महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय-४ अर्जुन और पाशुपतास्त्र की कहानी

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चोट खाया हुआ सांप भी अपने शत्रु को छोड़ता नहीं है। यहां तक कि वह गाय भी ( जिसे बहुत ही सीधी कहा जाता है ) उस समय शेरनी बन जाती है जब उसके नवजात शिशु पर कोई प्राणी आक्रमण कर देता है। अर्जुन की जहां तक बात है तो आज वह सांप भी था और सीधी गाय भी था। क्योंकि उसके सामने ही हस्तिनापुर की राज्यसभा में जिस प्रकार का अपमानजनक व्यवहार सभी पांडवों और द्रौपदी के साथ हुआ था, उसे वह भुलाए से भी नहीं भूल रहा था। उस अपमानजनक स्थिति ने अर्जुन को सांप भी बना दिया था और चोटिल गाय भी बना दिया था। संसार समर में जब कोई योद्धा युद्ध के लिए उतरता है तो उसकी यह प्रतिज्ञा भी होती है कि वह अपमान का प्रतिशोध अवश्य लेगा या ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करेगा जिससे शत्रु उसके समक्ष आकर नतमस्तक हो जाए। एक क्षत्रिय के लिए तो वैसे भी आत्मसम्मान सबसे बड़ी चीज होती है।
सामने खड़े अर्जुन के इस प्रकार के तर्कबाणों के सामने अब इंद्र वैसे ही निरुत्तर हो गए थे जैसे नचिकेता के तर्कबाणों के सामने यम को हार माननी पड़ी थी या जैसे सावित्री के पतिव्रत धर्म के सामने यमराज को झुकना पड़ा था। जब मानव अपनी विराटता को पहचान लेता है और जब उसके भीतर की छुपी हुई प्रतिभा उसके दृढ़ निश्चय में प्रकट होती है तो वह बड़ी-बड़ी शक्तियों को अपने सामने झुका लेता है। ठीक ही तो कहा है :-

जिस आदमी का सर झुके भगवान के आगे।
सारी दुनिया झुकती है उसे इंसान के आगे।।

बस, बात एक ही है कि झुकाने के लिए धर्म का साथ चाहिए। परमपिता परमेश्वर का वरदहस्त चाहिए। सात्विक शक्तियों का विश्वास चाहिए और जो परमपिता परमेश्वर की दिव्य शक्तियां हैं उनका आशीर्वाद चाहिए। ,… और अर्जुन के पास ही है सब कुछ था। …. क्योंकि धर्म उसके साथ था। जो धर्म को छोड़ देता है, धर्म उसे छोड़ देता है और जिसे धर्म ने छोड़ दिया वह फिर मृत्यु के मार्ग पर अपने आप ही चल पड़ता है। उसके लिए उस समय दुर्भाग्य के अतिरिक्त और कुछ लिखा नहीं होता।
अर्जुन को सांत्वना देते हुए तब इंद्र ने उससे कहा कि “तात ! जब तुम त्रिशूलधारी, भूतनाथ महादेव का दर्शन कर लोगे तब मैं तुम्हें संपूर्ण दिव्यास्त्र प्रदान करूंगा।”
इंद्र ने अर्जुन को बड़ा सीधा सा और सरल सा रास्ता बता दिया कि “पहले उस साधना में जाओ, जिसकी फल प्राप्ति में तुम्हें परमपिता परमेश्वर की दिव्यता का बोध हो । अब तुम एक बहुत बड़े संग्राम की तैयारी कर रहे हो । अतः तुमको इस समय महादेव अर्थात परमपिता परमेश्वर की कृपा का पात्र अवश्य ही बनना चाहिए। उसकी साधना करके तुम्हारे भीतर का आवेश और आवेग शांत होगा। तुम इस बात को समझ सकोगे कि मुझे मिले दिव्यास्त्रों का प्रयोग कहां होना है ? परमपिता परमेश्वर त्रितापों का विनाश करने वाला है। इसलिए उसको त्रिशूलधारी कहते हैं। तुम आध्यात्मिक ,आधिदैविक और अधिभौतिक तीनों तापों के विनाश करने वाले उस परमपिता परमेश्वर के अर्थात त्रिशूलधारी महादेव के आशीर्वाद को जब प्राप्त कर लोगे तो तुम स्वयं भी उन सभी दानवीय शक्तियों का विनाश कर सकोगे जो इस समय समस्त भूमंडलवासियों को कष्ट दे रही हैं।”
