( बात उस समय की है जब विराट नगरी से चलकर आए श्री कृष्ण जी को दुर्योधन ने भरी सभा में अपमानित किया और जब श्री कृष्ण जी पांडवों के लिए मात्र पांच गांव मांग कर समस्या का समाधान प्रस्तुत कर रहे थे तो उसका भी दुर्योधन ने उपहास किया। उसने श्री कृष्ण जी से स्पष्ट कह दिया कि पांच गांव की तो बात छोड़िए बिना युद्ध के वह सुई की नोक के बराबर की भूमि भी पांडवों को नहीं देगा। दुर्योधन को उस समय उसके पिता धृतराष्ट्र ने भी समझाने का प्रयास किया। इसके अतिरिक्त भीष्म जी, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और विदुर जैसी महान विभूतियों ने भी श्री कृष्ण जी के प्रस्ताव के साथ सहमति व्यक्त करते हुए दुर्बुद्धि दुर्योधन को समझाना चाहा पर वह सब भी असफल रहे।
तब श्री कृष्ण जी ने उच्च स्वर से अट्टहास किया। इसके पश्चात वे सात्यकि और कृतवर्मा का हाथ पकड़कर उस समस्त नरेशमंडल का तिरस्कार कर सभा भवन से बाहर आ गये। – लेखक)
विराट नगरी से चलकर हस्तिनापुर आए श्री कृष्ण जी कौरवों की राज्यसभा में दुर्योधन से अपमानित होकर अपनी बुआ कुंती के भवन की ओर आगे बढ़ते हैं। कुंती के कक्ष में प्रवेश करने के उपरान्त उन्होंने अपनी बुआ के चरणों में प्रणाम किया । श्री कृष्ण जी ने अपनी बुआ कुंती को वे सब बातें बताईं जो उन्होंने कौरवों की सभा में देखी या सुनी थीं। श्री कृष्ण जी ने कुंती से कहा कि "बुआ जी ! मैंने कई प्रकार के वचनों से दुर्योधन को समझाने का प्रयास किया परंतु उस दुर्बुद्धि ने मेरी हर बात को ही मानने से इंकार कर दिया।
उसके साथ जिस प्रकार कुछ अन्य नरेश भी खड़े हुए दिखाई दे रहे थे, वे सब भी मेरी बातों का उपहास कर रहे थे। उन सबको देखकर मुझे ऐसा लगता है कि जैसे अब शत्रिय समुदाय का नष्ट होने का समय आ गया है। इस समय आपसे मैं आज्ञा चाहता हूं। मैं चाहूंगा कि मैं अपने युधिष्ठिर आदि भाइयों को आपका कोई संदेश जाकर बताऊं, इसलिए मुझे उन सबके बारे में कुछ न कुछ अपना संदेश दीजिए।”
तब कुंती ने श्री कृष्ण जी से कहा कि “केशव ! तुम इस समय राजा युधिष्ठिर से जाकर यह कहना कि इस समय हस्तिनापुर में तुम्हारे प्रजापालन रूप धर्म की बहुत बड़ी हानि हो रही है। तुम्हें धर्मपालन के अवसर को गंवाना नहीं चाहिए। जिस राज्य को तुम्हारे पूर्वजों ने बड़े यत्न से प्राप्त किया और उसकी रक्षा की उसे तुम्हें पाने के लिए नीति का सहारा लेना पड़ेगा। मैं तुम्हें जन्म देकर भी बंधु-बांधवों से हीन नारी के समान जीविका के लिए दूसरों के दिए हुए टुकड़ों पर पल रही हूं । इसलिए तुम्हें अब राजधर्म का पालन करते हुए युद्ध करना चाहिए। कोई भी ऐसा काम नहीं होना चाहिए जिससे तुम्हारे पूर्वजों के नाम पर धब्बा लगे । इस समय राज्य को प्राप्त कर अपने भाइयों सहित उसे भोगने का उचित अवसर है।”
तब कुंती ने श्री कृष्ण जी को इस संदर्भ में एक कहानी सुनाई। उन्होंने कहा कि “केशव ! प्राचीन काल में विदुला नाम की एक प्रसिद्ध वीरांगना थी। एक समय ऐसा आया जब उसका पुत्र संजय सिंधुराज से पराजित होकर हीन भाव से घर में आकर छुपकर सो रहा था। अपने पुत्र का इस प्रकार घर में जाकर सोना उस महान वीरांगना विदुला को किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं लगा । पुत्र का इस प्रकार घर में आकर सोना उस महान नारी के लिए घोर अपमान की बात थी। तब उसने अपने उस औरसपुत्र की इस प्रकार की सोच को लताड़ते हुए उसकी कठोर शब्दों में निंदा की।”
उस वीरांगना माता ने अपने पुत्र संजय को उस समय लताड़ते हुए कहा कि “तूने युद्ध क्षेत्र से इस प्रकार भागकर मेरी कोख और मेरे दूध को लजाया है। मैं नहीं कह सकती कि तू मेरा पुत्र है। क्योंकि यदि तू मेरा पुत्र होता तो इस प्रकार का अपयश भरा कार्य कभी नहीं करता। मैं यह भी कहना चाहती हूं कि तू मेरा ही नहीं अपने पिता का भी पुत्र नहीं है, उसने भी तुझे उत्पन्न नहीं किया। पता नहीं, तेरे जैसा कायर पुत्र मेरे यहां पर कहां से आ गया , तुझे पुत्र के रूप में उत्पन्न कर आज मैं स्वयं अपने आप को लचित अनुभव कर रही हूं?”
