क्रमश:
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दसवीं किस्त।
महर्षि पतंजलि ने 27 वे सूत्र में परिणाम शब्द की व्याख्या करके ईश्वर का वाचक प्रणय बताया। प्रणव के वाच्य वाचक संबंध को बताने का प्रयास किया ,समझाने का प्रयास किया। इसी को ईश्वर प्राणिधान कहा। तब शिष्य ने निम्न प्रकार शँका उठाई।
शंका संख्या 91—–
उस ईश्वर का जप और उसके अर्थ की भावना कैसे कर सकते हैं?
समाधान —-ओम प्रणव का जप करना तथा जप करते समय उसके अर्थ का भावन -चिंतन अवश्य करते रहना चाहिए .जो ऐसे जप करता है वही ईश्वर प्राणिधान की प्रक्रिया को उचित प्रकार से ग्रहण करता है ।ऐसा करने से अति शीघ्र समाधि लाभ प्राप्त होता है।
अर्थात जिसको शीघ्र समाधि लगानी हो ऐसा योगी ईश्वर का, ओम प्रणव का जप करते हुए अपनी भावनाओं में, अपने विचारों में, अपने चिंतन में ओम का ही ध्यान रखें।
शंका संख्या 92—
और अधिक स्पष्ट करने का कष्ट करें।
समाधान—-
इसको अच्छी प्रकार से समझने के लिए ईश्वर के गुण ,कर्म और स्वभाव को पहले समझ लेना चाहिए।जो ईश्वर के गुण ,कर्म स्वभाव को समझ कर जप में उसको मानकर चिंतन करता है, वह समाधि में अति शीघ्र पहुंच जाता है।
शंका संख्या 93 —
उदाहरण से समझाएं ।
ईश्वर के गुण, कर्म निम्न प्रकार से देखें।
ओम का जप ईश्वर के इस अर्थ की भावना से जप करें कि ईश्वर न्याय करता है ।हमें भी उसकी तरह से न्याय करना चाहिए। ईश्वर कभी भी अन्याय नहीं करता है। हमें भी किसी के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए। ईश्वर न्यायाधीश है। यही अर्थ की भावना है।जो शब्द बोलें वह शब्द अर्थ सहित बोले।
दूसरा उदाहरण और देखें।
ईश्वर आनंद स्वरूप है ।ईश्वर आनंद का भंडार है। ईश्वर आनंद प्रदाता है। ईश्वर के पास आनंद ही आनंद है। जो ईश्वर के पास जाता है ,वा उसकी उपासना करता है, वह भी ईश्वर से आनंद प्राप्त करता है। इसलिए हमको ओम प्रणव को आनंद स्वरूप स्वीकार करना चाहिए। ऐसी ही भावनाओं को,चिंतन को हृदय मस्तिष्क में रखते हुए ओम का जप करना चाहिए।
ओम का निरंतर मानसिक उच्चारण करना चाहिए।
शंका संख्या 94–
मानसिक उच्चारण किसे कहते हैं?
समाधान—-
मानसिक उच्चारण की स्थिति वह होती है जिसमें वाणी से ओम का बोलना आवश्यक नहीं है। केवल हृदय और मस्तिष्क में उसका जप निरंतर चलता रहना चाहिए ।प्रणव की मानसिक कल्पना के साथ प्रणव के अर्थ का निरंतर चिंतन मानसिक उच्चारण कहा जाता है।
ओम प्रणव के स्वरूप से अपने ध्यान को हटने नहीं देना चाहिए। निरंतर उसके चिंतन में रत रहना चाहिए।
ईश्वर को चेतन, आनंद, प्रकाश स्वरूप मान कर कल्पना करनी चाहिए। ध्यान अथवा जप के समय योगी का यही स्वरूप चिंतन का लक्ष्य रहना चाहिए।
योगी को जप में यह समझना चाहिए कि उसके चारों तरफ प्रकाश फैला हुआ है । उस प्रकाश को सर्वत्र विस्तृत रूप देने वाला केवल परमात्मा है ,ऐसा चित् में विचार रखना चाहिए।
शंका संख्या 95—-
मानसिक उच्चारण की स्थिति क्या प्रत्येक जप करने वाले को प्राप्त हो सकती है?
