आकर्षण का केन्द्र रहेगा उत्तर प्रदेश का चुनावी संग्राम
-अरुण नेहरू
हम वैशिवक दबाव से मुक्त नहीं हैं और एक दशक तक उच्च जीडीपी के बाद हम 7 प्रतिशत या उससे भी कम दर तक लुढ़क सकते हैं और इसका हमारे जीवन के हर पहलू पर असर होगा। मुद्रास्फीति को लेकर यूपीए दबाव में है और भ्रष्टाचार के मामलों ने गठबंधन को कमजोर किया है। इसका असर हमें 2012 में होने वाले पांच चुनावी संघर्षों में देखने को मिलेगा। पंजाब, उत्तराखंड अथवा मणिपुर में कांग्रेस की सिथति बुरी नहीं है तथा गोवा में खान लाबी विजयी रहेगी और सभी नजरें उत्तर प्रदेश की तरफ ही लगी रहेंगी। चुनावों में अभी कुछ महीने बाकी हैं और यही समय है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व आर्थिक सलाहकारों की उनकी ड्रीम टीम हमें आर्थिक दु:स्वप्न से बचाए।
उत्तर प्रदेश का संग्राम अगले कुछ महीनों में लोगों के आकर्षण का केंद्र बना रहेगा। 2014 से पहले यह एक निर्णायक लड़ार्इ होगी और यह हमें भविष्य के रुझानों पर नजर डालने का अवसर प्रदान करेगी। इस समय कोर्इ ठोस भविष्यवाणी करना कठिन होगा क्योंकि मेरा मानना है कि 2007 के विधानसभा चुनावों तथा 2009 के लोकसभा चुनावों से 2012 काफी भिन्न होगा। उत्तर प्रदेश के मतदाता अपने मत की ताकत के प्रति जागरूक हैं और जानते हैं कि उनके वोट का उत्तर प्रदेश की सीमाओं से परे भी असर है।
अपने बहुरंगी गठबंधन को यथावत रखने के लिए मायावती व बसपा कड़ा संघर्ष कर रही हैं और सरकार विरोध रुझानों को सकारात्मक राय में बदलने के लिए हर हथकंडा अपना रही हैं लेकिन यह आसान नहीं होगा। विधानसभा में 10 मिनटों में èवनिमत से उत्तर प्रदेश को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव पारित होना कोर्इ हैरानी की बात नहीं है। इस पर सपा तथा भाजपा की हिंसक प्रतिक्रिया से केवल बसपा को ही लाभ होगा तथा इस मामले में चुप रहकर कांग्रेस अच्छा ही करेगी। उभर कर आने वाली यह अंतिम तस्वीर नहीं होगी लेकिन एक भावनात्मक सिथति में प्रतीक्षा करते देखना हमेशा बेहतर रहता है। किसी भी राजनीतिक लड़ार्इ में समय महत्वपूर्ण होता है और यही समय है कुछ काम करने का क्योंकि मुख्य लड़ार्इ अभी महीनों दूर है और गति को बनाए रखना कठिन होगा। उत्तर प्रदेश की स्थिति को लेकर हमारे सामने कर्इ सर्वेक्षण आएंगे लेकिन क्षेत्र के दो दौरे करने के बाद मैंने पाया कि किसी भी नतीजे पर पहुंचना अभी बहुत जल्दबाजी होगी। राज्य में प्रत्येक निर्वाचनक्षेत्र एक युद्ध क्षेत्र है और राज्य में चुनावों का कुछ अनुभव होने के कारण मैं अपनी टिप्पणियों को अपेक्षाकृत सीमित या नियंत्रित रखूंगा। अच्छी बात राजनीतिक लड़ार्इ की गुणवत्ता है, जो हम राज्य में देख रहे हैं और निजी आधार पर अपने विरोधियों को राजनीतिक सम्मान देना हमेशा अच्छा होता है। मुख्यमंत्री मायावती एक नेत्री हैं और आगे रह कर नेतृत्व करती हैं लेकिन मैं राहुल गांधी अथवा अखिलेश यादव द्वारा की जा रही मेहनत को कम नहीं आंकूंगा। हमने एक-दो झड़पें देखी हैं लेकिन लड़ार्इ अभी शुरू होनी है मगर मतदाताओं के लिए सकारात्मक संकेत यह है कि मायावती, राहुल गांधी तथा अखिलेश यादव, तीनों को राजनीति में 20 वर्ष से अधिक का अनुभव है और राज्य के लिए यह अच्छी बात है।
