नवरात्रि पर्व का वैज्ञानिक आधार*
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डॉ डी के गर्ग
भाग -१
ये लेख सीरीज 3 भाग में है। कृपया अपने विचार बताये।
नवरात्रि पर्व साल में दो बार मनाये जाने वाला भारतीय पर्व है , जो सृष्टि के आदिकाल से मनाया जाता रहा है । एक नवरात्रि अश्वनि नक्षत्र यानी शारदीय नवरात्रि और दूसरा चैत्र नवरात्रि होती है।
पौराणिक मान्यताः– भगवान श्रीराम ने रावण से युद्ध करने से पहले अपनी विजय के लिए दुर्गापूजा का आयोजन किया था। वह माँ के आर्शीवाद के लिए इतंजार नहीं करना चाहते थे इसलिए उन्होंने दुर्गापूजा का आयोजन किया और तब से ही हर साल दोबार नवरात्रि का आयोजन होने लगा। कहा जाता है कि इन दिनों में मन से माँ दुर्गा की पूजा करने से हर मनोकामनाएं पूरी होती है।
नवरात्रि में कन्याओं को देवी का स्वरुप मानकर हम उनकी पूजा करते हैं इन दिनों में शक्ति के नौ रूपों की पूजा अर्चना की जाती है इसलिए इस त्योहार को नौ दिनों तक मनाया जाता है और दशमी के दिन दशहरा के नौ रूप में भी मनाया जाता है !
नवरात्रि पर्व की वास्तविकता का विश्लेषणः– नवरात्रि हमेशा दो मुख्य मौसमों के संक्रमण काल में आती है। यानि जब सर्दी के बाद गर्मी शुरु हो रही होती है तब चैत्र मास में और दूसरे जब गर्मी- वर्षा के बाद सर्दी शुरु हो रही होती है तब।
1. जाड़े के बाद।
2. वर्षा के बाद।
ये ही वो समय हैं जब हमारे बीमार पड़ने के ज्यादा अवसर रहते हैं। आपने देखा होगा डाक्टरों के यहाँ इसी समय सबसे ज्यादा मरीजों की भीड़ होती है ।
ऋतु परिवर्तन के दो मास बीतने वाले के अंतिम 7 दिन और आने वाले के प्रथम 7 दिन इस 14 दिन के समय को ऋतु संधि कहते हैं । इनके दोनों नवरात्रों यानी जाड़े और वर्षा ऋतु के बाद जब ऋतु परिवर्तन होता है यानी ऋतु संधिकाल होता है हमारी सभी अग्नि जठराग्नि और भूताग्नि कम होने के साथ-साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी कमी आ जाती है और प्राप्त भोज्य सामग्री के दूषित होने की संभावना अधिक होती है। इन कारणों के चलते इस ऋतुसंधिकाल और इसके आसपास के समय में विभिन्न रोग होने की संभावना बेतहासा बढ़ जाती है। आप लोगों ने देखा भी होगा आजकल इस मौसम में ज्वर अतिसार आंत्र ज्वर, पेट में जलन, खट्टी डकार, डेंगू, बुखार, मलेरिया. वायरल बुखार, एलेर्जी आदि-आदि कितने रोग पैदा हो जाते है।
नवरात्र एक आयुर्वेदिक पर्व है
इस प्रथा के पीछे एक बड़ा आयुर्वेदीय वैज्ञानिक और स्वास्थ्य सम्बंधित तथ्य छिपा है । नवरात्रि हमेशा दो मुख्य मौसमों के संक्रमण काल में आती है। एक नवरात्रि अश्वनि नक्षत्र यानी शारदीय नवरात्र और दूसरा चैत्र नवरात्रि होती है। नवरात्रि होने के पीछे कुछ आध्यात्मिक, प्राकृतिक, वैज्ञानिक कारण माने जाते हैं। दोनों ही नवरात्रि का अपना एक अलग महत्व होता है।
प्राकृतिक आधार पर नवरात्रि को देखें तो ये ग्रीष्म और सर्दियों की शुरुआत से पहले होती है। प्रकृति के परिर्वतन का ये जश्न होता है। वैज्ञानिक रूप से मार्च और अप्रैल के बीच सितंबर और अक्टूबर के बीच दिन की लंबाई रात की लंबाई के बराबर होती है।वैज्ञानिक आधार पर इसी समय पर नवरात्रि का त्यौहार मनाया जाता है।
आयुर्वेद दो सिद्धांतों पर कार्य करता है
1. मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा।
2. रोगी के रोग की चिकित्सा।
जब नवरात्रि पर्व और इसको मनाने की बात आती है तो मुख्यत तीन शब्द सामने आते है: नवरात्रि व्रत, साथ में उपवास व जागरण, नौ दिन आदि शब्द भी। इसलिए इनके वास्तविक अर्थ पर ध्यान देना चाहिए।
1.नौ रात्रियों का तात्पर्य?
