( महाभारत हमारे अतीत का भव्य स्मारक है । इसमें हमें अपने पूर्वजों के उच्चादर्शों के साथ-साथ उनकी सभ्यता और संस्कृति का बोध होता है। महाभारत के सभा पर्व में बताया गया है कि खांडव दाह के पश्चात मयासुर ने श्री कृष्ण जी के साथ परामर्श करके धर्मराज युधिष्ठिर के लिए एक सभा भवन बनाने का कार्य आरंभ किया। मयासुर उस समय शिल्प विद्या का सबसे बड़ा जानकार था। इस कार्य के लिए उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। अतः श्री कृष्ण जी ने बहुत सोच समझकर ही यह कार्य मयासुर को दिया था। श्री कृष्ण जी ने शिल्प विद्या के महान ज्ञाता मयासुर को इस समय यह भी निर्देश दे दिया कि यह सभा भवन समस्त भूमंडल पर अनोखा हो। यह इतनी भव्यता के साथ बनाया जाए कि कोई इसकी नकल न कर सके। मैं चाहता हूं कि धर्मराज युधिष्ठिर का सभा भवन सबको आश्चर्यचकित करने वाला हो। मयासुर ने यह संकल्प किया कि वह विमान जैसी आकृति वाला भवन धर्मराज युधिष्ठिर के लिए तैयार करेगा।
श्री कृष्ण और अर्जुन ने मयासुर के संकल्प को जान व समझकर उसे धर्मराज युधिष्ठिर से मिलाया । धर्मराज युधिष्ठिर ने मयासुर का यथोचित सत्कार किया । मयासुर ने अपनी योजना से धर्मराज युधिष्ठिर को अवगत कराया। उसकी योजना में अपेक्षित संशोधन, परिवर्द्धन या परिवर्तन की कोई आवश्यकता तो नहीं थी ,परंतु फिर भी धर्मराज ने जो उचित समझे वे आवश्यक निर्देश उसे दिए और इसके पश्चात मयासुर ने पांडवों के लिए सभा भवन बनाने की विधिवत तैयारी की। अपनी पूर्ण प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए मयासुर ने सभा भवन बनाने के लिए सभी ऋतुओं के गुणों से संपन्न और मनोरम सब ओर से 10 हजार हाथ की भूमि नपवाई।
– लेखक )
मयासुर ने पांडवों का भव्य राजभवन बनाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर अर्जुन से अनुमति प्राप्त कर कैलाश पर्वत की यात्रा करने का विचार किया । अपने प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए उसने अर्जुन को बताया कि "जब दैत्य लोग कैलाश पर्वत से उत्तर दिशा में स्थित मैनाक पर्वत पर यज्ञ करना चाहते थे तो उस समय मैंने एक विचित्र और रमणीय मणिमय भांड उनके लिए तैयार किया था। जो बिंदुसर के निकट राजा वृषपर्वा की सभा में रखा गया था। यदि वह भांड अभी तक वहां रखा होगा तो मैं उसे लेकर शीघ्र ही लौट आऊंगा। उसके पश्चात इस भांड से पांडुनंदन युधिष्ठिर के यश को बढ़ाने वाली सभा का निर्माण करूंगा। उसने अर्जुन को यह भी बताया कि बिंदुसर में एक गदा भी है। जैसे गांडीव धनुष आपके योग्य है, वैसे ही वह गदा भीमसेन के योग्य होगी। जहां वरुणदेव का देवदत्त नामक महान शंख भी है, जो बड़ी भारी आवाज करने वाला है। मैं यह सब वस्तु लाकर आपको भेंट करूंगा।"
मयासुर के प्रति खांडव दाह के समय श्री कृष्ण जी, अर्जुन आदि के द्वारा जो उदारता दिखाई गई थी उसकी कृतज्ञता प्रकट करते हुए मयासुर भी अब उनके लिए कुछ विशेष कर देना चाहता था। जब कृतज्ञता का भाव जागृत होकर व्यक्ति से कुछ कराना चाहता है तो उसमें वह अपनी पूर्ण प्रतिभा उंडेल देता है । यह मानव धर्म का मौलिक संस्कार है।
अपने कहे अनुसार गदा , शंख और सभा बनाने के लिए स्फटिक मणिमय द्रव्य लेकर मयासुर शीघ्र ही लौट आया और उसके पश्चात उसने तीनों लोकों में विख्यात सभा तैयार की।
मयासुर के द्वारा जो सभा भवन तैयार किया गया था, उसमें सोने जैसे वृक्ष शोभा पाए हुए थे। वह सभा अपनी प्रभा द्वारा सूर्य की तेजोमयी प्रभा से टक्कर लेती थी । उस समय 8000 किंकर नामक राक्षस उस सभा की रक्षा करते थे और उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर ले जाते थे। वास्तव में यह बहुत बड़ी बात थी कि वह सभा भवन इस प्रकार का बनाया गया था जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर भी ले जाया जा सकता था।
