स्वाधीनता आंदोलन के एक महान नेता गोपाल कृष्ण गोखले
गोपाल कृष्ण गोखले
गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 ई। को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 1884 ई। में बी।ए। की परीक्षा पास करने के बाद वे 18 वर्ष की आयु में अध्यापक बने। आगे चलकर गोपाल कृष्ण गोखले फरग्यूसन कॉलेज पुणे के अध्यापक एवं प्राचार्य भी नियुक्त हुए। गोपाल कृष्ण गोखले के गुरु महादेव गोविन्द रानाडे थे। रानाडे द्वारा स्थापित दक्कन शिक्षा सभा (Deccan Educational Society) के वे सदस्य थे। दक्कन शिक्षा सभा के साथ उनका सम्बन्ध बीस वर्षों तक रहा और इस सभा के महत्त्वपूर्ण पदों पर उन्हें काम करने का अवसर मिला।
1888 ई० में गोखले पूना सार्वजनिक सभा के सचिव नियुक्त हुए। इस सभा के प्रमुख पत्र ‘क्वार्टरली रिव्यु’ (Quarterly Review) को गोखले सम्पादन भी करते थे। गोखले ने 1889 ई० में कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में पहली बार प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था। 1895 ई० में इन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सचिव बनाया गया। वे कई वर्षों तक बम्बई कांग्रेस के भी सचिव रहे थे। 1892 ई० के ऐक्ट की खामियों को प्रकाश में लाकर गोखले ने उसे असन्तोषजनक बतलाया था। 1897 ई० में दक्षिण शिक्षा सभा के प्रतिनिधि के रूप में बेल्वी आयोग के समक्ष गवाही देने के लिए श्री वाचा के साथ गोखले को इंगलैंड भेजा गया। गोखले ने भारत सरकार का बजट इम्पीरियल काउन्सिल द्वारा पास करने के बाद लागू करने का सुझाव दिया था। 1899 ई० में गोखले को बम्बई विधान परिषद् का सदस्य बनाया गया। विधान परिषद् में सरकार के भूमि-सम्बन्धी कानून की उन्होंने निन्दा की थी। 1902 ई० में गोखले केन्द्रीय विधान परिषद् के सदस्य बने। सरकार की आर्थिक नीति के आलोचक के रूप में गोखले ने ख्याति प्राप्त कर ली। वे मधुर शब्दों में सरकार की कटु आलोचना करते थे। नमक-कर का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि एक नमक की टोकरी पाँच आने में बिकती है जो बीस गुना अधिक है। केन्द्रीय विधान परिषद् में उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ करने, सरकारी सेवाओं में भारतीयों को समान स्थान दिलाने, सरकारी व्यय में कटौती तथा भारत की अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश नियंत्रण को दूर करने का सुझाव दिया था।
गोपाल कृष्ण गोखले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संयुक्त सचिव थे। 1905 ई० में बनारस अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने और उन्होंने बंग-विभाजन की आलोचना की। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को न्यायोचित माना तथा जनता और नौकरशाही के बीच सहयोग की समाप्ति के सम्बन्ध में आशंका व्यक्त की। 1906 ई० में भारतीय जनता की विचारधारा से इंगलैण्ड की जनता को अवगत कराने के लिए उन्हें इंगलैण्ड भेजा गया। गोखले के भाषण का असर प्रभावकारी थे। इंगलैण्ड के पत्र “नेशन” ने यह लिखा था कि “गोखले के समकक्षी इंगलैण्ड में कोई राजनीतिज्ञ नहीं है और वे एस्क्विथ से भी महान हैं।”
