( हमारे देश के इतिहास में ऐसे अनेक वीर योद्धा हुए हैं जिन्होंने अपने पूर्वजों के सम्मान और वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया । ऐसे वीर योद्धाओं में पांडु पुत्र भीमसेन के पुत्र घटोत्कच का नाम भी उल्लेखनीय है। महाभारत के युद्ध में घटोत्कच का प्रवेश भीष्म पितामह के सेनापति रहते हुए ही हो गया था। उस समय भीष्म पितामह कौरव दल का नेतृत्व कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने यह वचन दे दिया था कि वह किसी भी पांडु पुत्र का वध नहीं करेंगे , परंतु इसके उपरांत भी जिस वीरता और शौर्य का प्रदर्शन करते हुए भीष्म पांडवों के सैनिकों का विनाश कर रहे थे , उससे धर्मराज युधिष्ठिर और उनके पक्ष के सभी योद्धा चिंतित थे। उस समय घटोत्कच का पराक्रम पांडवों की सेना का मनोबल बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। - लेखक)
युद्ध के चौथे दिन भीमसेन अपना अनुपम पराक्रम दिखा रहे थे। उन्होंने कई धृतराष्ट्र पुत्रों का वध कर दिया था। कौरव दल के योद्धाओं को भूमिसात करने वाले भीमसेन का उस दिन युद्ध क्षेत्र में कोई सानी नहीं था। उनका पराक्रम देखते ही बनता था। उनकी वीरता को चुनौती देना आज किसी के लिए भी संभव नहीं था। तभी राजा भगदत्त ने कुपित होकर झुकी हुई गांठ वाले बाण से भीमसेन की छाती में गहरी चोट पहुंचाई। जिससे महारथी भीमसेन मूर्छित हो गए। तब अपने पिता भीमसेन की उस अवस्था को देखकर घटोत्कच ऐरावण हाथी पर आरूढ़ होकर भयंकर रूप धारण कर युद्ध के बीच प्रकट हुआ। उसके लिए अपने पिता की ऐसी दशा को देखना असहनीय हो गया।
घटोत्कच के भीतर वही संस्कार थे जो एक योग्य पिता के योग्य पुत्र के भीतर होने चाहिए। उसने अपने पिता को अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के प्रति श्रद्धावान होते हुए देखा था । उसने पांडवों के तप ,त्याग और तपस्या के बारे में अच्छी प्रकार सुन रखा था। यही कारण था कि उसके भीतर भी वे सभी गुण मौजूद थे जो एक अच्छे पुत्र से अपेक्षित होते हैं।
घटोत्कच ने राजा भगदत्त को चुनौती दी और ऐसा घनघोर युद्ध किया कि उसे दिन में तारे दिखा दिए। भगदत्त के प्राणों को संकट में पड़ा देखकर भीष्म पितामह ने द्रोणाचार्य और दुर्योधन से भगदत्त की रक्षा करने का आह्वान किया। भीष्म यह जानते थे कि घटोत्कच कितना वीर है और वह किस प्रकार अपने पिता की दशा को देखकर इस समय कुपित होकर युद्ध कर रहा है ? भीष्म जी का निर्देश प्रकार सभी एक साथ घटोत्कच के पराक्रम का सामना करने के लिए चल दिये , परंतु घटोत्कच बड़े जोर से सिंहनाद करते हुए अपने शत्रु पर निरंतर प्रहार कर रहा था। तब शांतनुनंदन भीष्म ने द्रोणाचार्य से कहा “मुझे इस समय दुरात्मा घटोत्कच के साथ युद्ध करना अच्छा नहीं लगता, क्योंकि वह बल और पराक्रम से संपन्न है , उसकी वीरता सरहणीय है और उसके लिए सौभाग्य की बात यह है कि इस समय उसे प्रबल सहायक भी मिल गए हैं।”
उस दिन घटोत्कच का पराक्रम देखते ही बनता था। उसके सामने से सभी कौरवों ने बच निकलना ही अच्छा समझा । उस दिन युद्ध क्षेत्र में सर्वत्र पांडवों की जय जयकार हो रही थी। पांडवों के शरीरों में यद्यपि उस दिन बाणों ने काफी चोट पहुंचाई थी , परंतु इसके उपरांत भी वे प्रसन्नचित होकर अपने शिविर में लौटे। युधिष्ठिर को ऐसा आभास हुआ कि अब उनकी जीत निश्चित है ?
