संस्कार और संस्कृति का परिचायक है दीपक
चेतन चौहान – विनायक फीचर्स
भारतीय संस्कृति में दीपक की महिमा अपरम्पार है इसलिए दीपक को जीवन की प्रकाश परम्परा व तमसो मां ज्योतिर्गमय की आकांक्षा का आधार स्तंभ भी माना गया है। भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में ऋग्वेद के अनुसार दीपक की उत्पत्ति सूर्य से मानी गयी है। हमारे शास्त्रों में यूं भी नौ प्रकार की पूजा-अर्चना का विधान है, जिसके तहत दीप पूजा व दीपदान को श्रेष्ठ माना गया है। प्राचीनकाल से ही भारतीय परंपरानुसार किसी भी शुभ कार्य के आरंभ में दीपक प्रज्ज्वलित किया जाता है। जलता हुआ दीपक हमारे जीवन का साक्षी होता है।
हमारे देश में तीज-त्योहारों में मांगलिक अवसरों पर सर्वप्रथम दीपक जलाकर विभिन्न उत्सव मनाये जाते हैं। दीपक की प्रज्ज्वलित लौ प्रकाश की रश्मियां बिखेरकर अंधकार को दूर करती हैं व हमें जनजीवन का सन्देश देती हैं। जलता हुआ दीपक मनुष्य की प्रगति तथा खुशियों का पर्याय माना जाता है। जहां दीपक हमारी आस्था और मानवीय संवेदनाओं का प्रतीक है, वहीं यह टिमटिमाते तारों के प्रकाश से भी प्रेरणा लेने का आह्वान करता है। भारतीय संस्कृति में दीपक को तो साक्षात् सूर्य व अग्नि का द्योतक माना गया है।
मनुष्य के जीवन में दीपक का महत्व प्राचीन काल से ही रहा है। प्राचीन लोकमान्यताओं के आधार पर भी इस बात को बल मिलता है कि प्राचीन सभ्यताओं में भी लोगों में दीपावली की भांति त्योहारों को मनाये जाने का प्रचलन रहा, जिनमें दीपक को प्रमुखता दी गयी है। प्राचीन सभ्यता के तहत मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई में कई प्रकार के दीपक मिले हैं, यहां तक कि मानव सभ्यता के विकास क्रम में भी कुछ ऐसे प्रमाण मिले हैं, जिनमें नगरों को प्रकाशमान करने के लिए सहस्त्रों की संख्या में सूर्यास्त होते ही दीपक जला दिये जाते थे। भारत में दीपक का उद्भव पांच हजार वर्ष पूर्व माना गया है। यह दीपक आकार में कोने मुड़े हुए चौकोर आकृति के थे। हड़प्पा की सभ्यता में खुदाई के दौरान गोल आकार के दीपक मिले थे। मोहनजोदडों में मिली विभिन्न देवियों की प्रतिमाओं की केश लड़ों में दोनों ओर दीपक बने हुए पाये गये हैं मोहन जोदड़ों शहर के मुख्य मार्गों के दोनों ओर दीपक जलाने के विशाल गढाईदार द्वार कलात्मक रूप में पाये गये हैं। आलों व ताखों में घरों में दीपक जलाने की परंपरा रही है। भारत के कुषाण वंश के दौरान पाये गये गोल दीपक काफी गहराई के होते थे। इन दीपकों के सिरे बाती रखने हेतु मुड़े हुए होते थे।
रोम व यूनान की सभ्यता व संस्कृति में नाव के आकार के दीपक होते थे। उनके छेदों में बाती निकालकर तेल भरकर जलाया जाता था। आजकल बनने वाले विभिन्न प्रकार के दीपक गुप्तकाल की तरह के हैं। मुगलकाल में भी विशेष प्रकार के दीपक बनते थे, जिसे किसी भी दिशा में घुमाया जा सकता था।
