भारतीय हिन्दुत्व के छ: भयंकर कलंक
—- स्वामी (डॉ०) सत्यप्रकाश सरस्वती
“हिन्दू लोग गीता से आगे बढ़ना भी नहीं चाहते । शायद हिन्दू नहीं जानते कि गीता केवल आचार्य ग्रन्थ है, आर्ष भी नहीं ।
इन दिनों जो मनोवृत्ति फैलायी जा रही है, वह कुछ-कुछ ऐसी लगती है, मानो वेदों से प्रेरणा लेना और वेद की बात कहना आर्यसमाजियों का कार्य है और गीता की बात कहो, तो तुम हिन्दू हो । वेद की गरिमा को सुरक्षित रखना भी आर्यसमाज का काम है और किसी भी क्षेत्र में वेदों पर आक्षेप हो, तो आर्यसमाज ही उसका निराकरण करे ऐसा समझा जाता है । इसमें सन्देह नहीं कि आर्यसमाज का व्यक्ति या ऋषि दयानन्द में निष्ठा रखनेवाला भारतीय वेद के गौरव को आक्षेपों से बचाने में अपने को पूर्णतया सक्षम समझता है । किन्तु हिन्दुओं की यह मनोवृत्ति उनकी सनातन परम्परा पर एक प्रकार का कलंक है ।
स्वामी दयानन्द वेद के आधार पर हिन्दुओं को ही नहीं, समस्त मानव को एक सूत्र में बाँधना चाहते थे । यदि हिन्दू ही वेदों की उपेक्षा करें, तो फिर उनके पास रह ही क्या जाता है – तुलसी की रामायण और हनुमान-चालीसा ।
वेद के परिप्रेक्ष्य में स्वामी दयानन्द हिन्दुत्व को छ: कलंकों से मुक्त करना चाहते थे –
1. मूर्तिपूजा और अवतारवाद
2. जन्मना वर्ण और जाति-पाँति
3. अस्पृश्यता
4. मृतकों का श्राद्ध
5. स्वर्ग और नरक के ठेकेदार – पण्डे, महन्त, मठाधीश और बने हुए आचार्य और भगवान्
6. जन्मपत्री, हस्तरेखा, शाप-वरदान, फलित ज्योतिष के कुचक्र और तान्त्रिकों-ताबीजों के अनुचित प्रभाव ।
भारतीय हिन्दुत्व के ये छ: भयंकर कलंक हैं, जो भारतीय दर्शन के सर्वथा विरुद्ध हैं । इन छओं के वेदानुमोदित न होने के कारण ही शायद हिन्दू वेदों से दूर भागना चाहता है । यह स्मरण रहना चाहिए कि जब तक हिन्दू इन कलंकों को धोने का प्रयत्न नहीं करेंगे, वे सुदृढ़ जाति नहीं बन सकते । जो हिन्दू इन छ: कलंकों में आस्था रखता है या इनके प्रति उदासीन है, उसके लिए वेद की ऋचाएं कोई अर्थ नहीं रखतीँ ।
वेद सबके लिए है – ‘ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय’ (यजुर्वेद 26.2) – वेद चातुर्वर्ण्य के लिए ही नहीं, समस्त आत्मीयों और शत्रुओं के लिए भी है ।”
- स्वामी (डॉ.) सत्यप्रकाश सरस्वती
[4 नवम्बर 1983 को महर्षि दयानन्द निर्वाण शती समारोह में आयोजित वेद सम्मेलन में दिए गए अध्यक्षीय भाषण का अंश । प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
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