महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की अद्भुत धारणा शक्ति…
महर्षि दयानन्द जी की धारणा शक्ति अपूर्व थी, उन्होंने एक बार पं० भगवान वल्लभ से सुश्रुत संहिता जो हजारों पृष्ठ का ग्रन्थ था, मंगवाकर देखा, और एक दो दिन में ही उस पर इतना अधिकार कर लिया कि प्रश्न उठने पर प्रत्येक, प्रसंग का वाक्य उद्धत करने लगे।
महर्षि को वेद कंठस्थ थे…
गुजरात में ऋषिवर दयानन्द जी महाराज वेद भाष्य के कार्य में व्यस्त रहते थे, वह पंडितों को वेद भाष्य लिखाया करते थे। उनके हाथ में कोई पुस्तक नहीं रहती थी। फिर भी वह इतनी शीघ्रता से वेद भाष्य लिखाते थे कि लेखकों को लिखने का अवकाश नहीं मिलता था।
महर्षि से उपासना में मन लगाने की विधि पूछी…
पं० आदित्य नारायण ने महर्षि से उपासना में मन लगाने की विधि पूछी। स्वामी जी ने उससे कहा, यम-नियम का पालन करो। उन्होंने द्वितीय, तृतीय बार यही प्रश्न पूछा, स्वामी जी ने हर बार यही उत्तर दिया। पण्डित जी इस पर चिढ़ गए कि हमारा आना व्यर्थ हुआ। फिर उन्होंने सोचा स्वामी जी के उत्तर का क्या कारण है। उन्हें स्पष्ट ज्ञात हो गया एक मुकदमें में झूठी साक्षी देकर आए थे। और फिर भी देने वाले थे। महर्षि दयानन्द यह वृत अपनी योग विभूति से जान गए थे।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी में अपूर्व ब्रह्मचर्य बल था…
जोधपुर नगर में एक पहलवान रहता था जिसे अपने बल पर बहुत घमण्ड था। वह अकेला ही रहट चलाकर अपने स्नान के लिए हौज भरा करता था। लोग यही समझते थे कि इस हौज को कोई दूसरा नहीं भर सकता। महर्षि दयानन्द जी नगर में प्रातः काल भ्रमण के लिए जाया करते थे। एक दिन स्वामी जी ने उस हौज को भरते देख लिया। उस दिन वायु सेवन के लिए उधर से गुजरे तो उनके जी में आया कि हौज को भर देवें। और स्वामी जी ने उस हौज को भर दिया और वायु सेवन को चल पड़े। जब पहलवान आया तो उसने हौज भरा देखा तो आश्चर्य चकित रह गया। स्वामी जी जब उधर आये तो पहलवान ने कहा- बाबा! हौज तुमने भरा? स्वामी जी ने कहा- हां! मैंने भरा। फिर पूछा तुम थके नहीं, स्वामी जी ने कहा कि उससे भी व्यायाम पूरा नहीं हुआ। पहलवान हक्का-बक्का रह गया।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की शिष्टता व निर्भयता…
कर्णवास में कर्ण सिंह बड़े गुर्जर क्षत्रीय थे व जमीदार रईस थे, महर्षि दयानन्द जी को प्रणाम करके बोले कि हम कहां बैठे? स्वामी जी ने कहा कि जहां आपकी इच्छा हो वहां बैठिये। कर्ण सिंह घमण्ड से बोले जहां आप बैठे हैं हम तो वहां बैठेंगे। एक ओर हटकर स्वामी जी बोले आइए बैठिये। उसने स्वामी जी से पूछा आप गंगा को मानते हैं? उन्होंने उत्तर दिया गंगा जितनी है उतनी मानते हैं, वह कितनी है? फिर कहा हम संन्यासियों के लिए कमण्डल भर है। कर्ण सिंह गंगा स्तुति में कुछ श्लोक पढ़ता है। स्वामी जी ने कहा यह तुम्हारी गप्प, भ्रम है। यह तो जल है इससे मोक्ष नहीं होता, मोक्ष तो सत्य कर्मों से होता है। फिर कर्ण सिंह बोले हमारे यहां रामलीला होती है, वहां