महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय -५ अर्जुन का आदर्श चरित्र और उर्वशी

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(अर्जुन धर्मराज युधिष्ठिर के अनुज थे। वह अपने आदर्श चरित्र के लिए भी जाने जाते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि अर्जुन आजीवन ब्रह्मचारी रहे भीष्म पितामह के सबसे प्रिय पौत्र थे। उन्हें दादा भीष्म के साथ रहकर उनके चरित्र के आदर्श गुणों को अपनाने का अवसर मिला। अर्जुन के बारे में सामान्यतया हम केवल उसकी वीरता के बारे में ही सुनते आए हैं। कई बार हम किसी विशेष क्षेत्र में काम करने के कारण किसी व्यक्ति की विशिष्ट पहचान बना लेते हैं और इसी का गुणगान करते रह जाते हैं। ऐसा करने से उस व्यक्तित्व के निजी जीवन के आदर्श पक्ष को भी कई बार नजरों से ओझल कर दिया जाता है। महाभारत के प्रमुख पात्र के रूप में प्रसिद्ध अर्जुन के साथ भी ऐसा ही हुआ है। हमने उसे गांडीवधारी अर्जुन के रूप में अधिक जाना पहचाना है। इसके अतिरिक्त वह व्यक्तिगत जीवन में कितना चरित्रवान था ? – इस ओर ध्यान नहीं दिया गया है। प्रस्तुत कहानी में हम उसके जीवन के इसी आदर्श स्वरूप को प्रकट करने का प्रयास करेंगे । जिससे पता चलेगा कि अर्जुन व्यक्तिगत जीवन में कितना पवित्र और ऊंचे चरित्र का व्यक्तित्व था ? – लेखक)

एक समय की बात है जब इंद्र ने अर्जुन के नेत्र उर्वशी के प्रति आसक्त जानकर चित्रसेन गंधर्व को बुलाया। उन्होंने एकांत में चित्रसेन गंधर्व से कहा कि “तुम मेरी आज्ञा से अप्सराओं में सबसे सुंदर उर्वशी के पास जाओ और उनसे कहो कि वह अर्जुन की सेवा में उपस्थित हो।”
इंद्र की यह सोच थी कि शायद अर्जुन उर्वशी के प्रति आसक्त है और उसमें कहीं ना कहीं कोई ना कोई चारित्रिक दोष है। इंद्र ने अर्जुन के ब्रह्मचर्य की परीक्षा लेने के लिए अपने प्रिय संदेशवाहक को उस समय की सबसे सुंदर अप्सरा उर्वशी के पास भेज दिया।
गंधर्व सेन अपने स्वामी इंद्र की आज्ञा पाकर वहां से प्रस्थान करता है और उर्वशी के पास पहुंच जाता है। उर्वशी के पास पहुंचने पर उसके ऐश्वर्य को देखकर चित्रसेन को बड़ी प्रसन्नता होती है। उर्वशी ने भी अपने घर आए अतिथि का उचित स्वागत सत्कार किया। स्वागत सत्कार की औपचारिकताओं का निर्वाह करने के उपरांत उर्वशी चित्रसेन के पास जाकर आराम से बैठ जाती है। तब उसने बड़े सहज भाव से मुस्कुराहट के साथ चित्रसेन से पूछा कि “आपका मेरे पास इस समय आने का प्रयोजन क्या है?”
