कल्याण मार्ग के पथिक वीर विप्र योद्धा ऋषिभक्त स्वामी श्रद्धानन्द” ( ख )

सन् 1890 में महात्मा मुंशीराम जी ने लाला देवराज जी के साथ मिलकर जालन्धर में एक ‘आर्य कन्या महाविद्यालय’ स्कूल व कालेज की स्थापना की थी। यह वह समय था जब माता-पिता अपनी कन्यायों को स्कूल भेजकर पढ़ाते नहीं थे। ऐसे समय में कन्यायों का विद्यालय खोलना एक क्रान्तिकारी कार्य था। वर्तमान में यह जालन्धर का कन्याओं का सबसे बड़ा महाविद्यालय है। अथर्ववेद, सामवेद भाष्यकार तथा अनेक वैदिक ग्रन्थों के लेखक पं. विश्वनाथ विद्यालंकार वेदोपाध्याय जी की धर्मपत्नी माता कुन्ती देवी इसी महाविद्यालय की छात्रा थी। हमारा सौभाग्य है कि हमें पंडित विश्वनाथ विद्यालंकार जी सहित माता कुन्ती देवी जी के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त रहा है। अपने इस कार्य के कारण भी महात्मा मुंशीराम जी, जो बाद में स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए, अमर हैं। सन् 1891 में महात्मा जी की धर्मपत्नी माता शिवदेवी जी का निधन हुआ। इस समय महात्मा ही का वय मात्र 35 वर्ष का था। इससे आप पर अपने दो पुत्रों तथा तीन पुत्रियों के पालन पोषण का भार भी आ गया था। सभी सामाजिक कर्तव्यों को करते हुए आपने इस दायित्व को भी बहुत कुशलता से निभाया और अपने बच्चों को माता-पिता दोनों का ही प्यार व स्नेह दिया। 


महात्मा मुंशीराम जी सन् 1892 में आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के प्रधान निर्वाचित हुए। महर्षि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश में वर्णित प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के प्रतिनिधि गुरुकुलों की परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए आपने ऋषि दयानन्द के स्वप्नों के अनुरूप गुरुकुल की स्थापना के लिये सन् 1892 में तीस हजार रुपये एकत्र करने का संकल्प लेकर गृहत्याग कर दिया था। कुछ ही समय में आपका संकल्प पूरा हो गया और संकल्प से अधिक धनराशि प्राप्ती हुई थी। उन दिनों तीस हजार रूपये बहुत बड़ी धनराशि हुआ करती थी। इसी धनराशि के एकत्र होने के पश्चात हरिद्वार के निकट कांगड़ी ग्राम की भूमि को दान में प्राप्त किया गया था जहां सन् 1902 में आपके स्वप्नों का प्रसिद्ध गुरुकुल कागड़ी स्थापित हुआ। आपके समर्पण व योग्यता से यह गुरुकुल दिन दूनी रात चैगुनी उन्नति को प्राप्त हुआ। इसकी प्रसिद्धि को सुनकर इंग्लैण्ड से श्री रैमजे मैकडानल जो बाद में इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री बने, गुरुकुल पधारे थे और यहां स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ रहे थे। उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी की प्रशंसा की थी और उन्हें ईसाई मत के संस्थापक ईसामसीह के समान ‘जीवित ईसामसीह’ बताया था। कुछ समय बाद इस गुरुकुल में भारत के वायसराय श्री जेम्स फोर्ड भी आये थे। गुरुकुल की सफलता को बताने वाले अनेक उदाहरण हैं परन्तु स्थानाभाव के कारण उनका उल्लेख नहीं कर रहे हैं। इतना अवश्य लिख देते हैं कि इस गुरुकुल से देश को वेदों के बहुत बड़े आचार्य व विद्वान, क्रान्तिकारी, देशभक्त, समाचार पत्रों के सम्पादक, इतिहासकार, आजादी के आन्दोलनकारी आदि मिले हैं। पाठको से अनुरोध हैं कि वह डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार लिखित ‘एक विलक्षण व्यक्तित्व: स्वामी श्रद्धानन्द’, पं. सत्यदेव विद्यालंकार लिखित ‘स्वामी श्रद्धानन्द’ तथा 11 खण्डों में प्रकाशित ‘स्वामी श्रद्धानन्द ग्रन्थावली’ का अध्ययन करें। इससे वह स्वामी श्रद्धानन्द जी के व्यक्तित्व तथा कार्यों को विस्तृत रूप से जान सकेंगे। 