उस वीरांगना ने अपने उस कायर पुत्र को धिक्कारते हुए कहा कि “तू क्रोध शून्य होने के कारण क्षत्रिय नहीं कहा जा सकता। तेरे भीतर अपने पूर्वजों के सम्मान को सुरक्षित रखने का तनिक सा भी भाव नहीं है। तू कहने के लिए तो पुरुष है पर तेरे मन में नपुंसकता प्रवेश कर गई है। यही कारण है कि इस समय तू हिजड़ों का सा व्यवहार कर रहा है। तुझे इस प्रकार यहां छुपकर घर में बैठने की आवश्यकता नहीं थी। अभी भी समय है कि तू उठ और अपने कल्याण के लिए युद्ध का भार ग्रहण कर । मैं नहीं चाहती कि आने वाला समय मेरे लिए ऐसा कहे कि एक विदुला थी, जिसका पुत्र संजय युद्ध के क्षणों में युद्ध क्षेत्र से भाग कर घर में आकर सो गया था।
क्षत्रियों को सोना नहीं चाहिए। उन्हें राष्ट्र के लिए जागते रहना पड़ता है, जो जागते रहने के अपने शिवसंकल्प को नहीं समझता वह क्षत्रिय नहीं होता। क्षत्रिय का काम स्वयं जागना और दूसरों को जगाना है। तू धर्म से हीन होकर क्षत्रियों के लिए इस समय अपयश का कारण बन रहा है। अपने आपको इस प्रकार की दीनता भरी सोच से बाहर निकाल। अपने मन को शिव संकल्पों से भरकर निडर हो।”
उस समय वह महान वीरांगना विदुला अपने उस कायर पुत्र को समझाते हुए यह भी कहती है कि “अरे मूर्ख ! तू इस समय पराजित भाव से ग्रस्त होकर इस प्रकार घर में सोने के अपने इस कार्य को त्याग दे। जो लोग पुरुषार्थहीन हो जाते हैं , वे दुनिया में मिट जाते हैं । दुनिया में खड़ा रहने के लिए उद्योग-भाव बनाए रखना पड़ता है। तेरे कारण इस समय सभी शत्रु आनंद मना रहे हैं । तू इस समय अपनी मान – प्रतिष्ठा को भूल चुका है और उससे वंचित होकर अपने परिजनों और प्रियजनों को शोक से व्याकुल कर रहा है। तेरे इस प्रकार के आचरण से तेरा जीवन निरर्थक सिद्ध हो रहा है। तुझे अपने परिजनों और प्रियजनों में इस समय रक्त का संचार करना चाहिए। इसलिए स्वयं तो उत्साही बनकर बाहर युद्ध क्षेत्र के लिए प्रस्थान कर ही, साथ ही अपने परिजनों और प्रियजनों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रोत्साहित कर। तुझे यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जैसे छोटी नदी थोड़े से जल से भर जाती है, चूहे की अंजलि थोड़े से अन्न से भर जाती है वैसे ही कायर को संतुष्ट करना सरल है, वह थोड़े से ही संतुष्ट हो जाता है। इस समय जिस मार्ग को तूने अपना लिया है यह तेरी अपकीर्ति वाला मार्ग है । क्षत्रियों को अपकीर्ति से बचना चाहिए और यश व कीर्ति भरे कामों को हाथ में लेना चाहिए।”
उस वीरांगना माता ने अपने पथभ्रष्ट पुत्र को युद्ध के अपने धर्म के प्रति सचेत करते हुए कहा कि “तुझे इस समय दीन होकर अस्त होने की इस प्रकार की सोच से अपने आपको दूर करना चाहिए। तुझे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि तू स्वयं अस्त हो गया तो तेरे अस्त होने से तेरा कुल ही अस्त हो जाएगा। तुझे अपने शौर्यपूर्ण व्यक्तित्व को पहचानना चाहिए। सिंहनाद करके युद्ध भूमि में जाकर शत्रु को ललकारना चाहिए। जिस प्रकार तू इस समय अपने जीवन को निरर्थकता में धकेल रहा है वह तेरे लिए किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है।”
” पुत्र! धर्म को आगे रखकर या तो पराक्रम प्रकट कर या मृत्यु को प्राप्त हो जा। अन्यथा यह जीवन पूर्णतया निरर्थक ही कहा जाएगा। तुझे वीर क्षत्रियों के धर्म को स्वीकार करना चाहिए और उसी के अनुसार इस समय अपना आचरण बनाना चाहिए। यदि तू ऐसा नहीं करता है तो तुझे जीने का कोई अधिकार नहीं है। तेरी इस प्रकार की कायरता से तेरे इष्ट और आपूर्त्त कर्म नष्ट हो चुके हैं। तेरी कीर्ति धूल में मिल गई है। इसके उपरांत भी तू जी रहा है, यह देखकर मुझे अत्यंत आश्चर्य हो रहा है । धैर्य और स्वाभिमान का अवलंबन कर तुझे अपने वंश की कीर्ति का माध्यम बनना चाहिए। जो लोग ऐसी विषम परिस्थितियों में घबराकर अपने पथ से दूर चले जाते हैं या अपने कर्तव्य कर्म – धर्म को छोड़कर उससे मुंह फेर कर खड़े हो जाते हैं, उन्हें इतिहास कायर कहकर संबोधित करता है।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)