यह कहकर इंद्र वहां से चले गए । इसके पश्चात उग्र तेजस्वी महामना अर्जुन वहां वन के रमणीय प्रदेशों में घूम फिरकर अत्यंत कठोर तपस्या में संलग्न हो गए। कहते हैं कि कुछ काल पश्चात अर्जुन ने उस रमणीय प्रदेश में एक अद्भुत सूअर के दर्शन किए। उस सूअर को देखकर गांडीव धनुष को हाथ में उठाकर अर्जुन ने उसे लक्ष्य करते हुए कहा कि “तू यहां आए हुए मुझ निरपराध को मारने की घात में लगा हुआ है । अतः मैं आज पहले तुझे ही यमलोक पहुंचा देता हूं।”
वास्तव में अर्जुन का इस प्रकार का आचरण उसकी उत्तेजना को झलकाता है । उसके लिए अचानक उत्तेजित होना उचित नहीं था। इंद्र ने जो उसे उपदेश दिया था, इसका आशय यही था कि उसे गहन साधना कर पहले आत्म विजय प्राप्त करनी है। संपूर्ण भूमंडल की विजय के लिए आत्म विजय को आधार बनाना पड़ता है। बिना आत्म विजय के संसार विजय असंभव है।
जब अर्जुन ने उस सूअर को मारने के लिए अपना धनुष उठाया तो इस समय किरात रूपधारी शंकर ने उन्हें टोकते हुए कहा कि “इंद्रकील पर्वत के समान कांति वाले इस सूअर को पहले से ही मैंने अपना लक्ष्य बना रखा था । अतः तुम इस सूअर को मत मारो।” परंतु अर्जुन उस समय क्रोध में था और उसने अपने आवेश को शांत किए बिना भील के वचन की अवहेलना करके उस सूअर पर प्रहार कर दिया। जिस समय अर्जुन ने उस सूअर पर प्रहार किया था, यह एक संयोग ही था कि किरात ने भी उसी समय उस सूअर पर विद्युत और अग्नि शिखा के समान एक तेजस्वी बाण अपनी ओर से भी छोड़ दिया।
उन दोनों के द्वारा छोड़े गए हुए दोनों बाण एक ही साथ सूअर के शरीर में जा लगे। जिस पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अर्जुन ने किरात से कहा कि “यह सूअर तो मेरा लक्ष्य था। आपने उस पर बाण क्यों मारा ! यह किसी शिकारी का धर्म नहीं है, जो आपने मेरे साथ किया है। इस अपराध के लिए अब मैं आपको जीवन से वंचित करूंगा।”
इस पर किरात ने कहा “मैंने अपने धनुष द्वारा छोड़े हुए बाणों से इस सूअर को पहले ही घायल कर दिया था। मेरे ही बाणों की चोट खाकर यह सदा के लिए सो गया है। अर्जुन ! तुम अपने बल के घमंड में आकर अपने दोष दूसरों पर क्यों मढ़ने लगे हो ? तुम्हें अपनी शक्ति पर घमंड है, परंतु आज तुम मेरे हाथ से जीवित नहीं बच सकते।”
वास्तव में शिवजी उस समय अर्जुन की परीक्षा ले रहे थे। वह देखना चाहते थे कि यह कितनी शीघ्रता से उत्तेजित होता है या कितनी देर के व्यंग्य बाणों को छोड़ने के बाद भी यह मर्यादा भंग करने वाले क्रोध का शिकार नहीं होता है ? उन्होंने अर्जुन को भरपूर उत्तेजना दी। इस उत्तेजना का परिणाम यह हुआ कि अर्जुन ने अपने सामने खड़े किरात को मारने के उद्देश्य से बाणों की झड़ी लगा दी। उधर किरात के वेश में शिवजी थे जिन पर अर्जुन के इन बाणों का कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। अर्जुन जितने भी बाण छोड़ता जा रहा था, शिवजी उन सबको हाथ में पकड़कर तोड़ते जा रहे थे।
अंत में शिवजी ने कहा – “कुन्तीनंदन! मैं तुम्हारे इस अनुपम पराक्रम , शौर्य और धैर्य से बहुत ही संतुष्ट हुआ हूं । तुम्हारे समान इस समय इस भूमंडल पर कोई दूसरा क्षत्रिय नहीं है। तुम्हारा पराक्रम यथार्थ है। जिससे मैं पूर्णतया संतुष्ट हूं। मैं तुम्हारी वीरता, शौर्य और साहस की खुले मन से प्रशंसा करता हूं। मेरे द्वारा आयोजित की गई इस परीक्षा में तुमने पूर्ण अंक प्राप्त किए हैं। तुमने वही कर दिखाया है जो इस परिस्थिति में किसी भी वीर क्षत्रिय से अपेक्षा की जा सकती थी। तुम मुझसे इस समय अपना मनोवांछित वर ग्रहण कर सकते हो।”