महात्मा मुंशीराम जी ने सन् 1917 में मायापुर, हरिद्वार में संन्यास लिया था और नया नाम स्वामी श्रद्धानन्द धारण किया था। स्वामी जी ने शिक्षा जगत सहित देश की आजादी, दलितोद्धार, शुद्धि, सामाजिक आन्दोलनों व समाज सुधार के महनीय कार्यों को किया। इनका संक्षिप्त परिचय हम इस लेख में दे रहे हैं। सन् 1901 में स्वामी जी ने अपनी पुत्री अमृत कला का जाति-बंधन तोड़कर डा. सुखदेव जी से विवाह कराया था। सन् 1907 में देश में जन-जन की भाषा हिन्दी के महत्व के कारण अपने उर्दू पत्र ‘सद्धर्म प्रचारक’ को हिन्दी में प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया था। स्वामी श्रद्धानन्द जी सन् 1909 में आर्यसमाज की शिरोमणी सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के प्रथम प्रधान बने थे। सन् 1909 में स्वामी जी ने गुरुकुल कुरुक्षेत्र की स्थापना की थी। आज भी यह गुरुकुल फल फूल रहा है। स्वामी जी को सन् 1913 में भागलपुर (बिहार) में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया था। आजादी के इतिहास में दिल्ली में एक अद्भुत घटना घटी थी। सन् 1919 में 30 मार्च को चांदनी चैक में एक आन्दोलन के नेतृत्व के समय अंग्रेजों की गोरी सेना की संगीनों के सामने स्वामी श्रद्धानन्द ने अपना सीना तानकर सिंह-गर्जना की थी। वह अंग्रेज सैनिको को बोले थे ‘हिम्मत है तो चलाओ गोली’। इस सिंह-गर्जना को सुनकर गोरे सैनिकों की संगीने नीचे झुक गयी थी। आजादी के इतिहास की यह एक दुर्लभ अद्वितीय घटना है। इस घटना से दिल्ली में सभी भारतवासी प्रसन्न, आह्लादित व रोमांचित हुए थे। स्वामीजी की वीरता के लिए उन्हें सम्मानित करने के लिये 4 अप्रैल, 1919 को उन्हें दिल्ली की जामा मस्जिद में आमंत्रित कर उसके मिम्बर से उनका सम्बोधन कराया गया था। यहां स्वामी जी ने वेदमंत्र बोल कर हिन्दू व मुसलमानों को देशभक्ति व परस्पर प्रेम का सन्देश दिया था। इसके बाद किसी हिन्दू विद्वान व नेता को यह जामा मस्जिद के मिम्बर से लोगों को सम्बोधन करने का सौभाग्य नहीं मिला।

सन् 1919 में बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक शान्तिपूर्ण सभा में उपस्थित सभी देशभक्त लोगों पर अंग्रेजों ने गोलियां चलाकर उन्हें मार डालने का प्रयत्न किया। बड़ी संख्या में स्त्री, पुरुष व बच्चे इसमें मारे गये थे। इसके विरोध में 26 दिसम्बर, 1919 को अमृतसर में कांग्रेस का ऐतिहासिक अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष स्वामी श्रद्धानन्द जी को बनाया गया था। इसकी विशेषता यह रही कि स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कांगे्रस के मंच से प्रथमवार हिन्दी में अपना स्वागत भाषण पढ़ा। इसमें उन्होंने दलितोद्धार की भी चर्चा की थी। इसका विस्तृत विवरण स्वामी श्रद्धानन्द जी विषयक ग्रन्थों में पढ़ने को मिलता है जिसे सभी बन्धुओं को पढ़ना चाहिये। स्वामी जी ने 1920 में बर्मा की यात्रा की थी। उन्होंने नागपुर कांग्रेस में दलितोद्धार की योजना वा कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया था। दलितोद्धार के कार्यो से प्रभावित दलितों के सबसे बड़े नेता डा. भीमराव अम्बेडकर जी ने लिखा है कि स्वामी श्रद्धानन्द दलितों के सबसे बड़े हितैषी थे। दलितों के प्रति उनकी की गई सेवा का मूल्यांकन कौन कर सकता है? 