गोखले ने 1905 ई० में भारत सेवक समिति (Servants of India Society) की स्थापना की। देशभक्तों की टोली तैयार करने में इस संस्था का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। आगे चलकर भारत सेवक समिति ने कई नेताओं को पैदा किया जो सच्चे राष्ट्रभक्त थे। उनमें श्रीनिवास शास्त्री, जी० के० देवधर, हृदयनाथ कुँजरू आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 1909 ई० के मॉर्ले-मिण्टो सुधार को तैयार करने में गोखले की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। 1910 ई० में वे पुनः इम्पीरियल काउन्सिल के सदस्य निर्वाचित हुए। 1912-15 ई० तक उन्होंने भारतीय लोकसेवा आयोग के सदस्य के रूप में काम किया। 1913 ई० में अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा भारत में लागू करने का प्रयास गोखले के द्वारा किया गया था। 1915 ई० में गांधीजी दक्षिण अफ्रिका से लौटने के बाद गोखले के आग्रह पर कांग्रेस में सम्मिलित हुए थे। गोखले ने भारत में सुधार लाने के लिए एक योजना तैयार की थी जिसे “भारत का राजनीतिक वसीयत” कहा जाता है। 19 फरवरी, 1915 ई० को गोखले स्वर्ग सिधार गये। तिलक के अनुसार गोखले भारत का हीरा, महाराष्ट्र के रतन और देशसेवकों के राजा थे। वे कांग्रेस के एक सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्त्ता थे और उनकी राष्ट्रभक्ति अद्वितीय थी।
गोखले के विचार
गोपाल कृष्ण गोखले सच्चे उदारवादी थे। अपने गुरु महादेव गोविन्द रानाडे से उन्होंने मध्य्वृत्ति और तर्कसम्मतता की शिक्षा ग्रहण की थी। गोखले के विचार दादाभाई नौरोजी और फिरोजशाह मेहता से मिलते-जुलते थे। वे सांविधानिक आन्दोलन के पक्षधर थे और क्रमिक ढंग से संविधान में परिवर्तन लाना चाहते थे। ब्रिटिश न्यायप्रियता में गोखले की भी आस्था थी। राष्ट्र का कल्याण राजनीतिक उत्तेजना के बवण्डरों से नहीं हो सकता है। अतः साधन और साध्य की पवित्रता में गोखले विश्वास करते थे। सम्मभवतः साधन और साध्य की पवित्रता का आदर्श ने ही महात्मा गांधी को गोखले की ओर आकृष्ट किया था और उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले को अपना गुरु माना था।
गोखले ब्रिटिश शासन को भारत के लिए कल्याणकारी मानते थे। 1903 ई० में केन्द्रीय विधान परिषद् में उन्होंने इसे स्वीकार किया था कि “भारत का शानदार भविष्य अंगरेजी ताज की अबाध सर्वोच्चता में ही प्राप्त किया जा सकता है।” गोखले स्वराज्य के बदले राजनीतिक अधिकार और सुधार की मांग को प्राथमिकता देना चाहते थे। उनके अनुसार स्वशासन की मांग करने के पहले भारत को उसके लिए पहले अपने को योग्य बनाना पड़ेगा। गोपाल कृष्ण गोखले नरम विचार के थे। तिलक ने उन्हें ‘दुर्बल हृदय उदारवादी’ की संज्ञा दी थी। सरकार की नजर में वे एक छिपे हुए विद्रोही (A seditionist in disguise) थे। यह विरोधाभास इसलिए था कि एक तरफ वे सरकार से घनिष्ठ सम्बन्ध रखना चाहते थे और दूसरी तरफ उसकी कटु आलोचना भी मीठे-मीठे शब्दों में करते थे। गोखले पर लगाया गया दोनों आरोपों का कोई आधार नहीं है। पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि “वास्तव में वे न तो दुर्बल हृदय के उदारवादी थी और न छिपे हुए राजद्रोही; वे तो जनता और सरकार के बीच एक सच्चे मध्यस्थ थे।” सरकार को जनता की समस्याओं से परिचित करवाने और सरकार की सुविधाओं की जानकारी जनता को देने के लिए गोपाल कृष्ण गोखले मध्यस्थता का काम करनेवाले सेतु थे। वे सरकार के द्वारा किये गये अच्छे कार्यों की प्रशंसा करते थे और बुरे कामों की निंदा भी करते थे।