अर्जुन अपनी परीक्षा में सफल हो चुका था। अब उसके सामने व्रत प्राप्त करने की घड़ी आ चुकी थी। उसने बड़े विनम्र भाव से नतमस्तक होकर शिवजी से कहा कि “यदि आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे सचमुच कुछ देना ही चाहते हैं तो प्रभो ! मैं पाशुपत नामक भयंकर दिव्यास्त्र को आपसे प्राप्त करना चाहता हूं।”
अर्जुन जानता था कि आने वाले भयंकर युद्ध में अनेक दानवीय शक्तियां दुर्योधन का साथ देने के लिए मैदान में खड़ी होंगी । उन सबका विनाश करने के लिए पाशुपत से नीचे इस समय कुछ मांगना बड़ी चूक कर देना होगा। अर्जुन के लिए युद्ध निकट था और अपनी आंखों से दीखते हुए युद्ध की तैयारी में अर्जुन किसी प्रकार का प्रमाद बरतने की भूल नहीं करना चाहते थे। यही कारण था कि आज उन्होंने अपनी घोर तपस्या का फल प्राप्त करने के क्षणों में शिवजी से वही मांग लिया जो उस समय उन्हें मांग भी लेना चाहिए था।
शिवजी भी यह जानते थे कि अर्जुन की लक्ष्य साधना आज किसी पाशुपतास्त्र को प्राप्त करना नहीं है, उसकी लक्ष्य साधना तो संपूर्ण भूमंडल पर शांति और धर्म की स्थापना करना है। इतने बड़े लक्ष्य की बड़ी-बड़ी बाधाओं को हटाने के लिए अर्जुन को सचमुच में पाशुपत ही चाहिए। इसलिए उन्होंने भी देर नहीं लगाई और अर्जुन से कह दिया कि “मैं अपना परम प्रिय पाशुपतास्त्र तुम्हें प्रदान करता हूं। अर्जुन ! तुम इसके धारण, प्रयोग और उपसंहार में पूर्णतया समर्थ हो। मैंने इसके लिए जो परीक्षा आयोजित की थी उसमें तुम पूर्णतया सफल हुए हो और मुझे यह विश्वास हो गया है कि तुम इसका प्रयोग सदा धर्म की स्थापना के लिए ही करोगे।
मेरे इस अस्त्र को देवराज इंद्र, यक्षराज, कुबेर, वरुण अथवा वायु देव भी नहीं जानते । फिर साधारण मनुष्य तो जान ही कैसे सकेंगे ? परंतु पार्थ ! तुम किसी निरपराध पुरुष पर इसका प्रयोग मत कर देना। किसी निरपराध ,निर्दोष को मारने के लिए या नरसंहार करने के लिए भी इसका प्रयोग मत करना। यदि किसी अल्प शक्ति योद्धा पर इसका प्रयोग किया गया तो यह संपूर्ण जगत का नाश कर डालेगा। तुम्हारे पास दिव्य शक्ति के रूप में यह रहे और इसका प्रयोग जब भी कभी किया जाए तो दानवीय शक्तियों के विनाश के लिए किया जाए, यही मेरा उपदेश है।”
शिवजी ने अर्जुन को यह भी बताया कि “चराचर प्राणियों सहित संपूर्ण जगत में ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जो इस अस्त्र के द्वारा न मारा जा सके। हे अर्जुन! इसका प्रयोग करने वाला पुरुष अपने मानसिक संकल्प से, दृष्टि से, वाणी से तथा धनुष बाण द्वारा भी शत्रुओं को नष्ट कर सकता है।”
इसके बाद शिवजी ने अर्जुन को आज्ञा दी कि “अब तुम स्वर्ग लोक को जाओ।” तब अर्जुन ने हाथ जोड़कर उनकी ओर देखा और चरणों में मस्तक रखकर उनके प्रति अपनी पूर्ण कृतज्ञता और श्रद्धा का प्रदर्शन करते हुए प्रणाम किया।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)

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