स्वामी जी समाजहित के सभी कार्यों में अग्रणीय भूमिका निभाते थे। सिखों के सन् 1922 के आन्दोलन ‘गुरु का बाग मोर्चा’ के अवसर पर स्वामी श्रद्धानन्द जी ‘अकाल तख्त, अमृतसर’ में भाषण देकर जेल गए थे। उनको पशुओं को रखे जाने वाले पिंजड़े में रखकर यातनायें दी गई थी। स्वामी जी ने सन् 1923 में आगरा में ‘शुद्धि सभा’ का स्थापना की थी। इसके अन्तर्गत बड़े पैमाने पर धर्मान्तरित हिन्दु बन्धुओं की शुद्धि की गई थी। स्वामी जी दलितोद्धार के मुद्दे पर कांग्रेस से अलग हुए थे। राजनीति में हिन्दू हितों की पूर्णतया उपेक्षा की जाती थी। इस कारण स्वामी श्रद्धानन्द जी ने सन् 1923 में हिन्दू महासभा में प्रवेश किया था। उन्होंने हिन्दू संगठन नाम से एक लघु ग्रन्थ भी लिखा है जो सभी हिन्दुओं के पढ़ने योग्य है। आश्चर्य है कि आज भी हिन्दू नेता, संगठन तथा विशाल हिन्दू समाज अपने हितों की स्वयं ही उपेक्षा कर रहे हैं तथा अपने भविष्य की चिन्ता नहीं करते। यदि वह स्वामी श्रद्धानन्द जी की हिन्दू-संगठन पुस्तक को पढ़ लें तो आज भी हम हिन्दू समाज की रक्षा कर सकते हैं और इसको नष्ट करने के जो षडयन्त्र हो रहे हैं, उस पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए हिन्दुओं के जागने व उन्हें जगाने की आवश्यकता है। 


स्वामी श्रद्धानन्द जी ने सन् 1924 में गांधी जी के निमन्त्रण पर बेलगाम-कांग्रेस में दर्शक-रूप में भाग लिया था। स्वामी जी ने सन् 1924 में वायकम (केरल) में जाति-पंाति तथा ऊंच-नीच की सामाजिक प्रथाओं के विरुद्ध सत्याग्रह का नेतृत्व भी किया था। स्वामी जी ने कर्नाटक, आंध्र तथा चेन्नई प्रान्तों व नगरों की भी ऐतिहासिक यात्रायें की थीं। सन् 1925 में मथुरा में ऋषि दयानन्द जी की जन्म शताब्दी के अवसर पर एक विशाल समारोह का आयोजन किया गया था। इसका नेतृत्व भी स्वामी जी ने ही किया। सन् 1925 में स्वामी जी दक्षिण भारत में वेद प्रचारार्थ गये थे। स्वामी जी के एक शिष्य व उच्चकोटि के वैदिक विद्वान पं. धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी ने जीवन भर दक्षिण भारत में रहकर वेद प्रचार का कार्य किया। 


स्वामी जी के दलितोद्धार व शुद्धि के कार्यों से विधर्मी उनके शत्रु बन गये थे। 23 दिसम्बर, 1926 को एक षडयन्त्र करके एक क्रूर हत्यारे अब्दुल रशीद द्वारा रुग्णावस्था में छल से स्वामी जी पर गोलियों का प्रहार किया गया जिससे वह वीरगति को प्राप्त हुए। ऋषि दयानन्द और पं. लेखराम जी के बाद धर्म के लिये बलिदान होने वाले वह तीसरे प्रमुख विप्र योद्धा थे। हम स्वामी श्रद्धानन्द जी के गौरवपूर्ण जीवन व कार्यों को स्मरण कर उनको श्रद्धांजलि देते हैं और आर्यबन्धुओं से निवेदन करते हैं कि वह स्वामी श्रद्धानन्द जी के विस्तृत जीवन चरित्र का अवश्य अध्ययन करें जिससे वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के साथ हिन्दू समाज से अन्धविश्वासों व कुरीतियों को दूर किया जा सके। ओ३म् शम्।    

-मनमोहन कुमार आर्य

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