तब भी एक स्वाभिमानी की कुर्सी खाली थी
सारे देश के राजा महाराजा और काँग्रेस के नेता अपने ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम की एक झलक पाने और उसके साथ खड़े होकर फोटो खिंचवाने के लिए उस समय बहुत ही अधिक लालायित थे। किसी हो अपने या अपने देश के स्वाभिमान की कोई चिंता नहीं थी। सब इसी में अपना सम्मान समझ रहे थे कि राजा उनसे बात कर ले और दो मिनट अपने साथ गुजारने का समय दे दे। गिरावट की पराकाष्ठा थी यह। तब भारत के स्वाभिमान की रक्षा करने वाला केवल एक ही शासक था – चित्तौड़ नरेश महाराणा फतेह सिंह। उनकी रगों में उस महाराणा प्रताप का रक्त बह रहा था जिसने मुगल शासक अकबर के लिए कभी सिर नहीं झुकाया था। इसलिए अपने कुल की परम्परा का ध्यान रखते हुए महाराणा फतेह सिंह राजा जार्ज पंचम के लिए झुकने हेतु दिल्ली दरबार मे नहीं गये। उनकी कुर्सी पूरे समारोह में खाली पड़ी रही थी। पूज्य पिता महाश्य राजेंद्र सिंह आर्य जी इस प्रसंग को कई बार सुनाया करते थे। अक्तूबर 2003 में मैं (लेखक) स्वयं अपने कई साथियों के साथ उदयपुर व चित्तौड़गढ़ घूमने गया था तो उस समय उदयपुर पैलेस को भी देखने का सौभाग्य मिला था। इस पैलेस में महाराणा फतेह सिंह की उस कुर्सी को भी संग्रहालय में रखा गया है जो उनके लिए 1911 के दरबार में बैठने के लिए बनायी गयी थी, सारे राजाओं के बीच खाली पड़ी कुर्सी महराणा के स्वाभिमान की प्रतीक थी, भारत की शान की प्रतीक थी – कि कोई तो है जो आज भी भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व कर रहा है।
कवि फतहकरण ने लिखा था ________
माला ज्यों मिलियां महिप,
दिल्ली नगर दो राणा।
फेर फेर अटके फ़िरंग,
मेरु फतह तो महराणा॥
महराणा फतेह सिंह भी यदि भारत के उन्हीं शासकों देशी राजाओं की भेड़ चाल में शामिल हो गये होते जो उस समय राजा को शिधा झुका रहे थे तो आज वह भी अनाम होकर गुमनामी के अंधकार में विलीन हो गये होते। उनका नाम आज नौवी दिल्ली की सौ वीं सालगिरह पर इसीलिए सम्मान से याद किया जा रहा है कि उन्होनें अपने लिए भेड़ चाल को अपना रास्ता नहीं बनाया अपितु नई राह बनाने में ही अपना भला समझा ।
किसी कवि ने क्या सुंदर कहा है-
या तो जननी भक्त जन या दाता या सुर।
नहीं तो जननी बांझ रहे काहे गंवाये नूर॥
दूसरी बात हमें यह भी ध्यान रखनी चाहिए कि लीक – लीक गाड़ी चले, लीकहि चले अपूत।
तीन चलें बिन लीक के शायर शूर सपूत॥