प्राणी की पीड़ा को हरने के अपने पवित्र धर्म का निर्वाह किया।
कुछ क्षणों बाद ही उस बहेलिया को उस जंगल में एक नील विशाल वृक्ष दिखाई दिया। जिस पर बहुत से पक्षी छाया, निवास और फल की इच्छा से उस समय आश्रय लिए हुए थे।
उस समय गहरी रात थी । उस घनघोर जंगल से बाहर निकलने का कोई भी मार्ग बहेलिया को सूझ नहीं रहा था। कुछ समय पश्चात वर्षा भी समाप्त हो गई । आकाश से बादल फट गये । बादलों के फटने के पश्चात नीले आकाश में चमकते हुए तारे अपनी निर्मल रोशनी फ़ैलाने लगे । आकाश मेघों से मुक्त हो चुका था और बहेलिया को भी अब शीत से मुक्ति मिल गई थी। तब उस बहेलिया ने सब दिशाओं की ओर दृष्टिपात किया और गहरे अंधकार से भरी हुई रात को देखकर वह अपने मन ही मन में सोचने लगा कि “मेरा घर तो यहां से अभी भी बहुत दूर है।”
बहेलिया सोच रहा था कि आगे बढ़ा जाए या यहीं रुका जाए। अंत में उसने निर्णय लिया कि आज की रात यहीं पर बिताई जाए तो अच्छा रहेगा। तब वह एक शिला पर सिर रखकर वहीं सो गया। यद्यपि वह भूख से इतना अधिक व्याकुल था कि उसे नींद आ नहीं रही थी।
जिस वृक्ष के नीचे वह बहेलिया सो रहा था , उसी वृक्ष पर पिछले बहुत दिनों से एक कबूतर अपने कुछ अन्य मित्रों के साथ रहता आ रहा था। उसके शरीर के रोएं चितकबरे से थे । उसकी कबूतरी उस दिन प्रात:काल से ही दाना चुगने के लिए गई थी जो उस समय तक भी लौटकर नहीं आई थी। ज्यों – ज्यों रात गहराती जा रही थी, त्यों – त्यों उस कबूतर को अपनी प्राणप्रिया कबूतरी के बारे में चिंता होती जा रही थी। मौसम की स्थिति ने उसकी चिंता को और भी अधिक बढ़ा दिया था। बड़ी व्यग्रता से वह अपनी कबूतरी की प्रतीक्षा कर रहा था।
अधिक रात व्यतीत हो जाने के उपरांत वह कबूतर अपनी भार्या कबूतरी के बारे में सोच कर रोने लगा। वह अपने मित्रों से कह रहा था कि “आज बड़ी भारी आंधी आई है और वर्षा भी हुई है, परंतु मेरी भार्या अभी तक घर नहीं लौटी है । पता नहीं क्या कारण है कि वह अभी तक लौटकर नहीं आई। उसके इतनी देर रात तक लौटकर ना आने से मेरा मन अत्यंत व्याकुल है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मुझे इस समय क्या करना चाहिए ? किसी भी दिन वह लौटकर आने में इतना विलंब नहीं करती थी। निश्चय ही उसके साथ कहीं कोई अनहोनी हो गई है ? ऐसा मेरा मन बार-बार मुझसे कह रहा है।”
कबूतर का रहा था कि “मैं यह निर्णय नहीं कर पा रहा हूं कि इस समय मेरी भार्या सकुशल भी होगी या नहीं। उसके बिना मेरा घर आज पूरी तरह सूना दिखाई दे रहा है। मुझे आज पहली बार यह आभास हो रहा है कि घर में पुत्र, पौत्र , पुत्रवधू आदि सब होने के उपरांत भी बिना पत्नी के घर सूना ही लगता है। मैं आज पहली बार यह भी समझ रहा हूं कि ईंट पत्थरों से बना घर घर नहीं होता बल्कि घरवाली का नाम ही घर है। उसके बिना घर जंगल के समान ही माना जाता है। मेरी पत्नी कभी मुझे भोजन कराए बिना भोजन नहीं करती । मुझे स्नान कराये बिना स्नान नहीं करती , मुझे बैठाए बिना बैठती नहीं और मेरे सो जाने पर सोती है।”
सभी पक्षी कबूतर की बात को बड़े ध्यान से सुन रहे थे। उनकी अपनी बात के प्रति जिज्ञासा को देखकर कबूतर कहने लगा कि “आज मुझे अपनी जीवनसंगिनी का प्रत्येक गुण याद आ रहा है और मैं उसके बिना भीतर ही भीतर पूरी तरह तड़प रहा हूं। वह पतिव्रता है। पति के सिवाय अन्य कोई उसकी गति नहीं है। वह सदा अपने पति के हित में तत्पर रहती रही है। जिसको ऐसी पत्नी मिल जाए वह पुरुष इस संसार में धन्य माना जाता है। निश्चय ही वह जहां भी होगी, मेरे बिना इस समय तड़प रही होगी।”

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)

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