गोखले एक निर्भीक विचारक थे। वे क्रान्तिकारी नेता नहीं थे। वे प्रार्थना-पत्रों एवं सांविधानिक आन्दोलन का रास्ता अपनाकर भारत में सुधार लाना चाहते थे। गोपाल कृष्ण गोखले न तो दुर्बल हृदय के नेता थे और न राजद्रोही थे। पंडित मोतीलाल नेहरू ने उन्हें भारतीय स्वशासन का एक महान देवदूत कहा था। नौकरशाही व्यवस्था पर कठोर प्रहार करने में वे कभी चूकते नहीं थे। वे नौकरशाही के अत्याचार का विरोध करते थे। नौकरशाही को भारत में भारतीयों को इस योग्य बनाने पर बल देते थे कि भविष्य में वे अपना शासन स्वयं चला सकें। बंग-भंग का विरोध, स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार, राष्ट्रीय एकता में विश्वास रखनेवाले कमजोर हृदयवाला राष्ट्रनेता नहीं कहा जा सकता है।
गोखले मध्यममार्गी थे। जनता में जागृति लाने तथा उनके अन्दर त्याग और बलिदान की भावना को पैदा कर स्वशासन का लक्ष्य वे पूरा करना चाहते थे। बनारस अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में गोपाल कृष्ण गोखले ने कई महत्त्वपूर्ण बातों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया था। उन्होंने विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या आधा से अधिक बढ़ाने, बजट पास करने का अधिकार, कार्यपालिका और न्यायपालिका को पृथक करना, जिला स्तर पर परामर्शदाता मण्डल की स्थापना, सैनिक व्यय में कमी, औद्योगिक एवं प्राविधिक शिक्षा का प्रचार, ग्राम कर्जदारी को दूर करना आवश्यक बतलाया था। वे भारत की कृषि का विकास भी चाहते थे। सूती वस्त्र पर से उत्पादन-कर उठाने का सुझाव उन्होंने सरकार को दिया था। गोखले राजनीतिज्ञ, समाजसेवी और कुशल अर्थशास्त्री थे।
गोखले का व्यक्तित्व
गोखले योग्यता प्राप्त कर लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहते थे।
महात्मा गांधी ने गोखले के सम्बन्ध में निम्नलिखित उदगार प्रगट किया था, “सर फिरोजशाद् मेहता मुझे हिमालय जैसा अगम्य प्रतीत हुए, लोकमान्य तिलक महासागर की तरह प्रतीत हुए जिसमें कोई आसानी से गोता नहीं लगा सकता, परन्तु गोखले गंगा के समान थे जो सबको अपने पास बुलाते थे। राजनीतिक क्षेत्र में मेरे हृदय में गोखले के जीवन का जो स्थान था वह अब भी है और वह अनुपम रहा।”
भारत के वायसराय कर्जन ने यह कहा था कि “ईश्वर ने आपको असाधारण योग्यताएँ प्रदान की है और आपने निःसंकोच देशसेवा में लगा दिया है।”
श्रीमती सरोजिनी नायडू ने गोखले को “क्रियात्मक और परिश्रमी कार्यकर्ता और एक रहस्यवादी स्व्नद्रष्टा” की संज्ञा दी थी।
वस्तुतः गोपाल कृष्ण गोखले एक उच्च कोटि के देशभक्त, कुशल राजनीतिज्ञ और व्यावहारिक अर्थशास्त्री थे। गोपाल कृष्ण गोखले तब विद्यार्थी थे। एक दिन की बात है कि कक्षा अध्यापक ने गणित का एक प्रश्न पूछा- प्रश्न थोड़ा कठिन था इसलिए कोई भी विद्यार्थी उसे हल नहीं कर पाया। गोपाल कृष्ण गोखले एकमात्र ऐसे विद्यार्थी थे जिन्होंने प्रश्न का सही उत्तर बता दिया। उससे अध्यापक को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने इसके लिए उन्हें पुरस्कृत भी किया। परन्तु पुरस्कार प्राप्त करने के साथ ही उनकी मानसिक बेचैनी बढ़ती ही गई। घर पहुंचकर तो उनकी बेचैनी और भी तीव्र हो उठी। रात कठिनाई से बिता पाए, उन्हें अच्छी तरह नींद भी नहीं आई।
