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वेदों की दो अद्भुत स्त्रियाँ: सूर्य उपासिका

#सार्पराज्ञी एवं #विश्ववारा

सूर्य शक्तिमान है एवं सूर्य का प्रकाश सम्पूर्ण सृष्टि को प्रकाशवान करने वाला है। इतना ही नहीं सूर्य और पृथ्वी के मध्य एक सम्बन्ध है, वह सम्बन्ध नेह का है। सूर्य अपना प्रेम और नेह इस धरती को देता है। उन्हें अपनी किरणों से जीवन देता है। वह न आए तो धरती के एक भी कोने में जीवन का अंश भी न दिखे।

सूर्य और पृथ्वी के मध्य जीवन के इस सिद्धांत को ऋग्वेद के दशम मंडल के १८९वें सूक्त में प्रदर्शित किया गया है। इस धरती से भी परे ब्रह्माण्ड में होने वाले सहजीवन के सिद्धांत को इस पूरे सूक्त में दिखाया गया है। एक परस्पर सहभागिता कि साथ रहकर ही जीवन है और हो सकता है, इसे इन तीनों मन्त्रों में प्रदर्शित किया गया है। इन मन्त्रों में यह लिखा हुआ है कि वह आता है और अपनी माँ की गोद में पूर्व की तरफ बैठता है, इसमें सूर्य को जीवित माना गया है और कहा है कि वह अपने पिता स्वर्ग की तरफ प्रस्थान करता है।

आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः।
पितरं च प्रयन्त्स्व: ॥

इसमें सूर्य की गतिशीलता के माध्यम से पृथ्वी का चक्कर लगाना भी इंगित है। दूसरे मन्त्र में कहा गया है कि

अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती।
व्यख्यन्महिषो दिवम् ॥

सूर्य के सांस लेने को प्रकाश का आकाश में संचरण बताया है। सूर्य का मानवीयकरण कर सूर्य की इतनी सौन्दर्यपरक एवं कल्याणपरक कल्पना करने वाली एक स्त्री ही थी। इस सूक्त की रचना करने वाली ऋषिका का नाम था सार्पराज्ञी। सार्पराज्ञी हज़ारों वर्ष पूर्व की रचनाकार थी, जिसने जीवन के लिए सूर्य की किरणों की आवश्यकता को बताया।

सार्पराज्ञी ने सूर्य की उपासना करते हुए सूर्य का आभार जताया है। वह कहती हैं कि सूर्य देव जो बिना थके पूरे तीस दिनों तक इस धरती को जीवन देते हैं, उनकी मैं आराधना करती हूँ।

त्रिंशद्धाम वि राजति वाक्पतंगाय धीयते।
प्रति वस्तोरह द्युभि: ॥

तीसरा मन्त्र जहां सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करता है वहीं वह इस तथ्य को भी प्रदर्शित करता है कि उस समय स्त्रियों को मास के चक्र का ज्ञान था कि तीस दिनों का एक मास होता है। काल गणना का ज्ञान भी उस समय की स्त्रियों को था।
सार्पराज्ञी इस तथ्य को पूर्णतया स्थापित करती हुई ऋषिका है कि उस समय की स्त्रियों को कविता लिखते समय खगोल शास्त्र, काल गणना एवं पर्यावरण की जानकारी थी। सूर्य के विषय में जो तीन मन्त्र लिखे हैं, वह स्त्री के चेतना संपन्न होने की निशानी हैं। वह इस बात का भी प्रमाण देते हैं कि स्त्रियों के मध्य इस प्रकार के संवाद दैनिक जीवन का अंग होते होंगे। इस बहाने यह सम्पूर्ण स्त्री विमर्श की नींव रखते हुए सूक्त हैं कि स्त्रियाँ वैज्ञानिक दृष्टि रखती थीं। उनमें जीवन के सत्य और जीवन के तत्व को समझने की शक्ति थी। वह इस बात को जानती थीं कि जीवन के लिए जितना आवश्यक जल है उतना ही आवश्यक है सूर्य! यह जो विवेचना की शक्ति और स्त्रियों का अंतर्ज्ञान था, वह किस प्रकार इतिहास से अदृश्य कर दिया गया, यही प्रश्न है एवं रहेगा।

जो भी एक पंक्ति या मन्त्र लिखा गया है वह मात्र एक पंक्ति न होकर विमर्श की पंक्ति है जो बार बार यही संकेत करती है कि किसी न किसी षड्यंत्र के चलते ही स्त्रियों का इतिहास उनसे छिपाया गया। क्या इसमें यह कारण था कि उनसे उनका चेतनापरक अतीत ही छीन लिया जाए, ताकि वह अनभिज्ञ हो जाएं, वह अपरिचित हो जाएं अपनी समृद्ध धरोहर के प्रति।