उस समय महाभारत के समरांगण में अनेक महारथी गिरते जा रहे थे। युद्ध गहराता जा रहा था। इसके उपरांत भी पांडवों को अपनी विजय को लेकर अभी पूर्ण विश्वास नहीं था। इसका कारण केवल भीष्म पितामह थे , जो निरंतर शत्रुओं का संहार करते जा रहे थे। इस सबके उपरांत भी पांडवों के पास घटोत्कच जैसी अनेक ऐसी शक्तियां थीं जिन पर उन्हें बहुत अधिक गर्व था। घटोत्कच भी परमवीर योद्धा था। वह युद्ध के मैदान से हटने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। उसने अपने धर्म का निर्वाह करते हुए शत्रुओं के दांत खट्टे कर दिए। कौरव दल में बड़े-बड़े योद्धा उससे डर गए थे। उनमें घटोत्कच को लेकर आपस में करना खुशी होती थी। युद्ध क्षेत्र में उसके सामने आने से कौरव दल का लगभग प्रत्येक योद्धा घबराता था।
महाभारत में कौरव दल का सेनापतित्व करते भीष्म पितामह के सेनापति काल में ही फिर एक दिन अर्थात युद्ध का सातवां दिन ऐसा आया जब घटोत्कच ने भगदत्त पर भयंकर प्रहार किया। उसने बाणों द्वारा भगदत्त को इस प्रकार आच्छादित कर दिया जैसे बादल आकाश को आच्छादित कर देता है। प्रागज्योतिषपुर के राजा भगदत्त ने हंसते हुए से उसी समय अपने सहायकों द्वारा घटोत्कच के चारों घोड़े को मार गिराया। तब घटोत्कच ने भगदत्त के हाथी पर बड़े वेग से प्रहार किया। पर आज भगदत्त ने ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी , जिसे देखकर हिडिंबा कुमार घटोत्कच को रण क्षेत्र से भागना पड़ गया। इसके उपरांत भी वह निराश और हताश नहीं था । वह जानता था कि युद्ध क्षेत्र में कभी ऐसे क्षण भी आते हैं जब पीछे हटना पड़ता है। वीरों का पीछे हटना उनकी रणनीति का कभी-कभी एक अंग भी हो जाया करता है । किसी रणनीति के तहत या परिस्थिति का तकाजा समझ कर युद्ध क्षेत्र में पीछे हटना कायरता नहीं होती।
अगले दिन घटोत्कच ने अपने चचेरे भाई अभिमन्यु और पिता भीमसेन के साथ मिलकर कौरवो पर भयंकर प्रहार किया। कौरवों की सेना कटती जा रही थी और उसमें हाहाकार मच गया था। उस दिन अर्जुन के वीर पुत्र इरावान को कौरव मारने में सफल हो गए । जिससे कौरव दल में कुछ आशा का संचार हुआ।
जब इस बात की सूचना घटोत्कच को हुई कि इरावान को मार दिया गया है तो उसने बड़े जोर से सिंहनाद किया । भयंकर गर्जना करते हुए अंतक और यम के समान क्रोध में भरकर वह शत्रु दल पर टूट पड़ा। घटोत्कच के इस प्रकार के प्रबल प्रहार को देखकर कौरव दल भयभीत हो उठा । उनकी सेना युद्ध से भाग चली । तब दुर्योधन ने एक विशाल धनुष लेकर सिंह के समान गर्जना करते हुए घटोत्कच पर आक्रमण किया। जिससे घटोत्कच अत्यंत कुपित हो उठा ।उसकी आंखें लाल हो गईं । तब उसने दुर्योधन से कहा कि “अरे दुष्ट ! आज मैं अपने उन पितरों और माता के ऋण से उऋण हो जाऊंगा जिन्हें तूने दीर्घकाल तक वन में रहने के लिए विवश कर दिया था। तू अति क्रूर है, निर्दयी है, पापी है, अत्याचारी है , दुर्बुद्धि है। तूने पांडवों को द्यूत में कपट से हराया था और रजस्वला द्रुपद कुमारी को सभा के भीतर लाकर मेरे पिताओं को अनेक प्रकार से अपमानित किया था। यदि तू युद्ध छोड़कर भागा नहीं तो आज इन सारे अपमानों का प्रतिशोध मैं तुझसे ले लूंगा ।”
इसके पश्चात घटोत्कच ने दुर्योधन के साथ भयंकर युद्ध करना आरंभ किया। दोनों का युद्ध बड़ा रोमांचकारी था। उस दिन घटोत्कच ने अपनी वीरता का जिस प्रकार प्रदर्शन किया उससे लग रहा था जैसे दसों दिशाएं उसका गुणगान कर रही हैं । उसकी गर्जना से उस समय आकाश गूंज रहा था और धरती कांप रही थी। घटोत्कच के सामने उस दिन दुर्योधन असहाय और असमर्थ हो गया था। यद्यपि अपने क्षत्रिय धर्म का ध्यान रखते हुए वह रण क्षेत्र में खड़ा हुआ था। उस दिन का युद्ध इतना रोमांचकारी था कि दुर्योधन की विशाल सेना में भगदड़ मच गई थी।
धर्मराज युधिष्ठिर के आग्रह पर अब घटोत्कच के साथ उसके पिता भीमसेन भी आ जुड़े थे जिससे युद्ध और भी अधिक भयंकर हो उठा था। उधर अभिमन्यु आदि पांडव महारथी भी दुर्योधन को ललकारते हुए उस ओर ही आ गए। उन सबको अपने साथ देखकर घटोत्कच और भी अधिक रोमांच के साथ युद्ध करने लगा। गुरु द्रोणाचार्य ने जब देखा कि इस समय दुर्योधन के प्राण संकट में हैं तब उन्होंने भूरिश्रवा आदि प्रमुख योद्धाओं को उसकी रक्षा के लिए भेजा । तब भीम ने गुरु द्रोणाचार्य की बांई पसली में 10 बाण मार कर उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया और वह अचेत होकर रथ के पिछले भाग में जाकर बैठ गए। भीमसेन के इस कृत्य को देखकर दुर्योधन अश्वत्थामा आदि ने उस पर धावा बोल दिया।
पिता को अपने शत्रुओं से घिरा देखकर घटोत्कच ने मायावी युद्ध करना आरंभ कर दिया। जिसका कोई तोड़ पूरी कौरव सेना के पास नहीं था और कौरव सेना में एक बार फिर भगदड़ मच गई।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)