नौ रात्रियों का वैदिक साहित्य में सुन्दर वर्णन है। ‘‘नवद्वारे पुरेदेहि‘‘ इसका तात्पर्य है नौ दरवाजों का नगर ही हमारा शरीर है। शरीर में नौ द्वार होते है – दो कान, दो आंखंे, दो नासाछिद्र, एक मुख और दो उपस्थ इन्द्रि (मल द्वार मूत्र द्वार) इस प्रकार शरीर में नौ द्वार है। नौ द्वारांे में जो अंधकार छा गया है, हमें अनुष्ठान करते हुए एक-एक रात्रि में, एक-एक इन्द्रियों के द्वार के ऊपर विचारना चाहिए कि उनमें किस-किस प्रकार की आभाएँ हैं तथा उनका किस प्रकार का विज्ञान है? इसी का नाम नवरात्रि है।
2. जागरण का अभिप्राय: यहाँ रात्रि का का तात्पर्य है अंधकार। अंधकार से प्रकाश में लाने को ही जागरण कहा जाता है। जागरण का अभिप्राय यह है कि जो मानव जागरूक रहता है उसके यहाँ रात्रि जैसी कोई वस्तु नहीं होती। रात्रि तो उनके लिए होती है जो जागरूक नहीं रहते। अतः जो आत्मा से जागरूक हो जाते है वे प्रभु के राष्ट्र में चले जाते हैं और वे नवरात्रियों में नहीं आते।
माता के गर्भस्थल में रहने के जो नवमास है वे रात्रि के ही रूप है क्योंकि वहाँ पर भी अंधकार रहता है, वहाँ पर रूद्र रमण करता है और वहाँ पर मूत्रों की मलिनता रहती है । उसमें आत्मा नवमास, वास करके शरीर का निर्माण करता है। वहाँ पर भयंकर अंधकार है। अतः जो मानव नौ द्वारों से जागरूक रहकर उनमें अशुद्धता नहीं आने देता वह मानव नव मास के इस अंधकार में नहीं जाता, जहाँ मानव का महाकष्टमय जीवन होता है। वहाँ इतना भयंकर अंधकार होता है कि मानव न तो वहाँ पर कोई विचार-विनिमय कर सकता है, न ही कोई अनुसन्धान कर सकता है और न विज्ञान में जा सकता है। इस अंधकार को नष्ट करने के लिए ऋषि-मुनियों ने अपना अनुष्ठान किया। गृहस्थियों में पति-पत्नी को जीवन में अनुष्ठान करने का उपदेश दिया। अनुष्ठान में दैव-यज्ञ करे, दैव-यज्ञ का अभिप्राय है यह है कि ज्योति को जागरूक करे। दैविक ज्योति का अभिप्राय यह है कि दैविक ज्ञान-विज्ञान को अपने में भरण करने का प्रयास करे। वही आनंदमयी ज्योति, जिसको जानने के लिए ऋषि-मुनियों ने प्रयत्न किया। इसमें प्रकृति माता की उपासना की जाती है, जिससे वायुमंडल वाला वातावरण शुद्ध हो और अन्न दूषित न हो। इस समय माता पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की वनस्पतियाँ परिपक्व होती है। इसी नाते बुद्धिजीवी प्राणी माँ दुर्गे की याचना करते है अर्थात प्रकृति की उपासना करता है कि हे माँ ! तू इन ममतामयी इन वनस्पतियों को हमारे गृह में भरण कर दे।