चलिए। स्वामी जी ने कहा तुम कैसे क्षत्रिय हो महापुरुषों का स्वांग बनाकर नाचते हो। यदि कोई तुम्हारे महापुरुषों का स्वांग बनाकर नाचे तो कैसा लगेगा। उसके ललाट पर चक्रांकित का तिलक देखकर कहा तुम कैसे क्षत्रिय हो, तूमने अपने माथे पर भिखारियों का तिलक क्यों लगाया है और भुजाएं क्यों दुग्ध की हैं? कर्ण सिंह बोले यह हमारा परम मत है यदि तुमने खण्डन किया तो हम बुरी तरह पेश आयेंगे। किन्तु स्वामी जी शान्त मन से खण्डन करते रहे। फिर कर्ण सिंह को क्रोध आ गया। उसने म्यान से तलवार निकाल ली। स्वामी जी ने निर्भीकता से कहा यदि सत्य कहने से सिर कटता है तो काट लो, यदि लड़ना है तो राजाओं से लड़ो, शास्त्रार्थ करना है तो अपने गुरु रंगाचार्य को बुलाओ और प्रतिज्ञा लिख लो यदि हम हार गये तो अपना वेद मत छोड़ देंगे। कर्ण सिंह ने कहा उनके सामने तुम कुछ भी नहीं हो। स्वामी जी बोले रंगा स्वामी की मेरे सामने क्या गति है। क्रोधित कर्ण सिंह स्वामी जी को गाली देता रहा किन्तु स्वामी जी हंसते रहे। कर्ण सिंह ने तलवार चलाई, स्वामी जी ने तलवार छीन ली और कहा राजन मैं चाहूं तो यह तलवार तुम्हारे शरीर में घुसा दूं पर हमारा सन्यासी धर्म इसकी अज्ञान नही देता और तलवार टेककर दो टुकड़े कर दिए और शान्त रहे। शिष्यों ने रिपोर्ट लिखने को कहा किन्तु स्वामी जी ने उसको माफ कर दिया और पूर्ववत् शान्त होकर उपदेश करने लगे।
अभ्यस्त अपराधी भी महर्षि दयानन्द योगी से डर भागे…
कर्णवास में एक रात को कर्ण सिंह ने अपने तीन आदमियों को स्वामी जी का सिर काटने भेजा। किन्तु उन अपराधियों को कुटी में जाने का साहस न हुआ। स्वामी जी खटका सुनकर बैठ गये। राव साहब ने अपने आदमियों को पुनः धमकाकर भेजा और कहा स्वामी जी का सिर काट लाओ। स्वामी जी चौकी पर बैठ कर ध्यान मगन हो गए। वह जब स्वामी जी की हत्या करने दरवाजे पर आए तो स्वामी जी ने द्वार पर आकर भयंकर स्वर में ध्वनि की और वे लोग ध्वनि की आवाज सुनकर घबरा गए और चित्त होकर गिर पड़े, तलवारें छूट गईं और किसी प्रकार उठकर भाग गये। सत्य के पथिक में बड़ी आत्म शक्ति होती है।
ऋषि का शाश्त्रार्थ…
सन् १८६७ में अनूप शहर में मूर्ति पूजा पर शास्त्रार्थ को स्वामी जी अनूप शहर में आये। अध्यापक लाला बाबू ने स्वामी जी से कुछ पूछने का आग्रह किया। स्वामी जी ने कहा कोई दूसरा व्यक्ति तुमको समझा देवे तो मैं तैयार हूं, मैं संस्कृत में ही बोलूंगा और वहां पर पण्डित अम्बादत्त से मूर्ति पूजा पर शास्त्रार्थ हुआ और अम्बादत्त हट गए। बहुतों ने उसी समय से मूर्ति पूजा छोड़ दी और मूर्तियों को पानी में विसर्जन कर दिया और अम्बादत्त दुबारा शास्त्रार्थ करने का साहस न कर सका।
दयालु महर्षि दयानन्द जी ने विष देने वाले को क्षमा किया…