गोपाल कृष्ण गोखले दूसरे दिन विद्यालय पहुंचे और सीधे अध्यापक के कमरे में चले गए। पुरस्कार लौटाते हुए बालक गोखले ने निवेदन किया- गुरु जी ! इस पुरस्कार का अधिकारी मैं नहीं। उत्तर तो मैंने दूसरे विद्यार्थी से पूछकर बताया था इसलिए यह पुरस्कार तो उसे ही मिलना चाहिए।
अध्यापक महोदय ने गोपाल के इस साहस की बड़ी प्रशंसा की। उन्होंने सब विद्यार्थियों को एकत्रित करके समझाया- जो लोग झूठ बोलते हैं उनका झूठ पकड़ में न भी आए तो भी इसी तरह बेचैनी होती है जैसे गोपाल कृष्ण गोखले को हुई लेकिन फिर भी पुरस्कार गोपाल कृष्ण गोखले को ही लौटाते हुए अध्यापक ने कहा- इस पर अब तुम्हारा वास्तविक अधिकार हो गया है क्योंकि तुमने सत्य की रक्षा की है।
गोखले को बखूबी ज्ञात था कि वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा भारत की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। उन्होंने 12 जून, 1905 को राष्ट्र सेवा हेतु नौजवानों को सार्वजनिक जीवन के लिए प्रशिक्षित करके राष्ट्रीय प्रचारक बनाने हेतु ‘भारत सेवक समाज’ (सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) की स्थापना करके अनूठा कार्य किया। इस सोसाइटी के सदस्य सात मुख्य बिंदु द्वारा शपथ ग्रहण करते थे – ‘देश को सर्वोच्च समझकर देशसेवा में प्राण न्योछावर करना, देशसेवा में व्यक्तिगत लाभ नहीं देखना, प्रत्येक भारतवासी को भाई मानना, जाति-समुदाय का भेद नहीं मानना, सोसाइटी द्वारा सदस्यों और उनके परिवारों के लिए मिली धनराशि से संतुष्ट रहना तथा अधिक कमाने की ओर ध्यान नहीं देना, पवित्र जीवन बिताना एवं किसी से झगड़ा नहीं करना और सोसाइटी का अधिकतम संरक्षण करना तथा ऐसा करते समय सोसाइटी के उद्देश्यों पर पूरा ध्यान देना।’ वी।श्रीनिवास शास्त्री, जी।के।देवधर, एन।एम।जोशी, पंडित हृदय नारायण कुंजरू इस संस्था के उल्लेखनीय समाजसेवकों में थे।
गोखले 1890 में कांग्रेस के सम्मानित सदस्य बने, 1899 में बंबई विधानसभा के लिए और 1902 में इम्पीरियल विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए। 1905 में उनकी अध्यक्षता में बनारस अधिवेशन हुआ। देश में दो राजनीतिक विचारधाराएं थीं। तिलक तथा लाला लाजपत राय उग्रवादी विचारधारा के थे जबकि गोखले की आस्था क्रांति की अपेक्षा सुधारों में होने से उनका संवैधानिक रीति से देश को स्वशासन की ओर ले जाने में विश्वास था। कांग्रेस में सर्वाधिक नरमपंथी गोखले की संयमित गति उग्रवादी दल को रास नहीं आती थी और लोग उनकी आलोचना करके उन्हें ‘दुर्बल हृदय के शिथिल उदारवादी एवं छिपे हुए राजद्रोही’ बताते थे। गोखले को सरकार से भी उग्रवादी विचारों वाले छद्म विद्रोही की संज्ञा मिली। लोकमान्य तिलक ‘केसरी’ तथा ‘मराठा’ अख़बारों के माध्यम से और गोखले ‘सुधारक’ अखबार के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे। सैनिकों द्वारा बलात्कार के उपरांत दो महिलाओं द्वारा आत्महत्या करने पर ‘सुधारक’ ने भारतीयों की कड़ी, आक्रामक भाषा में भर्त्सना करते हुए लिखा – ‘तुम्हें धिक्कार है जो अपनी माता-बहनों पर होता हुआ अत्याचार चुप्पी साधकर देख रहे हो। इतने निष्क्रिय भाव से तो पशु भी अत्याचार सहन नहीं करते।’ उनके शब्दों से भारत सहित इंग्लैंड के सभ्य समाज में खलबली मच गई।
