महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय – ३ ख युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ
धर्मराज युधिष्ठिर वास्तव में राष्ट्र धर्म की एक जीती जागती मिशाल थे। उनके भीतर धर्म चिंतन चलता रहता था। उनका धर्म चिंतन ही उनका राष्ट्रचिंतन था। क्योंकि धर्म चिंतन और राष्ट्र चिंतन दोनों अनन्य भाव से जुड़े हुए हैं। धर्म राष्ट्र के लिए है और राष्ट्र धर्म के लिए है। धर्म का अंतिम उद्देश्य राष्ट्र की अर्थात जीवन और जगत की समस्याओं का समाधान कर जीव मात्र का कल्याण करना है। अपने इसी गहन और उत्तम चिंतन के माध्यम से धर्म राष्ट्र का मार्गदर्शन और कल्याण करता है। यही कारण है कि राष्ट्र भी धर्म के स्रोत को जीवंत बनाए रखने में अपना अस्तित्व खोजता है । जब - जब राष्ट्र को किसी चौराहे पर खड़े होकर मार्ग नहीं सूझता है तब - तब वह धर्म की शरण में जाता है। धर्मराज युधिष्ठिर स्वयं धर्म का प्रतीक होकर भी श्रीकृष्ण जैसे धर्मज्ञ के साथ चर्चा करना इसीलिए आवश्यक समझते थे कि धर्म और राष्ट्र के इस पवित्र संबंध की पवित्रता को यथावत बनाए रखकर वह कैसे अपने इस महान यज्ञ का संपादन कर सकते हैं ? संकल्प लेना बड़ा सहज है पर उस संकल्प को पवित्रता के साथ पूर्ण करना बड़ा कठिन है। धर्मराज युधिष्ठिर इस बात को जानते थे कि मैंने संकल्प तो ले लिया है लेकिन यह पवित्रता के साथ पूर्ण भी हो , इसके लिए श्री कृष्ण जैसे धर्मज्ञ का साथ होना और उनकी सम्मति, स्वीकृति तथा सहमति प्राप्त करना आवश्यक है।
अब उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए श्री कृष्ण जी से कहा कि “मैं यह भी जानता हूं कि जो सब कुछ कर सकता है जिसकी सर्वत्र पूजा होती है और जो सर्वेश्वर होता है, ऐसा राजा ही इस यज्ञ को संपन्न करने में समर्थ माना जाता है। महाराज ! मैं चाहता हूं कि आप इस समय मेरे लिए जो उत्तम और करने योग्य हो उसे ठीक से बताने की कृपा करें।”
धर्मराज युधिष्ठिर के इस निवेदन को स्वीकार कर श्रीकृष्ण जी ने राजसूय यज्ञ के बारे में अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि “यद्यपि आप सब कुछ जानते हैं तो भी इस विषय में मैं अपनी ओर से कुछ निवेदन करता हूं।
भरतकुलभूषण ! आप सदा ही सम्राट के गुणों से समलंकृत हैं ।अतः हे भारत ! आपको क्षत्रिय समाज में अपने आप को सम्राट बना लेना चाहिए। पर मैं यह मानता हूं कि जब तक महाबली जरासंध जीवित है , तब तक आप इस यज्ञ को संपन्न नहीं कर सकते। उस राक्षस ने अनेक राजाओं को जीतकर गिरिव्रज में कैद कर रखा है। जब तक उन राजाओं को आप सुरक्षित छुड़ाने में सफल नहीं हो जाते हैं, तब तक आपका यह यज्ञ कार्य अपूर्ण ही माना जाएगा। आपको इस समय निश्चय ही कोई ऐसा उपाय करना होगा जिससे इन सब राजाओं को अभयदान प्राप्त हो और उन्हें ऐसा आभास हो कि उनका संरक्षक धर्मराज युधिष्ठिर के रूप में इस भूमंडल को प्राप्त हो चुका है। अब उन्हें किसी भी प्रकार के किसी कष्ट का सामना भविष्य में करना नहीं पड़ेगा । यदि कोई राक्षस उनके साथ अन्याय करने का साहस करेगा तो उसे मिटाने वाला भी अब उपस्थित हो चुका है। इसलिए ऐसी परिस्थितियों में जरासंध को नष्ट करने का उत्तम उपाय आपको पहले करना होगा। उसके पश्चात ही आप इस यज्ञ का आयोजन करें तो उचित रहेगा।”