अनूप शहर की घटना है, कि एक दिन एक ब्राह्मण ने स्वामी जी को विष दे दिया क्योंकि वह स्वामी जी की मूर्ति पूजा खण्डन से तंग आ चुका था। स्वामी जी समझ गये और न्योली क्रिया से विष निकाल कर बच गये पर उस विष देने वाले को कुछ न कहा। सैय्यद मोहम्मद तहसीलदार ने उस ब्राह्मण को बन्दी बना लिया। वह स्वामी जी से बहुत प्रेम करते थे और दर्शनार्थ रोज आया करते थे। स्वामी जी ने तहसीलदार से बोलना बन्द कर दिया। उसने कारण पूछा तो स्वामी जी ने कहा- “मैं संसार को बन्दी बनाने नहीं आया हूँ परन्तु उनको छुड़ाने आया हूँ। यदि वह अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता तो मैं अपनी श्रेष्ठता क्यों छोड़ूं।” अन्त में तहसीलदार से कहकर उसको छुड़वा दिया।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की सेवा भाव की चरम सीमा एक बीमार कोढ़ी को उठाना…
सोमनाथ मन्दिर में मेला लगा हुआ था और मेले के बाहर एक कोढ़ी बीमार पड़ा हुआ था और चलने की स्थिति में नहीं था, कोई कहता मर गया कोई कहता जिन्दा है। पता चला कि पुलिस वालों ने मारते-मारते उसको बाहर फैंक दिया था। कोई कहता पैरों पर रस्सी बांध के बाहर फैंक दो। उसके सारे शरीर में खून और पीप बह रहा था। स्वामी जी ने कपड़ा भिगाकर उसके मुंह में पानी डाला, तब उसने आंखें खोल दी थी और कातर दृष्टि से दया के भण्डार दयानन्द को देखने लगा। और उसको छोड़ना अच्छा न लगा और चिकित्सा केन्द्र का पता करके कोढ़ी को पीठ में उठाकर चिकित्सा केन्द्र में भर्ती करा दिया। विदाई के समय उसने कहा- बाबा! मुझे मरने का आशीर्वाद दो, और उसके कुछ देर में देह त्याग दिया। स्वामी जी नदी नहा करके योग गुरुओं की खोज में निकल पड़े।
श्रद्धेय पाठकगण- अनेकों पुस्तकों का पढ़ना मात्र ज्ञान नहीं है। वास्तव में ज्ञानी वह है, जिसके सिद्धान्त पवित्र हों तथा नियमपूर्वक सदा उत्तम कर्मों को करता हो। महर्षि दयानन्द जी ने वेदानुकूल मनुष्य मात्र को उपदेश देकर बतलाया कि ईश्वर सर्वत्र जो सर्वव्यापक, सर्व सामर्थ्य वाला समदर्शी है वह सब जीवों के कर्मों को जानता है। उसी के अनुकूल सबको यथोचित फल देता है। अठाहरवीं व उन्नीसवीं सदी के अन्धेरे युग में एक महाज्ञानी ईश्वर भक्त ही इतनी ऊंची बात कह सकता था। यह ईश्वर का नियम है कि अत्यन्त अन्धकार के पीछे प्रकाश और दु:ख के पीछे सुख आता है। उसी के अनुकूल जब भारत की सन्तानें अपार दुःखों में फंस गई तो ईश्वर ने अपने अनुग्रह से भारत का उद्धार करने ऋषि दयानन्द जी को भारत धरती पर भेजा। जिन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर वेदों के ज्ञान से प्रकाशित हो, अपनी विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की आज्ञा सिर पर धर भारत की दुर्दशा को देख उसने भ्रमण कर वैदिक धर्म का उपदेश करना आरम्भ कर दिया और सारे संसार की आत्माओं को शान्ति मिलने का एक मात्र उपाय बतला दिया जिसके कारण अब और तबसे समस्त भूगोल में वेदों की महिमा फैलती जा रही है। महर्षि दयानन्द जी के सम्पूर्ण जीवन की गति एक विशाल ग्रन्थ बन सकता है, छोटे से प्रसंग लेख में नहीं समा सकता है।
[स्त्रोत- आर्य मर्यादा : आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रमुख पत्र का मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
● महर्षि उपदेश – मञ्जरी 👍