वैदिक सम्पत्ति गतांक से आगे.

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यहाँ हमने तीन मन्त्र उद्धत किये हैं, जिनमें क्रम से दो-दो और चार-चार बढ़ाकर एक, तीन, पाँच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, सत्रह, इक्कीस, पचीस, उनतीस और तेंतीस आदि तथा चार, ग्राठ, बारह, सोलह, बीस, चोबीस, बत्तीस, चालीस, चवालीस और अड़तालीस आदि संख्याओं का वर्णन किया गया है। इसी तरह ॠग्वेदवाले मन्त्र में निन्यानवे का भी वर्णन है । जिससे पाया जाता है कि वेदों ने इस जोड़ और बाकी का ज्ञान देते हुए स्पष्ट कर दिया है कि एक से लेकर निन्यानवे तक की जितनी संख्याएँ हैं वे सब उन्हीं नो अङ्कों और दहाई के संकेतों से ही बनी हैं, इसके लिए किसी अन्य संकेत की आवश्यकता नहीं । इस प्रकार से हमने यहाँ तक के वर्णन से देखा कि वेदों में दो ही प्रकार के संकेत हैं, एक तो एक, द्वि, त्रि, चत्वारि, पञ्च, षट्, सप्त, भ्रष्ट और नव आदि इकाई के लिए और दूसरे दश, शत, सहस्र, प्रयुत, नियुक्त, प्रयुत, अर्बुद, न्यर्बुद, समुद्र, मध्य, अन्त और पराद्धं श्रादि दश से बनी हुई संख्याओं के लिए । बस, इनके अतिरिक्त और किसी प्रकार के संकेत नहीं हैं, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि वेदों में इन्हीं दो प्रकार के संकेतों से सारी अङ्कविद्या फैलाई गई है। क्योंकि हमने मन्त्रों को लिखकर दिखला दिया है कि एक से लेकर निन्यानवे तक की संख्याएँ उन्हीं नौ तक अंक कों और दश के संकेतों के ही उलटने पलटने से बनी हैं। जिस प्रकार एकादश त्रयोदश, सप्तविंश, चतुश्चत्वारिंश और नवतिनव आदि संख्याएँ बनी हैं उसी तरह विश, त्रिंश, चत्वारिंश, षष्टि, सप्तति, प्रशीति और नवति यदि दहाइयाँ भी उन्हीं द्वि, त्रि, चत्वारि, षट्, सप्त और नव से ही बनी हैं। तात्पर्य यह कि समस्त अंङ्कजाल उपर्युक्त नौ तक अङ्कों और केवल दहाई के चिह्नों से ही फैलाया गया है, अनेकों मनमाने नामों से नहीं ।

एक से लेकर दश तक अङ्कों में दश शब्द बड़ा ही रहस्यपूर्ण है। विश, त्रिश, चत्वारिंश, षष्टी और नवति आदि शब्द जिस प्रकार अपने उच्चारण से द्वि, त्रि, चत्वारि, षष्ठ भोर नव से बने हुए ज्ञात हो जाते हैं, उसी तरह बना हुआ यह दश सूचित नहीं होता । षष्ट का षष्टि के साथ और चत्वारि का चत्वारिश के साथ जो सम्बन्ध सूचित होता है वही सम्बन्ध एक और दश के साथ सूचित नहीं होता – एक का दश से कोई वास्ता ही प्रतीत नहीं होता। इसी तरह शत, सहस्र, श्रयुत और नियुत आदि का भी एक, द्वि, त्रि, चत्वारि अथवा विश, त्रिश आदि से वास्ता प्रतीत नहीं होता। वे भी दश की तरह स्वतंत्र ही मालूम होते हैं। परन्तु दश का संकेत अङ्कों की भाँति अकेला अपना कोई अस्तित्व नहीं रखता। वह नौ अङ्कों को ही किसी विशेष सूचना से दशगुना कर देता है। इसका एक अच्छा उदाहरण अथर्ववेद में आया है। वहाँ लिखा है कि-

ये ते रात्रि नृचक्षसो द्रष्टारो नवतिर्नय । अशीतिः सन्त्यष्टा उतो ते सप्तसप्ततिः ।। 3 ।।
षष्टिश्च षट् च रेवति पञ्चाशत् पञ्च सुम्नयि ।
चत्वारश्वत्वारिंशच्च त्रयस्त्रिशब्च वाजिनि ।।4।।

द्वौ च ते विशतिश्व ते राज्येकादशावमाः ।।5।। (अथर्व० 16/47)

इन मन्त्रों में 99, 88, 77, 66, 55, 44, 33, 22 और 11 का क्रम से वर्णन है। एक ओर से ग्यारह ग्यारह की हानि है और एक ओर से ग्यारह ग्यारह की वृद्धि है। हर तरह से यह ग्यारह का पहाड़ा है, पर इसमें दहाई की (11×11=110) संख्या नहीं है. जो निहायत आवश्यक थी। परन्तु हम लिख आये हैं कि दश के लिए वेदों में किसी खास अंक की आवश्यकता नहीं बतलाई गई । दश के लिए तो शून्य का ही चिह्न स्थिर किया गया है। इसीलिए इस मन्त्र में दहाई के लिए कुछ भी नहीं कहा गया । यह मन्त्र चुकि ग्यारह से आरम्भ करता है और ग्यारह के पहिले दश हो चुके हैं, अतः जो दश पहिले कायम हो चुके हैं, वही वहाँ ग्यारह पर रख देने से ग्यारह दहाई बन जायेंगी। दहाई न लिखने का यही कारण है। क्योंकि दहाई अङ्क नहीं है। वह तो केवल संख्या का चिह्न है । इसी से उस चिह्न को शून्य माना है। क्योंकि शून्य का अर्थ अङ्क का अभाव ही है ।
क्रमशः

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