इसके पश्चात जरासंध के वध के लिए श्री कृष्ण, भीम और अर्जुन ने मगध यात्रा की और उस राक्षस का विनाश कर उसकी जेल में पड़े अनेक राजाओं को जेल से मुक्त कराया। इन निरपराध राजाओं की इस प्रकार जेल से मुक्ति हो जाने के पश्चात धर्मराज युधिष्ठिर के इस महान यज्ञ का मार्ग प्रशस्त हो गया। लेकिन अभी इसके लिए एक और सीढ़ी पार करनी थी। इस यज्ञ के संपादन से पहले संपूर्ण भूमंडल के सभी राजाओं का धर्मराज युधिष्ठिर के समक्ष नतमस्तक होना भी आवश्यक था। इस महान कार्य के संपादन के लिए अर्जुन ने अपने आपको सहर्ष समर्पित किया। वह धर्मराज युधिष्ठिर से अनुमति लेकर दिग्विजयी होने के लिए प्रस्थान कर गया। इसी प्रकार भीम, नकुल और सहदेव ने भी दिग्विजय के लिए अलग-अलग दिशाओं में प्रस्थान किया। अर्जुन ने उत्तर दिशा पर विजय प्राप्त की तो भीम ने पूर्व दिशा, सहदेव ने दक्षिण और नकुल ने पश्चिम दिशा को विजय किया।
चारों दिशाओं से अब धन की वर्षा भी होने लगी थी। क्योंकि अनेक पराजित राजाओं को उस समय अपनी पराजय स्वीकार करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर के लिए कर के रूप में धन देना पड़ा। जिससे राजकोष में पर्याप्त वृद्धि हो गई। तब युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण जी से कहा कि आपकी कृपा से संपूर्ण भूमंडल इस समय मेरे अधीन है। मुझे धन भी पर्याप्त रूप से प्राप्त हो गया है। ऐसे में अब यदि राजसूय यज्ञ संपन्न किया जाएगा तो किसी प्रकार की कोई बाधा आड़े आने वाली नहीं है।
अब श्री कृष्ण जी ने युधिष्ठिर को उनका मनोवांछित यज्ञ आरंभ करने की अनुमति दी। श्री कृष्ण जी से यज्ञ आरंभ करने की अनुमति प्राप्त कर धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने प्रिय अनुज और मंत्री सहदेव को आज्ञा दी कि सब राजाओं तथा ब्राह्मणों को आमंत्रित करने के लिए शीघ्रगामी दूत तुरंत भेजो। राजा की आज्ञा प्राप्त करते ही सहदेव ने आज्ञा का यथावत पालन किया। सहदेव ने अपने अनेक लोगों को सभी राज्यों में घूम-घूमकर वहां के राजाओं, ब्राह्मण, वैश्यों तथा सब माननीय शूद्रों को निमंत्रित करने के लिए भेजा। धर्मराज युधिष्ठिर के आदेश का पालन करते हुए नकुल ने हस्तिनापुर में जाकर भीष्म, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, विदुर , कृपाचार्य और दुर्योधन आदि को भी यज्ञ में उपस्थित होने के लिए निमंत्रण दिया।
नियत समय पर यज्ञ आरंभ हो गया। तब धर्मराज बहुत से ब्राह्मणों से घिरे हुए यज्ञ मंडप में उपस्थित हुए। उस यज्ञ में धृतराष्ट्र, भीष्म, महाबुद्धिमान विदुर, दुर्योधन उसके सभी भाई, गांधार नरेश सुबल ,महाबली शकुनि , बलवान राजा शल्य, महाबली बाह्लिक , अश्वत्थामा, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, सिंधुराज जयद्रथ, पुत्रों सहित महाराज द्रुपद, राजा साल्व, प्राग ज्योतिषपुर के नरेश महारथी भगदत्त और अन्य अनेक शासक राजा व राजकुमार उपस्थित हुए।