राहुल गांधी को कम करके आंका जा रहा है और यह उनके लिए अच्छा है। 2007 के विधानसभा चुनावों में 20 सीटें प्राप्त करना खेेदजनक था लेकिन 2009 में लोकसभा की 22 सीटों के लिए प्रयास एक ‘चमत्कार’ था और इस रुझान को देखते हुए विधानसभा में 80-100 सीटों से इंकार नहीं किया जा सकता। राहुल गांधी मायावती से भयभीत नहीं हैं और उन्होंने काफी धैर्य और दृढ़निश्चय दिखाया है तथा वह बदलते हुए राजनीतिक परिदृश्य के अनुसार चल रहे हैं। मीडिया के एक वर्ग ने राहुल गांधी के यदा-कदा ग्रामीण क्षेत्रों में जाने का उपहास बनाया है लेकिन यह जमीनी हकीकतों से बहुत परे है और इसका परिणाम राजनीतिक प्रतिक्रियाओं में दिखार्इ देगा। ढुलमुल शुरुआत करने तथा अपनी पत्नी की चुनावों में हार के बाद अखिलेश यादव ने अच्छी वापसी की है तथा भविष्य में सपा का नेतृत्व करने का इरादा दर्शाया है। उन्हें सपा कार्यकर्ताओं से समर्थन मिल रहा है। पार्टी में आर्इ तीव्र गिरावट थम गर्इ है क्योंकि मुलायम सिंह यादव तथा उनके भाइयों ने युवा पीढ़ी के लिए स्थान खाली कर दिया है।
जहां सारा ध्यान उत्तर प्रदेश पर होगा, वहीं किसी अन्य मामले के अलावा हमें सर्वाधिक खर्चीली चुनावी लड़ार्इ देखने को मिलेगी। प्रत्येक विधानसभा सीट, जिसमें 4 पार्टियों का भविष्य दांव पर लगा होगा, मं़ सीधे तौर पर 5 करोड़ का खर्च होगा क्योंकि प्रत्येक पार्टी का औसत खर्च 1 करोड़ होगा और इस तरह से कुल खर्च 2,000 करोड़ होगा। हम निरंतर भ्रष्टाचार तथा लोकपाल बिल की बात करते हैं लेकिन जब तक राजनीतिक चंदों में पारदर्शिता नहीं होगी, कोर्इ भी राजनीतिक दल चाहे वह कांग्रेस हो, भाजपा, बसपा या सपा, नैतिकता का दावा नहीं कर सकता। क्या हमारी कानूनी प्रणाली में ‘पबिलक डोनेशंस’ के वर्तमान सिस्टम को रोकने के लिए कोर्इ कुछ कर सकता है?
गत 60 वर्षों के दौरान सिस्टम में कोर्इ परिवर्तन नहीं आया है तथा हम सब, जिन्होनें चुनाव लड़े हैं, ने एक अव्यवस्था को अपनाया है और कोर्इ भी इससे अछूता नहीं है। निष्ठा या र्इमानदारी को कर्इ बार ‘निजी पूंजी’ से निर्धारित किया जाता है लेकिन तथ्य यह है कि नकद चंदे केवल सत्ता के ऊंचे पायदानों पर बैठे लोगों को आते हैं। यदि आप कोर्इ चंदा देना चाहते हैं तो किसे देंगे, निचले स्तर पर या शीर्ष पर? हर कोर्इ समस्या से वाकिफ है और दु:ख की बात यह है कि हर कोर्इ इस सिथति से निपटने में असहाय है तथा राजनीतिक जीवन में आपराधिक माफिया ने घुसपैठ करके राजनीतिक शकितयों को चुनौती देना शुरू कर दिया है।
अन्ना हजारे ने घोषणा की है कि वह पांच चुनावी राज्यों में नहीं जाएंगे और यह एक समझदारीपूर्ण निर्णय है तथा स्पष्ट रूप से यह टीम अन्ना का अंत है। दु:ख की बात है मगर जरूरी है कि अन्ना हजारे को भी जनमत को हल्के में लेने की आज्ञा नहीं होनी चाहिए और क्या हमें इस प्रस्ताव पर ध्यान देना चाहिए कि उन सभी लोगों को कोड़े लगाने चाहिएं जो शराब पीते हैं?