इस पर चित्रसेन ने बिना किसी भूमिका के उर्वशी को बताना आरंभ किया कि “उर्वशी ! आप यह भली प्रकार जानती हैं कि इस समय धर्मराज युधिष्ठिर के प्रिय अनुज अर्जुन की धाक संपूर्ण भूमंडल पर है। वह बहुत ही विनम्र व्यक्तित्व के स्वामी हैं। अनेक सद्गुण उनके भीतर विराजमान हैं। उनकी प्रतिभा में उनके दिव्य गुण चार चांद लगाते हैं। उनका मनोहर रूप और विनम्र स्वभाव ,उत्तम व्रत और इंद्रिय संयम सभी को प्रसन्नता प्रदान करता है। अपने इन दिव्य गुणों के कारण अर्जुन देवताओं और मनुष्यों में इस समय बहुत अधिक विख्यात हैं। अर्जुन अपने कुल के ही नहीं बल्कि संपूर्ण भूमंडल के रत्न हैं। तुम यह भी जानती हो कि वह वर्चस्वी , तेजस्वी, क्षमाशील और ईर्ष्यारहित व्यक्तित्व के स्वामी हैं। अर्जुन के इन गुणों ने उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा दिए हैं। अब जबकि वह राजा इंद्र की नगरी में एक अतिथि के रूप में आए हुए हैं तो उन्हें यहां आने का फल मिलना ही चाहिए । इसीलिए देवराज इंद्र की इच्छा है कि तुम अर्जुन की सेवा में उपस्थित होओ। तुम्हें ऐसा प्रयास करना चाहिए कि अर्जुन तुम पर प्रसन्न हो जाएं।”
चित्रसेन ने कहा कि “उर्वशी ! देवराज इंद्र चाहते हैं कि तुम अर्जुन के साथ रात्रि व्यतीत करो। जिससे वह इस स्वर्ग नगरी में आकर अपने आप को प्रसन्न अनुभव कर सकें।”
मानो, उर्वशी इस प्रकार के किसी आदेश को पाने के लिए लालायित ही बैठी थी। उसने इंद्र के इस आदेश को अपने लिए सम्मान समझकर स्वीकार किया और चित्रसेन से कह दिया कि “महेंद्र की आज्ञा से मैं अवश्य ही अर्जुन के पास जाऊंगी। मैं अर्जुन के गुण समूह से भली प्रकार परिचित हूं । जैसा आपने मुझे बताया है, उनके बारे में इन बातों को सुनकर तो उनके प्रति मेरी प्रणयासक्ति और भी अधिक बढ़ गई है। इस समय अर्जुन से मिलने की मेरी आसक्ति स्वयं भी मुझे प्रेरित कर रही है कि मैं अर्जुन के साथ समय बिताऊं।”
इसके पश्चात उर्वशी अर्जुन से मिलने के लिए अत्यंत उतावली हो जाती है। वह बड़ी उत्सुकता से स्नान करती है। आज उसके मानस में एक अजीब सी गुदगुदी हो रही थी। वह कई प्रकार के सपनों में खो सी गई थी। इंद्र की ऐसी आज्ञा तो उसके लिए सम्मान का प्रतीक थी ही आज अर्जुन के साथ समय व्यतीत करने का अवसर मिलना तो उसके लिए और भी बड़ी बात हो गई थी। आज उसे अर्जुन के लिए सजने में भी एक अजीब सा आनंद अनुभव हो रहा था। सपनों की उधेड़बुन और विचारों के उठने गिरते ज्वार भाटे के चलते वह संध्या समय चंद्रमा के उदय होने पर अर्जुन से मिलने के लिए अपने भवन से अर्जुन के निवास स्थान की ओर चलती है।
उर्वशी पर काम नाम के शत्रु का हमला हो चुका था। अर्जुन के रूप ने उसे मदहोश कर दिया था। वह दुनियादारी को भूल गई थी। आज उसे एक ऐसे प्रेमी से वार्तालाप कर उसके साथ रहकर अपनी वासना की भूख को तृप्त करना था, जिसके साथ ऐसे क्षण बिताने की उसने कल्पना तक नहीं की थी।
दुनिया जिसको प्रेम कहती है वह प्रेम उस समय प्रेम नहीं होता जब वह वासना की आग में झुलस जाता है। तब वह घायल पंछी बन जाता है। घायल पंछी की भांति न जाने कितनी अप्सराएं अपने आप को दीपक की लौ पर जा पटकती हैं । उनकी सोच होती है कि वह किसी ‘सृजन’ की तलाश में किसी स्वैर्गिक सुख का आनंद ले रही हैं पर सच यह होता है कि वह जिसे स्वैर्गिक सुख मान रही होती हैं वही उनके आत्मविनाश का कारण बन जाता है। अंधा वह नहीं होता जिसकी माथे की फूट गई होती हैं, अंधा वह होता है जो सामने दीवार देखकर भी दीवार में सिर दे मारता है।
आज उर्वशी दीवार में सिर मारने के लिए ही जा रही थी ?