मर्यादाओं का पालन करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने उपस्थित सभी अतिथि महानुभावों का हृदय की गहराइयों से स्वागत किया। उन्होंने विद्वान पुरुषों के स्वयं चरण धोने का कार्य किया। उस समय सभी राजाओं में धन देने की होड़ लगी हुई थी। पूरा सभामंडप देवताओं की सभा से कम नहीं दिखाई दे रहा था। धर्मराज युधिष्ठिर के आग्रह पर भीष्म पितामह ने बताया कि इस समय अर्घ्य लेने का अधिकार श्री कृष्ण जी का है। उन्होंने कहा कि ‘यह श्रीकृष्ण सब समागत राजाओं के मध्य में अपने तेज, बल और पराक्रम से इस प्रकार दैदीप्यमान हो रहे हैं जैसे ग्रह नक्षत्र में भुवनभास्कर सूर्य। अंधकार पूर्ण स्थान जैसे सूर्य के उदय होने पर ज्योति से जगमगा उठता है और वायुहीन स्थान जैसे वायु के संचार से प्राणवान हो जाता है वैसे ही श्रीकृष्ण द्वारा हमारी यह सभा आह्लादित एवं प्रकाशित हो रही है। अत: यही अग्रपूजा के योग्य हैं।’
पितामह भीष्म की आज्ञा पाकर प्रतापी सहदेव ने श्रीकृष्ण जी को उत्तम अर्घ्य निवेदन किया। श्रीकृष्ण जी ने शास्त्रविधि के अनुसार वह अर्घ्य स्वीकार किया। परंतु इसे राजा शिशुपाल सहन नहीं कर पाया। उसने इस बात का विरोध किया और कहा कि “यदुवंशी कृष्ण राजा नहीं है। समस्त भोपालों के मध्य तुम लोगों ने जिस प्रकार इसकी पूजा की है वैसी पूजा का अधिकारी यह कदापि नहीं है। उसने कहा कि पांडवो ! तुम अभी बालक हो। तुम्हें धर्म का पता नहीं है । क्योंकि धर्म का स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है। यह गंगानंदन भीष्म बहुत वृद्ध हो गए हैं । अतः उनकी स्मरण शक्ति मारी गई है। उनकी सूझबूझ भी बहुत कम हो गई है। अपनी इसी मनोदशा के कारण इन्होंने इस समय श्री कृष्ण की पूजा की सम्मति दी है।”
शिशुपाल ने वहां उपस्थित भीष्म जैसे ज्ञानवृद्ध नेताओं का तो अपमान किया ही श्री कृष्ण जी के लिए भी उसने वह सब कुछ कहा जो उसे नहीं कहना चाहिए था। भीष्म द्वारा शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर भी दिया गया, पर शिशुपाल इसके उपरांत भी अपनी नकारात्मक सोच पर कायम रहा और उसने भीष्म जी की निंदा भी जारी रखी। इस सबके उपरांत सहदेव ने महामानी और बलवान राजाओं के बीच में खड़े होकर पूज्य व्यक्तियों की क्रम से पूजा करके वह अर्घ्य निवेदन का कार्य पूरा कर दिया।
इस पर शिशुपाल ने अपना विकराल रूप दिखाने का प्रयास किया और वहां उपस्थित अनेक राजाओं को युद्ध के लिए उकसाने का भी काम करने लगा। उसने उन राजाओं का खुला आवाहन किया कि वह उठ खड़े होकर पांडवों और यादवों की सम्मिलित सेना का विनाश करें।
ऐसी स्थिति में कुछ राजाओं ने शिशुपाल के साथ मिलकर शोरशराबा आरंभ कर दिया। तब एक बार तो युधिष्ठिर भी विचलित हो गए, परंतु भीष्म ने स्थिति को संभालते हुए कहा कि ‘धर्मराज युधिष्ठिर ! आपको वर्तमान स्थिति से किसी भी प्रकार विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। जब तक श्रीकृष्ण जी सोए हुए हैं अर्थात वह अपने सही स्वरूप में नहीं आ रहे हैं, ये लोग तब तक ही शोरशराबा कर पाएंगे। जैसे ही श्री कृष्ण जी सोते से जाग जाएंगे वैसे ही यह सब मैदान छोड़कर भागते हुए दिखाई देंगे।’
ऐसा सुनकर शिशुपाल ने भीष्म जी के लिए कुलकलंकी जैसे शब्दों तक का प्रयोग करना आरंभ कर दिया।