गोखले ने वायसराय की काउंसिल में रहते हुए किसानों की दयनीय स्थिति की ओर अनेकों बार ध्यान आकर्षित करवाया और संवैधानिक सुधारों के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहे। गोखले नरमपंथी होते हुए भी राष्ट्र के बदलते तेवरों के समर्थक थे। भारत में औद्योगीकरण का समर्थन करने और स्वदेशी का प्रचार करने के बावजूद वे बहिष्कार की नीति के विरुद्ध थे। उन्होंने आरंभ में ‘बंग भंग’ के विरोध के बहिष्कार के संबंध में कहा था कि, ‘यदि सहयोग के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाएं और देश की लोक-चेतना इसके अनुकूल हो तो बहिष्कार का प्रयोग सर्वथा उचित है।’ 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने नरम, समझौतावादी स्वभाव के वशीभूत होकर बहिष्कार के प्रस्ताव का समर्थन किया। गोखले की मांग थी कि निम्न जाति के हिंदुओं की शिक्षा और रोजगार में सुधार हो ताकि उन्हें आत्म-सम्मान सहित सामाजिक स्तर प्रदान किया जा सके। इसीलिए गोखले ने भारत के लिए ‘काउंसिल ऑफ़ द सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट’ में पद ग्रहण करने और ‘नाइटहुड’ की उपाधि लेने से साफ़ मना कर दिया था।
गोखले को 1909 के ‘मार्ले-मिंटो सुधारों’ के निर्माण में सहयोग के प्रयत्नों का अधिकतम श्रेय जाता है। उन्होंने 16 मार्च, 1911 को शिक्षा-संबंधी ‘भारत में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा’ वाला विधेयक लागू करने हेतु सदन में प्रस्तुत किया था। इसके सदस्य कई प्रमुख व्यक्ति नाममात्र के वेतन पर जीवन-भर देशसेवा का व्रत लेते थे। वे 1912-1915 तक ‘भारतीय लोक सेवा आयोग’ के अध्यक्ष रहे।
1896 में मेधावी गोखले की गांधी से पहली मुलाकात हुई और गोखले को उन्होंने प्रेरणास्त्रोत और राजनीतिक गुरु मानकर बहुत कुछ सीखा। इतिहास के प्रोफेसर के।के।सिंह के अनुसार गोखले से ही गांधी को स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई अहिंसात्मक रूप से लड़ने की प्रेरणा मिली थी। गोखले ने साबरमती आश्रम की स्थापना हेतु भी उनको आर्थिक सहायता दी थी। गोखले 1912 में दक्षिण अफ्रीका गए और रंगभेद की निंदा करते हुए अपना समर्थन व्यक्त करके रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन चलाने को प्रेरित किया। इतिहासकार एच।एन।कुमार के अनुसार गोखले को जिन्ना भी राजनीतिक गुरु मानते थे। एच।एन।कुमार का मानना है कि भारत को स्वतंत्रता मिलने पर गोखले जीवित होते तो गुरु की उपस्थिति में जिन्ना भारत के बंटवारे के प्रस्ताव की हिम्मत नहीं कर पाता। गोखले के सिखाए आदर्शों पर पानी फेरकर अपनी निर्मम हठ की ख़ातिर जिन्ना ने बंटवारे के नाम पर बेहिसाब ख़ूनख़राबा कराया।