उस सभा भवन में अति सुंदर पुष्करिणी बनाई गई थी। यह पुष्करिणी अनुपम थी। उसमें इंद्रनीलमणिमय कमल के पत्ते फैले हुए थे। कुछ राजा लोग उस पुष्करिणी के पास आकर उसे देखकर भी उसकी सच्चाई पर विश्वास नहीं करते थे और भ्रम से उसे स्थल समझ कर उसमें गिर पड़ते थे। इतना विशाल भवन मयासुर ने 14 महीने में पूर्ण कर दिया था। युधिष्ठिर ने इस सभा भवन के बन जाने पर 10000 ब्राह्मणों को भोजन कराकर उस सभा भवन में प्रवेश किया।
इस सभा भवन में ही एक दिन नारद जी प्रकट हुए। तब उन्होंने राजनीति और धर्म का महत्वपूर्ण उपदेश धर्मराज युधिष्ठिर को दिया। नारद जी ने धर्मराज को बताया कि “हे राजन ! तुम्हें राज्य कार्य के संचालन में ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि तुम्हारा धन आवश्यक कार्यों के निर्वाह हेतु पूरा पड़ जाये। तुम्हारा मन धर्म में प्रसन्नता पूर्वक लगना चाहिए। तुम्हें कभी भी प्रभु भजन में प्रमाद नहीं करना चाहिए। ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र इन तीनों वर्णों की प्रजा के प्रति अपने पूर्वजों द्वारा व्यवहार में लाई गई उत्तम और उदार वृत्ति का व्यवहार तुम्हें करना चाहिए।”
नारद जी ने धर्मराज युधिष्ठिर को बताया कि अपने मंत्रियों पर सदा उदार रहते हुए भी उनकी प्रत्येक गतिविधि पर राजा को ध्यान रखना चाहिए। कहीं ऐसा ना हो कि वह गुप्त मंत्रणाओं को आपके शत्रु या विरोधी को न देते रहें। कभी भी राजा को किसी गहन विषय पर अकेले ही विचार नहीं करना चाहिए। अपनी गुप्त मंत्रणा को गोपनीय रखने के प्रति भी राजा को सजग रहना चाहिए। राजा को धन की वृद्धि के लिए भी प्रयास करते रहना चाहिए ,परंतु जनता पर इसका विपरीत प्रभाव न पड़े और किसी भी वर्ग का अनुचित शोषण न होने पाए, इसका भी राजा को ध्यान करना चाहिए। राजा को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके प्रत्येक कार्य की जानकारी सिद्धि के निकट पहुंचने पर यह सिद्धि प्राप्त हो जाने पर ही लोगों को होनी चाहिए। उससे पहले किसी को भी यह जानकारी नहीं होनी चाहिए कि राजा क्या करना चाहता है ? राजा को हजारों मूर्खों के बदले एक पंडित को अपनाना चाहिए । ऐसा पंडित ही अर्थ संकट के समय महान कल्याण कर सकता है।”
आर्य राजाओं की यह विशेषता होती थी कि वह अपने सभा भवन में ऐसे विद्वानों के उपदेश कराते रहते थे जो जन कल्याण के सूत्र उन्हें बता सकते में समर्थ होते थे। इस प्रकार के आयोजनों से जनकल्याण के प्रति समर्पण का भाव राजा के भीतर और भी गहरा होता था। उस राजधर्म को समझने में सुविधा होती थी और धर्मानुकूल व्यवहार करते रहने की प्रेरणा मिलती थी। ये विद्वान संन्यासी लोग भी बहुत ही विनम्र और जन कल्याण के प्रति समर्पित रहने वाले होते थे। घूम-घूमकर लोगों को धर्म के अनुसार चलते रहने की शिक्षा दिया करते थे। इनका उद्देश्य होता था कि राजा को धर्म के अनुसार चलने के लिए विशेष रूप से प्रेरित किया जाता रहे, क्योंकि जनसाधारण राजा का अनुकरण करता है। यदि राजा धर्मशील होगा तो प्रजा के लोगों का भी वैसा बने रहना निश्चित है।