#विश्ववारा

जब से सृष्टि है तब से स्त्री पुरुष के दाम्पत्त्य जीवन का विवरण प्राप्त होता है। वैदिक काल से ही स्त्रियों ने दाम्पत्त्य सुख के विषय में लिखा है। विवाह हो या विवाह के उपरान्त का जीवन, स्त्री एवं स्त्री के प्रति समाज के दृष्टिकोण को बार बार स्त्रियों ने ही लिखा है। स्त्रियों ने बार बार यह लिखा है कि स्त्री के साथ के बिना पुरुष संसार नहीं जीत सकता है। कोई भी पुरुष तभी विजयी होगा जब वह अपने जीवन में आई हुई स्त्री को सम्मान देते हुए बढेगा। स्त्री ने कर्म सिद्धांतों को बताया।

यह सब कुछ स्त्रियों ने वेदों में लिखा।

ऋग्वेद में एक नहीं कई ऋचाएं हैं जिन्हें स्त्रियों ने रचते हुए कई सिद्धांत रच दिए हैं।

जब कहा जाता है कि स्त्री को भारतीय संस्कृति में परदे के पीछे रखा जाता था, या बन्धनों में बांधा जाता था, वह भी विश्ववारा के माध्यम से असत्य प्रमाणित होता है।

यह भी कहा जाता है कि अतिथियों के आगमन पर स्त्रियों के लिए पृथक स्थान प्रदान किया जाता था, वह इस मंडल के २८वें सूक्त के प्रथम मन्त्र से ही खंडित हो जाता है जिसमें अग्नि देव की आराधना करते हुए ऋषिका विश्ववारा का उल्लेख है, कि अग्नि का जो तेज है वह आकाश तक अपनी ज्वाला फैलाए है और विदुषी स्त्री विश्ववारा विद्वानों का सत्कार करते हुए यज्ञ कर रही है।

ऋग्वेद के पंचम मंडल के २८वें सूक्त में ऋचाएं रचने वाली विश्ववारा ने अग्निदेव की आराधना करते हुए तीसरी ऋचा में लिखा है कि –

अग्ने शर्ध महते सौभगाय तव द्युम्नान्युत्तमानि सन्तु।
सं जास्पत्यं सुयममा कृणुष्व शत्रूयतामभि तिष्ठा महांसि ॥३॥ (ऋग्वेद ५ मंडल २८ सूक्त मन्त्र ३)

इस में अग्नि से दाम्पत्त्य सम्बन्ध सुदृढ़ करने के कामना के साथ ही यह भी कामना की गई है कि उनका नाश हो जो उनके दाम्पत्त्य जीवन के शत्रु हैं। स्त्री विजयी होना चाहती है, परन्तु वह विजय वह अकेले नहीं चाहती, वह चाहती है कि जो उसके जीवन में हर क्षण साथ निभा रहा है, वह उसके साथ ही हर मार्ग पर विजयी हो।

विश्ववारा को कर्म सिद्धांत प्रतिपादन करने वाली भी माना जाता है। विश्ववारा ने चौथे मन्त्र में अग्नि के गुणों की स्तुति की है।

समिद्धस्य प्रमहसोऽग्ने वन्दे तव श्रियम्।
वृषभो द्युम्नवाँ असि समध्वरेष्विध्यसे।।

विश्ववारा द्वारा स्वयं यज्ञ किए जाने का भी उल्लेख प्राप्त होता है, विश्ववारा ने अपने मन्त्रों के माध्यम से अग्निदेव की प्रार्थना की है, प्रार्थना में अग्नि देव के गुणों के वर्णन के साथ साथ दाम्पत्त्य सुख का भी उल्लेख है। स्त्री को सदा से ही भान था कि एक सफल दाम्पत्त्य के लिए क्या आवश्यक है और क्या नहीं, देवों से क्या मांगना चाहिए, अतिथियों का स्वागत किस प्रकार करना चाहिए।

जब हम सृष्टि के प्रथम लिखे हुए ग्रन्थ को देखते हैं और उसमें हमें विश्ववारा भी टकराती हैं तो सच कहिये क्या क्रोध की एक लहर आपके भीतर जन्म नहीं लेती कि यह मिथ्याभ्रम किसने और क्यों उत्पन्न किया कि स्त्री को वेद अध्ययन करने का अधिकार नहीं?

विश्ववारा के मन्त्रों का ऋग्वेद में होना यह तो सुनिश्चित करता ही है कि स्त्रियों के हाथ में कलम तब से है जब से उसके मुख ने बोलना सीखा था। जो आज हम बोल रहे हैं, जो आज हम लिख रहे हैं, वह हमारी चेतना में विश्ववारा जैसी स्त्रियों से ही आया है।

स्त्री ने समग्र विकास का सिद्धांत लेकर विकास किया है, वह एकांगी नहीं रही है, आज भी यदि दुराग्रह लेकर हम भारतीय स्त्रियों की तरफ देखेंगे तो विश्ववारा नहीं दिखाई देंगी, परन्तु जब भी भारतीय दृष्टि लेकर भारतीय स्त्रियों की तरफ देखेंगे तब विश्ववारा ही नहीं और भी स्त्रियाँ हमें स्वरचित शब्दों के साथ दिखाई देंगी।
✍🏻शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी की पोस्ट से साभार

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