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योग क्या है?

डा कपिल देव द्विवेदी

गतांक से आगे -साधना के विघ्नः साधना एक लम्बी प्रक्रिया है। इसमें कुछ मास ही नहीं, अपितु कई वर्ष भी लग जाते हैं। अतः साधक को बड़े धैर्य से काम करना होता है। प्रत्येक कार्य में विघ्न आते हैं, उसी प्रकार साधना में भी अनेक विघ्न आते हैं। उनको पार करना साधक का कार्य है। दृढ़ निश्चय और प्रबल इच्छा से बड़े विघ्नों को दूर करते हैं। विघ्न एक प्रकार से छोटी और बड़ी परीक्षाएं हैं। इनको उत्तीर्ण करने पर सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है। महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन के दो सूत्रों में इनका संक्षेप में वर्णन किया है। ये विघ्न हैं-

व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमादालस्याविरति-भ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिक-त्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्ते{न्तरायाः। योग0 1.30

दुःख-दौर्मनस्याघõमेजयत्व-श्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः।

योग0 1.31

1. व्याधि- शरीर में किसी प्रकार का कोई रोग होना। रोगी योगसाधना ठीक ढंग से नहीं कर सकता है। इसको दूर करने के लिए आवश्यक है कि शरीर निरोग हो। शरीर को निरोगता के लिए आसन, प्राणायाम, भ्रमण, व्यायाम आदि आवश्यक है।

2. स्त्यान-अकर्मण्यता, स्फूर्ती का अभाव, मन में अनुत्साह या मन में उदासीनता, मन में ध्येय के लिए पूर्ण उत्साह न होने पर सफलता नहीं मिलेगी। अतः मन में पूर्ण उत्साह और स्फूर्ती को जागृत करे।

3. संशय-मन में सन्देह होना कि मैं यह कार्य कर सकूंगा या नहीं ऐसा सन्देह उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने में विघ्न है। संशयात्मा विनश्यति सन्देह की भावना वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है। दृढ़निश्चय और इच्छाशक्ति संशय को नष्ट करते हैं।

4. प्रमाद-नियमित रूप से साधना न करना। प्रतिदिन नियमित रूप से साधना न करने पर ठीक प्रगति नहीं हो सकती है। व्यायाम, साधना आदि नियमित रूप से करने पर ही सुफल देते हैं।

5. आलस्य-आलसी होना। आलस्य शरीर का सबसे बड़ा शत्रु है। आलसी व्यक्ति किसी भी काम में प्रगति नहीं कर सकते, अतः आलस्य को भगाना ही पड़ेगा।

6. अविरति-विषयों में तृष्णा का बने रहना, विषयों से विरक्ति न होना जब तक विषयों में आसक्ति बनी रहेगी, तब तक योगमार्ग में कोई सफलता प्राप्त होना सम्भव नहीं है। अतः विषयों की ओर से मन को यथाशक्ति लौटावें।

7. मन में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होना। दुंविधा की स्थिति होना, साधना की सफलता के प्रति मन का संशय से ग्रस्त होना साधना की प्रगति को रोक देता है, अतः किसी भ्रम में न पड़कर निश्चिंत होकर साधना मे जुटा रहे।

8. अलब्ध भूमिकत्व- पूर्ण मनोनिग्रह का न हो पाना। पूर्ण एकाग्रता न होने से मन समाधि मे ठीक नहीं लग पाता। इसके लिए आवश्यक है कि मन को एकाग्र करने के लिए अपना प्रयत्न न छोड़ें। मन एकाग्र होने पर समाधि में स्थिरता आने लगेगी।

(क्रमशः)

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