तिलक ने गोखले को ‘भारत का हीरा’, ‘महाराष्ट्र का लाल’ और ‘कार्यकर्ताओं का राजा’ कहकर सराहना की थी। गोखले मधुमेह, दमा जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रसित होकर बीमार रहने लगे थे। भारत-भूमि को दासता की बेड़ियों से स्वतंत्र कराने हेतु अग्रणी रहकर आध्यात्मिक देशभक्ति करने वाले वीर, सच्चे, महान सपूत गोखले अंतत: 19 फरवरी, 1915 को नश्वर संसार त्यागकर अनंत ज्योति में विलीन हो गए। गोखले की मृत्योपरांत गांधी ने अपने राजनीतिक गुरु के बारे में कहा था कि, ‘सर फिरोजशाह मुझे हिमालय की तरह दिखाई दिए जिसे मापा नहीं जा सकता, लोकमान्य तिलक महासागर की तरह जिसमें कोई आसानी से उतर नहीं सकता, पर गोखले तो गंगा के समान थे जो सबको अपने पास बुलाती है।’ गोखले अपने चरित्र की सरलता, बौद्धिक क्षमता और राष्ट्र के प्रति स्वार्थहीन सेवा के लिए सदैव स्मरण किए जाएंगे।
गोखले ने दो बार शादी की। उनकी पहली शादी 1880 में तब हुई जब वह किशोरावस्था में थे और उनका विवाह सावित्रीबाई से हुआ, जो एक लाइलाज बीमारी से पीड़ित थीं। उन्होंने 1887 में ऋषिबामा से दूसरी शादी की, जबकि सावित्रीबाई अभी भी जीवित थीं। उनकी दूसरी पत्नी की 1899 में दो बेटियों को जन्म देने के बाद मृत्यु हो गई। गोखले ने दोबारा शादी नहीं की और उनके बच्चों की देखभाल उनके रिश्तेदारों द्वारा की गई।
उनकी सबसे बड़ी बेटी, काशी (आनंदीबाई) ने जस्टिस एसबी धवले आईसीएस से शादी की। उनके तीन बच्चे थे – गोपाल शंकर धवले, बलवंत शंकर धवले और मीना राजवाड़े। इन तीन बच्चों में से दो के बच्चे थे। बलवंत शंकर धवले और नलिनी धवले (नी साठे) के तीन बच्चे हैं: श्रीधर बलवंत धवले एफसीए, विद्याधर बलवंत धवले आईएफएस और ज्योत्सना बलवंत धवले। विद्याधर बलवंत धवले और आभा दीक्षित के दो बेटे अभिषेक विद्याधर धवले और जयदेव विद्याधर धवले हैं, जो गोपाल कृष्ण गोखले के नवीनतम प्रत्यक्ष वंशज हैं। [ उद्धरण वांछित ] पुश्तैनी घर का निर्माण गोपाल कृष्ण गोखले ने अपने परिवार के लिए पुणे में कराया था, और यह आज भी गोखले-धवले वंशजों का निवास स्थान बना हुआ है। इसके अलावा, जीके गोखले का पैतृक गांव, रत्नागिरी का एक सुदूर गांव तम्हनमाला, आज भी उनका पैतृक घर है। यह चिपलुन , रत्नागिरी से 25 किमी दूर स्थित है । गोखले के अन्य पैतृक रिश्तेदार अभी भी वहीं रहते हैं।
बाल गंगाधर तिलक से मिलने के बाद गोखले के जीवन को नई दिशा मिल गई। गोखले ने पहली बार कोल्हापुर में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। सन 1885 में गोखले का भाषण सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे,
न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे के संपर्क में आने से गोपाल कृष्ण सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेने लगे। उन दिनों पूना की ‘सार्वजनिक सभा’ एक प्रमुख राजनीतिक संस्था थी। गोखले ने उसके मंत्री के रूप में कार्य किया। इससे उनके सार्वजनिक कार्यों का विस्तार हुआ। कांग्रेस की स्थापना के बाद वे उस संस्था से जुड़ गए। कांग्रेस का 1905 का बनारस अधिवेशन गोखले की ही अध्यक्षता में हुआ था। उन दिनों देश की राजनीति में दो विचारधाराओं का प्राधान्य था। लोकमान्य तिलक तथा लाला लाजपत राय जैसे नेता गरम विचारों के थे। सवैधानिक रीति से देश को स्वशासन की ओर ले जाने में विश्वास रखने वाले गोखले नरम विचारों के माने जाते थे। आपका क्रांति में नहीं, सुधारों में विश्वास था।
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