समाधान—-
हो सकती है।
यद्यपि ऐसी स्थिति प्राप्त करना अत्यंत कठिन है, परंतु निरंतर प्रयत्न और अभ्यास से ईश्वर का ही चिंतन निरंतर बने रहना अथवा हृदय और मस्तिष्क में चलते रहने का आभास योगी को होने लगता है। ऐसी स्थिति के प्राप्त होने पर योगी के चित्त में यह बार-बार आवृत्ति आने लगती है। तथा वही स्थिति अपनी तरफ बार-बार आकर्षित करती रहती है। एक क्षण भी उसका चित्त इसके बिना रुक नहीं सकता।
जैसे प्रारंभ में जब कोई भी ध्यानी ध्यान के लिए बैठता है और उस समय उसका अभ्यास नहीं होता ध्यान में बैठने के लिए, तब ऐसे ध्यानी अथवा योगी के समक्ष बहुत सारे विचार चित्त में आने लगते हैं ।लेकिन धीरे-धीरे अभ्यास करते हुए ऐसे सभी विचारों को दूर करते हुए ओम जप के आधार पर चित को परमात्मा के स्वरूप में एकाग्र करने का प्रयास होना चाहिए।
ईश्वर का आनंद,उसका न्याय एवं उसका ज्ञान रूपी प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है ऐसा मानकर योगी अनंत और अनुपम आनंद से परिपूर्ण मानता है। ऐसी भावना जागृत करके ऐसा उपासक अपने आप को समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त उस दिव्य प्रकाश और आनंद के मध्य अपने आप को बैठा हुआ कल्पना कर सकता है । अपने चारों ओर ईश्वर के तेजोमय आनंद को भरा हुआ अनुभव करता है। यही योगी की चित्र की निरंतर है लेकिन यह स्थिति बहुत बड़े परिश्रम के साथ निरंतर अभ्यास करने से प्राप्त होती है।
यह कठिन अवश्य है परंतु संभव नहीं है जैसे एम टेक करना, एमबीबीएस करना कठिन अवश्य है लेकिन लोग फिर भी करते हैं और सफल होते हैं। इसी प्रकार यह स्थिति कठिन तो है संभव नहीं है।
शंका संख्या 96 —
ओम के जप की कोई विशेष विधि भी है?
समाधान—-
आवश्यक है।
ओम का जप श्वास प्रश्वास की गति के साथ करने की विशेष विधि है।
शंका संख्या 97—
श्वासप्रश्वास की गति के साथ ओम का जप करना कैसे और यह क्या तरीका है ?
जब योगी अथवा ध्यानी अथवा जप करने वाला व्यक्ति स्वास अंदर लेता है तो उसको ‘ओ’ का उच्चारण करना चाहिए और जब स्वास (प्रश्वास)बाहर छोड़ता है तो उसको ‘म’ का उच्चारण करना चाहिए। यही स्थिति बारंबार दोहराने से स्वासप्रश्वास के साथ ओम की गति स्थापित हो जाएगी। लेकिन इससे पहले भी 5-6 बार प्राणायाम अवश्य करें जिससे श्वास प्रश्वास की गति समान हो जाती है। ध्यानी को ऐसी कल्पना करनी चाहिए कि स्वास के साथ-साथ नाभी प्रदेश से उठकर ओइ वाणी मस्तिष्क तक जा रही है। यह ओ की प्लुत ध्वनि का स्वरूप है। वह ओ जब मस्तिष्क में टकराता है तब श्वास गति पूरी होकर वायु प्रस्वास के रूप में नाक से बाहर निकलने लगती है। उस काल में उपासक को कल्पना करनी चाहिए कि यह ओम का दूसरा भाग ‘म’ उच्चरित हो रहा है अर्थात वायु के साथ बाहर को जा रहा है ।यह बारंबार दोहराना चाहिए ।
इस स्थिति में योगी की ओम की ध्वनि निकालने से एक वृत की स्थिति बन जाती है।
इस स्थिति में ‘ओ ‘ध्वनि के साथ चित् को भी साथ-साथ रहना सधाया जाता है ।चित् कहीं दूसरी जगह न चला जाए ।इसलिए उसको वही लपेटकर अथवा रोक कर रखना है। चित् इससे बाहर नहीं निकलने पाये। यही चित् वृत्तियों का निरोध है। यही चित् का एकाग्र करना है। यही तो योगी के योग का उद्देश्य है।
शंका संख्या 98 —–
योग का क्रियानुसष्ठान किसे कहते हैं?