प्राचीन गंधार काल में भगवान बुद्ध के समय में कटोरीनुमा दीपक बनाये जाते थे। दीपक भले ही किसी भी सभ्यता व संस्कृति में विभिन्न आकार व प्रकार के बनते रहे हों, लेकिन हर काल में ये प्रकाश के प्रतीक ही माने गये हैं। भारतीय संस्कृति में दीपकों के साथ कुछ ऐसी मान्यताएं भी जुड़ी हुई हैं जो शकुन और अपशकुन को बलवती करती हैं।
कहा जाता है कि यदि जलता हुआ दीपक हवा से या हाथ से गिरकर बुझ जाता है तो इसे बुरा माना जाता है। यहां तक कि दीपक बुझा दो कहना भी अशुभ है। हमारे शास्त्रों में इस प्रकार के विधान का उल्लेख मिलता है कि यदि भोजन के वक्त दीपक बुझ जाये तो अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। पुराणों में तो यहां तक तर्क दिया गया है कि जलते दीपक को फूंक मारकर बुझाने वाला व्यक्ति नर्क में जाता है व अगले जन्म में जन्मांध पैदा होता है।
संसार में जितने भी अन्धे, मूक, बधिर, निर्धन व बुद्धिहीन व्यक्ति जन्म लेते हैं तो उनके बार में कहा गया है कि उनका कृत्य जलते हुए दीपकों का बुझाना माना गया है।
दीपक की ज्योति का रंग भी हमारे जीवन में शुभ-अशुभ को दर्शाता है। शास्त्र विधानों में श्वेत ज्योति अहम् का सर्वनाश करती है व श्याम वर्ण ज्योति मृत्यु का संकेत देती है तो अत्यंत लाल ज्योति सुख प्रदान करती है। इस तरह कोरी ज्योति लक्ष्मी के आने का आभास देती है। हमारे धर्मग्रन्थों में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि दीपक सदैव पवित्र व धार्मिक स्थलों पर जलाये जायें। जहां तक हो सके शुद्ध धृत से दीपक जलायें। घी की ज्योति से नेत्र रोगमुक्त होते हैं तो महुए के तेल से जलता दीपक सौभाग्य प्रदान करता है। तिल व सरसों के तेल से दीपक जलाने से रोग व अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। कार्तिक मास में दीपक जलाने से कई जन्मों का पुण्य प्राप्त होता है। दीपदान जमीन पर करने की बजाय वृक्षों, जलाशयों व नदियों में केले के पत्तों पर रखकर किया जाना चाहिए।
हिन्दू संस्कृति में दीपक को इतना महत्व दिया गया है कि यहां दीपकों का निर्माण करने वाले कुम्हारों ने भी विभिन्न प्रकार के दीपकों का निर्माण कर उसके आकार प्रकार से उसके सौंदर्य को बढ़ावा दिया है। दीप संरचना की परम्परा में सोलह प्रकार के दीपक बनाने का विधान है। धीरे-धीरे दीपकों के स्वरूप व इसकी आकृतियों में काफी परिवर्तन आ गये हैं, लेकिन आज भी ग्रामीण परिवेश में मिट्टी के चौड़े मुंह के कटोरेनुमा दीपक को ही जलाने की परम्परा है।
हालांकि भौतिकवादी संस्कृति व महंगाई ने तेल के दीपकों पर बंदिश अवश्य लगायी है, लेकिन फिर भी भारत में गरीब से गरीब व्यक्ति भी दीपावली पर मां लक्ष्मी की आराधना व उसमें आस्था व्यक्त करने के लिए एक छोटा सा दीपक अपनी कुटिया में अवश्य ही जलाता है। साथ ही तमसो मां ज्योतिर्गमय का अहसास अपने जीवन में कर स्वयं को धन्य समझता है। कुल मिलाकर दीपक की बढ़ती लौ हमें सदैव आगे बढऩे की सदियों से प्रेरणा देती आ रही है, जिसके उजियारे में उज्ज्वल भविष्य की ही आस में चिरकाल से हम बैठे हैं। (विनायक फीचर्स)
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