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मानव अधिकार हमारे स्वभाव में अंतर्निहित हैं

हर कोई दूसरे की तरफ अगुवाई के लिए देख रहा था तथा हमलावरों पर कोई नियंत्रण नहीं रहा। राष्ट्रसंघ अगले युद्ध को रोकने में असमर्थ एक लाचार संस्था साबित हुआ।

नाजियों के द्वारा प्रायोजित नस्ल की सर्वोच्चता का झूठा सिद्धांत तथा खून की प्यासी दो अन्य शक्तियों की धनलिप्ता के कारण 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ। मित्र शक्तियों का यह मानना था कि द्वितीय विश्वयुद्ध सभी युद्धों की समाप्ति के लिए लड़ा जा रहा था। इसके अंत में मित्र शक्तियों तथा विपक्षी युद्धरत देशों के बीच की गई संधियां लगभग एक जैसी थीं तथा मुख्यतः अपने-अपने राष्ट्रों में मानव अधिकारों तथा मूलभूत स्वतंत्राताओं को हासिल करने के वादे से संबंधित थीं। इसी बीच मित्रा शक्तियों तथा अन्य राष्ट्रों ने शांति कायम रखने हेतु एक व्यापक संगठन की स्थापना पर विचार करने के लिए कदम उठाए। इस विचार के फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संगठन की स्थापना हुई।

भविष्य में होने वाले किसी भी युद्ध के विनाशों से निर्दोष राष्ट्रों की रक्षा करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र को अपनाया गया था। यह हमारा दुःखद अनुभव रहा है कि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद से एक भी दिन ऐसा नहीं बीता है जब इन 43 वर्षों से किसी न किसी प्रकार का अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष नहीं हुआ हो। इस सदी का सबसे लंबा युद्ध 1979 में हमारे पड़ोस में शुरू हुआ था जो अभी भी खत्म नहीं हुआ है।

आज विश्व शक्तियों के शस्त्रागार में ऐसे हथियार शामिल हैं जो समूची मानव जातियों का कई बार विनाश करने में सक्षम हैं। एक तरफ जब हम यह जानकर खुश हैं कि सामूहिक विनाश के हथियारों को इकट्ठा करने की व्यर्थता के विषय में समुचित क्षेत्रों में कुछ पुनर्विचार हो रहा है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में कुछ महीने पहले ही निःशस्त्रीकरण योजना पर एक निर्णय पर पहुंचने का प्रयास असफल हो गया था। हथियारों में 80 प्रतिशत की कटौती करने से भी कुछ नहीं होगा क्योंकि शेष 20 प्रतिशत एक झटके में दुनिया का विनाश करने के लिए पर्याप्त हैं। हमारा लक्ष्य पूर्ण निःशस्त्रीकरण है।

संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र में मानव अधिकारों के संरक्षण की आवश्यकता का सामान्य संदर्भ दिया गया है। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा द्वारा विश्व के राष्ट्रों को विशेष रूप से मानव अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करने के लिए प्रेरित किया गया था। 1966 तक संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दो महत्वपूर्ण प्रसंविदाओं को अंगीकार किया, जो एक ही समय में सामान्य एवं सार्वभौमिक दोनों हैं। एक का संबंध सिविल तथा राजनैतिक अधिकारों से तथा दूसरे का आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों से है। दोनों प्रसंविदाओं का संबंध सैद्धांतिक रूप से उन अधिकारों से है, जिनका उपयोग व्यक्ति विशेष द्वारा किया जायेगा। सिविल एवं राजनैतिक अधिकारों संबंधी अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा, 1966 तथा वैकल्पिक प्रोटोकाल का संबंध समता का अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मनमानी गिरफ्तारी एवं कैद से स्वतंत्रता, अनिवार्य व्यक्तिगत सेवा देने से आजादी, अभिव्यक्ति एवं अंतःकरण की आजादी, देश के प्रशासन मे भाग लेने के अधिकार आदि से है। आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों संबंधी अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा, 1966 तथा वैकल्पिक प्रोटोकाल का संबंध समता का अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्राता, मनमानी गिरफ्तारी एवं कैद से स्वतंत्राता, अनिवार्य व्यक्तिगत सेवा देने से आजादी, अभिव्यक्ति एवं अतःकरण की आजादी, देश के प्रशासन में भाग लेने के अधिकार आदि से है। आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों संबंधी अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा, 1966 का संबंध काम करने के अधिकार, उचित मजदूरी का अधिकार, एकजुट होकर समझौता करने के अधिकार, व्यापार अथवा व्यवसाय को चलाने के अधिकार, संस्कृति की रक्षा हेतु संस्थानों की स्थापना का अधिकार आदि से है। चूंकि मानव अधिकार एवं मौलिक स्वतंत्राताएं अविभाज्य एवं परस्पर संबधित हैं, अतः सिविल एवं राजनैतिक तथा आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों, दोनों के कार्यान्वयन, संवर्धन एवं संरक्षण हेतु समान रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए तथा उन पर तत्काल विचार किया जाना चाहिए। अनेक देशों ने अपने कानूनों को यथासंभव मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा तथा ऊपर संदर्भित दोनों प्रसंविदाओं की आत्मा एवं अक्षरों के अनुरूप बनाने के लिए विधेयक पारित किए हैं।

भारत में इन्हें संविधान के भाग तीन पर और भाग चार में मौलिक अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के रूप में दिए गए उपबंधों तथा इनके कार्यान्वयन हेतु बनाए गए अनेक कानूनों के साथ समाविष्ट किया गया है। इनमें से अधिकांश अधिकारों का संबंध व्यक्तिगत अधिकारों से है। परंतु विश्व में चीजें तेजी से बदलनी शुरू हो गई हैं। अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद, जाति नरसंहर, विमानों का अपहरण, मादक द्रव्यों एवं दवाओं का अवैध व्यापार, चारों ओर पर्यावरण की क्षति, समुद्र पर वैभव बढ़ाने तथा अंतरिक्ष पर नियंत्राण पाने के लिए शक्तिशाली देशों का लालच और अमीर राष्ट्रों तथा बहुराष्ट्रों द्वारा गरीब राष्ट्रों के कच्चे माल का शोषण, विश्व के कई भागों में धीमा विकास, अकाल, बाढ़, भूकंप, ज्वालामुखी आदि से होने वाले विनाश से नए प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है जिसके लिए नए उपायों हेतु समेकित कर्रवाई की आवश्यकता है।

– अनिल परासर

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