कुछ ही पलों में उर्वशी अर्जुन के महल के द्वार पर पहुंच जाती है। अर्जुन के द्वारपालों ने उर्वशी के आगमन की सूचना दी। अर्जुन की आज्ञा मिलने के उपरांत उर्वशी ने धीमे-धीमे अर्जुन के उस मनोहर भवन में प्रवेश किया। उसकी सोच थी कि अर्जुन जैसे ही उसे देखेंगे, वह तुरंत उसकी ओर लपकेंगे। पर यहां कुछ दूसरी ही बात हुई। अर्जुन ने जैसे ही उर्वशी को उसके इस प्रकार सजे – धजे स्वरूप में देखा तो वह बड़े आश्चर्य से उनके सामने आकर नतमस्तक होकर खड़े हो गए। अगले ही क्षण अर्जुन ने और भी कमाल कर दिया। अब वह नतमस्तक नहीं खड़े थे, बल्कि अपने मस्तक को उन्होंने अपनी माता के समान सम्मानित उर्वशी के श्री चरणों में रख दिया।
अर्जुन ने उस समय उर्वशी से कहा कि “देवी ! अप्सराओं में भी तुम्हारा स्थान सबसे ऊंचा है। मेरी दृष्टि में आप बहुत ही सम्मानित हैं । मैं तुम्हारे श्री चरणों में अपना मस्तक रखकर तुम्हें नमन करता हूं। इस समय आपका यहां उपस्थित होना मेरे लिए बड़े आश्चर्य की बात है। फिर भी मैं आपसे यह अनुरोध करता हूं कि आप मुझे निसंकोच बताएं कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ? मैं तुम्हारा सेवक हूं और तुम्हारी आज्ञा पालन करने को अपना सबसे बड़ा सौभाग्य अनुभव करूंगा।”
उर्वशी ने कभी यह सपने में भी नहीं सोचा था कि अर्जुन उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार करेगा। वह जिस अपेक्षा से अर्जुन के पास आई थी उस अपेक्षा के विपरीत अर्जुन के द्वारा किए जा रहे ऐसे व्यवहार ने उसके सारे सपनों को बखेर कर रख दिया। वह जो कुछ भी देख रही थी, उसे देखने के पश्चात उसके होश उड़ गए। उसके दिल के टुकडे – टुकडे हो चुके थे। बुरी तरह घायल हो चुकी उर्वशी ने इसके उपरांत भी साहस करके गंधर्व सेन और इंद्र की योजना को सविस्तार अर्जुन को बता दिया। उसने अर्जुन को बताया कि “पार्थ ! तुम्हारे स्वागत में आयोजित किए गए एक कार्यक्रम में जब अप्सराएं अपना नृत्य कर रही थीं तो उस समय तुम मेरी और बिना पलक झपके निहार रहे थे। तुम्हारी उस दृष्टि को उस समय इंद्र देख रहे थे। वे समझ रहे थे कि तुम्हारी दृष्टि में मुझे लेकर वासना तैर रही है। मैं उन्हीं की आज्ञा से अब तुम्हारे पास यहां उपस्थित हुई हूं।”
यद्यपि अब तक जो कुछ भी हो चुका था, उसे देखकर उर्वशी बुरी तरह टूट चुकी थी पर फिर भी वह हारी हुई बाजी को जीतने का अंतिम प्रयास करते हुए अपने आप को संभाल कर कहने लगी कि “अर्जुन ! तुम्हारे गुणों ने मेरे चित्त को अपनी ओर खींच लिया है। इस समय मैं कामदेव के वश में हो गई हूं । मैं जिस उम्मीद को लेकर तुम्हारे पास आई हूं मेरे उस सपने के दर्पण को तुम तोड़ो मत। बहुत देर से मेरे भीतर भी यह मनोरथ चला आ रहा था कि एक बार आपसे मिलूं, अब जबकि मिलने के स्वर्णिम क्षण आए हैं तो तुम इन क्षणों का स्वागत करो और आनन्द लो।”