भारत के इसी सांस्कृतिक मूल्य और प्राचीन परंपरा का निर्वाह करते हुए नारद जी ने युधिष्ठिर से यह भी कहा कि “एक अच्छे राजा को अपनी सेना के लिए अच्छा भोजन और वेतन ठीक समय पर देते रहना चाहिए। जो राजा भोजन और वेतन में अधिक विलंब करता है वह विद्रोह का शिकार होता है। राजा को यह भी देखना चाहिए कि उसके मंत्री और प्रधान अधिकारी उससे स्वाभाविक प्रेम करते हैं या नहीं। जिन लोगों को राजा ने अपने लिए विशेष रूप से चुना है वे राजा की आज्ञा का उल्लंघन तो नहीं करते हैं? विद्या से विनयशील और ज्ञान निपुण मनुष्यों को उनके गुणों के अनुसार यथायोग्य धन आदि देकर उनका मान सम्मान राजा को करना चाहिए। राजा को कभी भी विषय भोगों में रत रहने वाले लोगों से परामर्श नहीं लेना चाहिए । जितेंद्रिय लोगों से ही परामर्श लेकर काम करना चाहिए ।”
अपना विस्तृत उपदेश देकर जब नारद जी चले गए तो उसके पश्चात राजा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ राजसूय यज्ञ के विषय में विचार विमर्श करना आरंभ किया। इस यज्ञ के बारे में सुनकर युधिष्ठिर के सभी भाइयों और उनके मंत्रियों को विशेष प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपनी सहमति देते हुए धर्मराज युधिष्ठिर को कहा कि आप इस यज्ञ को करने में समर्थ हैं। यदि आप ऐसा करते हैं तो निश्चय ही यह आपकी कीर्ति को बढ़ाने वाला होगा। हम सब लोग आपकी आज्ञा के अधीन रहकर कार्य करेंगे। आपको इस कार्य को करने में विलंब नहीं करना चाहिए । उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर का मनोबल बढ़ाते हुए कहा कि आप ऐसा करके भरत कुल की कीर्ति में चार चांद लगाएंगे।
धर्मराज युधिष्ठिर बहुत ही विचारशील राजा थे। वह नहीं चाहते थे कि उनके किसी भी संकल्प की पूर्ति के लिए प्रजा पर आर्थिक बोझ पड़े । यही कारण था कि अपने मंत्रियों और बंधुओं से यज्ञ के बारे में विस्तृत चर्चा करने के उपरांत वे यह विचार करने लगे कि मुझे अपनी आय व्यय को ध्यान में रखकर किस प्रकार इस कार्य का शुभारंभ करना चाहिए ? तब उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि अपने इस कार्य को आगे बढ़ाने से पहले उन्हें श्री कृष्ण जी से भी आवश्यक विचार विमर्श करना चाहिए। श्री कृष्ण जी महाबुद्धिमान व्यक्तित्व थे। उनसे परामर्श लेना युधिष्ठिर के लिए इसलिए भी आवश्यक था कि वह निश्चय ही उन्हें कोई ऐसा उपाय बता सकते थे जिससे प्रजा पर बिना किसी प्रकार का कर लगाए इस यज्ञ की व्यवस्था हो सकती थी।
तब धर्मराज ने श्री कृष्ण जी के पास एक इंद्रसेन नाम का एक दूत भेज कर अपना संदेश पहुंचा। वह दूत बहुत शीघ्रगामी रथ के द्वारा द्वारिका नगरी पहुंचा। उस दूत ने वहां श्रीकृष्ण जी को जाकर धर्मराज का संदेश पढ़ने को दिया । श्री कृष्ण जी ने जब वह संदेश पढ़ा तो उन्हें अत्यंत प्रसन्नता हुई। तब उन्होंने उस दूत के साथ ही इंद्रप्रस्थ आने का निर्णय लिया।
इंद्रप्रस्थ में पहुंचकर श्री कृष्ण जी ने एक उत्तम भवन में कुछ देर विश्राम किया। जब उनके आने की सूचना धर्मराज युधिष्ठिर को हुई तो वह स्वयं ही उनसे मिलने के लिए उस भवन में उपस्थित हुए जहां वह रुके हुए थे। धर्मराज ने श्री कृष्ण जी को अपनी विस्तृत योजना से अवगत कराया और अपना प्रयोजन बताया। उन्होंने कहा कि “मैं इस यज्ञ को करना तो चाहता हूं परंतु यह इच्छा मात्र से ही पूर्ण नहीं हो जाएगा। इस यज्ञ को संपन्न करने के लिए बहुत कुछ करना पड़ेगा। महाराज इस यज्ञ को कैसे पूर्ण किया जा सकता है और इसके लिए कितने साधनों की आवश्यकता होती है ? – यह सब आप भली प्रकार जानते हैं। अतः आपको कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास बहुत कुछ होते हुए भी वे सारे साधन नहीं हैं जो इस यज्ञ की पूर्ति के लिए आवश्यक हैं । मैं नहीं चाहता कि जनता पर किसी प्रकार का कोई कर लगाकर उससे धन वसूलकर यह यज्ञ किया जाए।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)