भीष्म जी के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करते देख शिशुपाल पर भीम ने अपना गुस्सा प्रकट करना चाहा, जिसे भीष्म जी ने ही रोक दिया। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण जी के लिए भी अनेक प्रकार के अपशब्द प्रयोग किये । अंत में उसने उन्हें युद्ध की सीधी चुनौती ही दे डाली ।
तब श्रीकृष्ण जी ने वहां उपस्थित सभी राजाओं को संबोधित करते हुए अत्यंत मधुर वाणी में अपना संबोधन आरंभ किया और कहा कि “राजवृंद ! यदुकुल की कन्या का पुत्र होकर भी यह शिशुपाल हम लोगों से सदा शत्रुता का व्यवहार ही करता आया है। यद्यपि मेरे परिवार के लोगों ने इसका कुछ नहीं बिगाड़ा और उसके साथ कोई अपराध नहीं किया। परंतु इसके उपरांत भी यह क्रूर आत्मा हमारे अहित में ही लगा रहता है।
हे भूमिपालो ! जब हम प्रागज्योतिषपुर में गए हुए थे, तब इस क्रूरकर्मा ने मेरे पिताजी का भानजा होकर भी द्वारका में आग लगवा दी थी । इसने तनिक भी यह ध्यान नहीं दिया था कि तू किसके साथ ऐसा बर्ताव कर रहा है ? मेरे पिताजी ने अश्वमेध यज्ञ में रक्षकों से घिरा हुआ पवित्र घोड़ा छोड़ा तो इस दुष्ट आत्मा ने यज्ञ में विघ्न डालने के लिए वह घोड़ा भी चुरा लिया था। आप लोग देख ही रहे हैं कि इस समय यह मेरे प्रति कैसा अशोभनीय और अभद्रता पूर्ण व्यवहार कर रहा है? मैं अपनी बुआ के संतोष के लिए ही इसके अतीव दु:खद अपराधों को सहन करता आया हूं। परंतु अब अति हो चुकी है। इसने अभिमान के वशीभूत होकर समस्त राजाओं के समक्ष मेरे साथ जो दुर्व्यवहार किया है उसे अब मैं क्षमा नहीं करूंगा।”
ऐसा कहकर कुपित हुए शत्रु नाशक श्री कृष्ण जी ने चक्र से उसी क्षण चेदिराज शिशुपाल का सर उड़ा दिया।
तत्पश्चात कुंतीनंदन धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को आदेश दिया कि “वीर राजा शिशुपाल का अन्तिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ करो। इसमें किसी प्रकार का विलंब नहीं होना चाहिए।” शिशुपाल के अंतिम संस्कार के पश्चात कुंतीनंदन ने वहां आए हुए सभी राजाओं के साथ उसके पुत्र को राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया। इसके उपरांत श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित उस राजसूय यज्ञ को धर्मराज युधिष्ठिर ने संपन्न किया।
जब विनाश सर पर मंडराने लगता है तो मनुष्य की मति मारी जाती है। उस दिन शिशुपाल की भी मति मारी गई थी। उसने श्रीकृष्ण जी की सहनशक्ति की परीक्षा ली और उनकी सहनशीलता को उस समय उसने उनकी कायरता मान लिया। जब व्यक्ति किसी के भारी सद्गुण का अपमान करता है या कहिए कि उसे सही ढंग से आंकने में असफल रह जाता है तो उसे अपनी ऐसी असफलता का भारी मूल्य चुकाना पड़ता है और कभी-कभी यह मूल्य सर को भी ले उड़ता है। संसार में रहकर मर्यादाओं का पालन करना बहुत आवश्यक है। मर्यादाओं के भंग होने से सब कुछ अस्त व्यस्त हो जाता है। मर्यादा का टूटना मेंड के टूटने के जैसा है और जब मेंड टूट जाती है तो उसके पश्चात अधर्म और अनीति का गहरा अंधेरा छा जाता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)