आदर्श चरित्र को रखने वाले अर्जुन ने उर्वशी की इस प्रकार की बातों को सुनकर उससे कहा कि “भामिनी! मेरे समक्ष उपस्थित होकर तुम जिस प्रकार की बातें कर रही हो , उनको सुनना भी मेरे लिए कठिन हो गया है। मुझे बहुत दुख हो रहा है कि मुझे ऐसे शब्द सुनने पड़ रहे हैं। तुम मेरी दृष्टि में गुरु पत्नियों के समान पूजनीया हो।
मैं तुम्हारी ओर उस सभा में देख अवश्य रहा था, पर उसका भी एक कारण था। मैं तुम्हें देखकर उस समय इसलिए आनंदित हो रहा था कि पुरु वंश की जननी तुम ही हो। ऐसा जानकर मेरे नेत्र उस समय खिल उठे थे। इसलिए आपके प्रति पूजा और सत्कार का भाव अपने मन में रखकर ही मैं तुम्हें एकटक देखे जा रहा था। जिस प्रकार मेरे लिए अपनी मां कुंती और माद्री पूजनीया हैं,वैसे ही मैं तुम्हारा भी सम्मान करता हूं। तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर तुम्हारी शरण में मैं अपने आप को समर्पित करता हूं । तुम यहां से लौट जाओ। मेरी माता के समान पूजनीया होने के कारण अपने पुत्र की रक्षा करो।”
अर्जुन के ऐसे विचारों को सुनकर उर्वशी क्रोध से तिलमिला उठी। घायल सर्पिणी की भांति अर्जुन पर फुंफकारती हुई उर्वशी ने उससे कहा कि “मैंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि इस धरती पर कोई ऐसा चरित्रवान व्यक्ति भी है जो उसके रूप की इस प्रकार अवहेलना करेगा ?” तब उसने आवेश में आकर धर्मराज युधिष्ठिर के चरित्रवान अनुज अर्जुन को श्राप दिया कि “तुम्हें नर्तक बनकर महिलाओं के बीच समय व्यतीत करना पड़ेगा।”
इतना कहकर उर्वशी वहां से चली गई।
तब पांडुकुमार अर्जुन बड़ी शीघ्रता दिखाते हुए चित्रसेन के समीप गए और उन्हें सारी घटना बताई। उन्होंने चित्रसेन को यह भी बताया कि उर्वशी उन्हें किस प्रकार श्राप देकर गई है ? चित्रसेन ने इस सारी घटना को इंद्र को बताया। तब इंद्र ने अर्जुन को एकांत में बुलाकर कहा कि “तात ! तुम सत्पुरुषों के शिरोमणि हो। तुम जैसे पुत्र को पाकर कुंती वास्तव में पुत्रवती है। तुम्हारे चरित्र के समक्ष मैं स्वयं भी अपने आपको आनंदित अनुभव कर रहा हूं। तुमने अपने इंद्रिय संयम का परिचय देकर मेरे आनंद में वृद्धि की है। तुम इस बात की चिंता मत करो कि उर्वशी ने तुम्हे जो श्राप दिया है वह तुम्हें नष्ट कर देगा। वह शाप तुम्हारे अभीष्ट अर्थ का साधक होगा। तुम्हें पृथ्वी पर 13 वें वर्ष में अज्ञातवास पर रहना है। उर्वशी के दिए हुए शाप को तुम इस वर्ष में पूर्ण कर लोगे।”
यह कहानी हमें बताती है कि उज्ज्वल और बेदाग चरित्र के समक्ष बड़े-बड़े सम्राट भी शीश झुका देते हैं। कहानी को पढ़कर हमें पता चलता है कि हमारे देश में किस प्रकार के चरित्रवान वीर पुरुष हुआ करते थे ? उनके चरित्र बल से उस समय भारत की सीमाएं दिग् दिगंत तक फैली हुई थीं। संपूर्ण भूमंडल के राजा भारत को अपना गुरु मानते थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)

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