समाधान—-
जो विधि ऊपर बताई गई है यही वास्तव में एक क्रिया अनुष्ठान है। यह केवल ध्यान अथवा चिंतन ही नहीं है। यह अनुष्ठान स्वास प्रश्वास की गति के आधार पर किया जाता है ,जो स्वयं एक क्रिया रूप है। उसके अनुसार ओम को मानव उच्चारण और कल्पना मूल ध्वनि क्रिया का रूप ग्रहण करता है। जैसे पहले बताया कि तो की ध्वनि नाभी प्रदेश से उठाने के बाद मस्तिष्क ( आत्म निवास स्थान- मस्तिष्क गत हृदय )तक ले जाना है। यह स्थिति योग की पराकाष्ठा है।
शंका संख्या 99 —–
यह विषय किसी अन्य उपनिषद में भी दिया हुआ है क्या?
समाधान—-
जी हां।
प्रश्न उपनिषद में दिया हुआ है।
इस 27 वें सूत्र की व्याख्या करते हुए प्रश्न उपनिषद से विषय संक्षेप में लिया गया है। इस उपनिषद के पांचवे प्रश्न में शिवि के पुत्र सत्य काम ने महर्षि पिप्पलाद से प्रश्न किया कि जो व्यक्ति जीवन पर्यंत ओंकार का अभिध्यान करता रहता है ,वह किस लोक को प्राप्त होता है?
इसका उत्तर देते हुए महर्षि पिप्पलाद ने ओम के एकमात्रिक द्विमात्रिक त्रिमात्रिक मानस उच्चारण के तीन प्रकार का ध्यान बताया और अंत में त्रिमात्रिक ओंकार के अभियान को सबसे उत्तम बताया हैं।
शंका संख्या 100
योगानुष्ठान में प्रयुक्त हुई ओम की प्लुतरुपतीन मात्राएं क्या एक दूसरे से समान हैं अथवा अलग-अलग भी है?
समाधान,—-
यह तीनों अवस्थाएं अलग-अलग होती हैं। नाभी प्रदेश से मस्तिष्क तक ध्वनि मार्ग की तीन अवस्थाएं होती है। बाह्य, मध्यम, आभ्यंतर। नाभि प्रदेश से जैसे ही ओ की ध्वनि को उठाया जाता है वह उसका बाह्य स्तर है ।उसके आगे कंठ तक मध्यम तथा आगे मस्तिष्क तक आभ्यंतर है।
शंका संख्या 101
इससे योगी को क्या लाभ होता है?
समाधान—-विधिपूर्वक सब स्तरों में क्रिया अनुष्ठान का प्रयोग किए जाने से ज्ञात योगी स्थिर समाधि को प्राप्त कर लेता है ।चित्त वृत्तियों का निरोध होकर उसका उत्थान होने लगता है। तथा विचलित नहीं करती हैं योगी की चित्त की वृत्तियां।
इसी क्रिया अनुष्ठान को धारण करते हुए उपासक अपने मार्ग में उन्नत हो जाता है। योग के विभिन्न स्तरों को स्थूल रूप से प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा ,ध्यान और समाधि के रूप में ले जाकर संपरज्ञात और असंप्रज्ञात समाधि के स्तर तक पहुंच जाता है।
अर्थात योगी अपने अंतिम ध्येय मोक्ष को प्राप्त कर जाता है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट ग्रेटर नोएडा,
अध्यक्ष उगता भारत समाचार पत्र चलभाष 9811838317