अनुसूचित जन जातियां और भारत का विकास
भारत में जातियों का वेर्गीकरण और उनकी सामाजिक स्थिति को विकृत करने का काम अंग्रेजों ने किया। भारत की प्राचीन वर्णव्यवस्था कर्म के आधार पर थी। कर्म से ही व्यक्ति वर्ण निशिचत किया जाता था, कर्म परिवर्तन से वर्ण परिवर्तन भी सम्भव था। इसलिए एक शूद्र के ब्राह्राण बनने की पूर्ण सम्भावना थी। कालान्तर में शिक्षा के अभाव, वर्ण व्यवस्था को परम्परागत बनाने की मानव की प्रकृति, ( कुम्हार का बच्चा कुम्हार बन जाता है ) तथा अपने – अपने वर्ण के लिए निशिचत कर्म ( जैसे ब्राह्राण का कर्म वेद का पढ़ना पढ़ाना है ) में बरते जाने वाले प्रमाद के कारण स्थिति बदल गयी और वर्णव्यवस्था हमारे लिए एक परम्परागत रूढि़ बन गयी। तब ब्राह्राण का कम पढ़ा लिखा बच्चा भी ब्राह्राण माना जाने लगा।
इस रूढि़ को समाप्त कर भारत की प्राचीन वर्णव्यवस्था को सुधारने की आवश्यकता थी। लेकिन इसमे कोर्इ सुधार नहीं किया गया। अग्रेजों के सामने दो बातें थीं- एक तो वह भारत को सही अर्थ और संदर्भों में समझने और जानने के लिए तैयार नहीं थे, दूसरे वह भारत के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त अंतर्विरोधों और विसंगतियों को और भी अधिक गहरा करके उनका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते थे। इसलिए उन्होनें भारत के बारे में सर्वप्रथम यह तथ्य स्थापित किया कि यहां पर प्राचीन काल से ही बाहरी लोगों का आना लगा रहा। ”काफिले आते गये और हिन्दुस्तान बनता गया इसलिए आर्यों को भी विदेशी बताया गया और उस काल से लेकर शक, हूण, कुषाण, सातवाहन, तुर्क, मुगल , पठान, अंग्रेज़, डच , फ्रांसीसी, और पुर्तगाली लोगों के आने वाले काफिलों को यहां के मूल समाज के साथ कुछ यूं नत्थी किया गया कि ऐसा लगने लगा, जैसे कि यहां पर मूल रूप में से तो लोग रहते ही नहीं थे। यहां मुट्टी भर लोग रहते थे जो सर्वथा पाशविक और जंगली जीवन जीते थे। उनके सामाजिक रीति रिवाज आदिकाल के थे, और बाहरी लोगों ने आकर ही यहां पर सभ्यता ओर संस्कृति का विकास किया। सामाजिक विकास में पिछड़ गये, इस प्रकार के लोगों को यहां आदिवासी जनजातियों के रूप में स्थापित किया गया। एक झूठ को सच के रूप में स्थापित किया गया और हम भारतीयों ने विदेशियों की इस वैचारिक जूठन को दुम हिला हिलाकर खाना शुरू कर दिया और आज तक खा रहे हैं। इसलिए देश में आज राष्ट्रवाद की भावना खतरे में हैं। हम एक थे, एक है और मुट्टी भर विदेशी लोगों को छोड़कर शेष सारा भारतवर्ष ऋषि पूर्वजों और लोकहित के लिए समर्पित रहे मान्धाता, भगवान राम, युधिष्ठिर, कृष्ण और ऐसे ही विभिन्न भूपतियों की संतानें हैं। यह बात स्थापित होनी चाहिए थी परन्तु की नहीं गयी । आज सब जैसे ”मेड इन इंग्लैंड के कपड़े चाव से खरीदते हैं, वैसे ही ”मेड इन अमेरिका ( या अन्य देश ) के भारत विषयक विचारों को खरीद रहे है और विद्वान होने के खिताब को पाकर अपनी पीठ खुद ही थपथपा कर धन्य भाग हो रहे हैं। यह अशोभनीय सोच हमारा पीछा कर रही है और हम झूठ मूठ ही कहे जा रहे हैं – ”गर्व से कहो मैं भारतीय हूँ, अपनी जड़े विदेशो में टटोलकर भी भारतीय होने पर गर्व कैसे हो सकता हैं ?
अनुसंधान की दिशा गलत है, तो हिंदुस्तान की दशा गलत हो गयी। भारत को भारत मे टटोलना होगा। यदि भारत विदेशी होता तो भारत का नाम भारत नहीं होता। यह किसी विदेशी भाषा का ही नाम होता ।
जहां तक भारत में जातियों को जहर का इंजेक्शन बनाकर अंग्रेजों द्वारा भारत की नसों मे चढाने का सवाल है तो 1891 की जनगणना के अंतर्गत जे॰ए॰ बेन्स ने जातियों को उनके परम्परागत व्यवसाय के आधार प्रदान किया, और चरवाहों को उसने वन जातियों के सदस्य कहा। उनकी संख्या उस समय एक करोड़ आठ लाख अनुमानित की गयी । 1901 की जनगणना के समय उन्हे प्रकृतिवादी कहा गया। 1911 की जनगणना में उन्हें ”जनजातिय प्रकृतिवादी अथवा जनजातीय धर्म को मानने वाले कहा गया। 1921 की जनगणना में उन्हें ”पहाड़ी व वन्य जातियों का नाम दिया गया। 1931 में उन्हें ”आदिम जनजातियां कहा गया। भारत सरकार अधिनियम 1935 में जनजातिय जनसंख्या को ”पिछड़ी जनजातियां कहा गया। सन 1941 की जनगणना में उन्हें केवल ”जनजातियां कहा गया। तब उनकी कुल जनसख्या लगभग 2.47 करोड़ आंकी गयी।
आजादी के बाद भारत के संविधान के अंतगर्त अनुसूचित जनजातियों का उल्लेख किया गया है। जिन्हें राष्ट्रपति घटा या बड़ा सकते हैं। तब से कुछ लोगों को स्थायी रूप से हमने इन जातियों के लोग मानना आरंभ कर दिया है। 1891 में जो एक बुरार्इ शुरू हुर्इ थी, 1950 के संविधान ने उस पर अपनी मुहर लगाकर उसे सही होने का खिताब दे दिया। अंग्रेजों ने आदिवासी लोगों के मध्य अपनी मिशनरीज स्थापित कीं और हमारे अनुसूचित जनजाति के लोगों को भारतीय समाज से अलग स्थापित कर र्इसार्इ बनाया। आज के अधिकांश र्इसार्इ ऐसे ही पुराने भारतीय समाज के लोग हैं। जबकि आज की सरकारें उन्हें आरक्षण दे देकर शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में बढ़ने के लिए विधालय और स्थान न देकर उन्हें निकम्मा कर रही हैं, इसलिए वो लोग आज भी èार्मपरिवर्तन कर रहे हैं। 1947 से अब तक हमने अनुसूचित जनजातियो को लेकर इतना ही विकास किया हैं।
मुख्य संपादक, उगता भारत