महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय -१ ख महाराज दुष्यंत और शकुंतला

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शकुंतला नहीं चाहती थी कि उसके गर्भ का दुरुपयोग हो । उसने आज तक महर्षि कण्व के आश्रम में रहकर जिस प्रकार की सच्ची और सात्विक साधना की थी उसका फल प्राप्त करने का आज समय आ गया था। वह ब्रह्मचारिणी थी और ऋषि के संसर्ग में रहकर राष्ट्र के लिए कोई अनमोल निधि देना चाहती थी। उसका चिंतन था कि जब मेरा यौवन काम की भेंट चढ़े तो उसके परिणामस्वरूप राष्ट्र के लिए कोई अनमोल निधि निकलकर बाहर आए। अपने इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए आज उसने यह निर्णय लिया कि यदि तेरे सामने एक चक्रवर्ती राजा खड़ा होकर प्रणय निवेदन कर रहा है और कह रहा है कि तुम मुझसे गंधर्व विवाह कर मेरी पत्नी बनो तो इस समय राष्ट्र के लिए मेरे द्वारा कोई अनमोल निधि देने का उत्तम अवसर है। उसका आत्मचिंतन आज राष्ट्रचिंतन में परिणत होने के लिए लालायित था। उसकी अब तक की साधना आज फलवती होने जा रही थी । यही कारण था कि उसने बहुत संयम के साथ राजा दुष्यन्त के उस प्रणय निवेदन को स्वीकार करते हुए अपनी बात भी कह दी ।
शकुंतला के उस प्रस्ताव को सुनकर राजा दुष्यंत ने भी कह दिया कि “आप जो कुछ कह रही हैं, मैं उससे सहमत हूं और आपको यह विश्वास दिलाता हूं कि यदि मेरे द्वारा आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है तो मेरे पश्चात वही युवराज होगा ।”
इसके उपरांत राजा दुष्यंत ने शकुंतला का विधिवत पाणिग्रहण किया और उसके साथ एकांतवास किया । तत्पश्चात राजा दुष्यंत शकुंतला को यह विश्वास दिला कर चले गए कि “मैं तुम्हें अपने राजभवन में लिवाने के लिए अपनी चतुरंगिणी सेना भेजूंगा।”
जब राजा ने वहां से प्रस्थान किया तो उनके कुछ समय पश्चात ही महर्षि कण्व भी आश्रम में आ गए । तब शकुंतला लज्जा के वशीभूत होकर अपने पिता के समीप नहीं आई। महात्मा ने अपने दिव्य ज्ञान से यह अनुमान लगा लिया कि आज उनकी पुत्री शकुंतला उनके पास पहले की भांति क्यों नहीं आ रही है ? अपनी दिव्य दृष्टि से सब कुछ समझकर उन्होंने अपनी पुत्री से कहा कि “भद्रे ! आज तुमने मेरी अवहेलना करके जो एकांत में किसी पुरुष के साथ संबंध स्थापित किया है, वह तुम्हारे धर्म का नाशक नहीं है । महामना दुष्यंत धर्मात्मा और श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे तुम्हें चाहते थे। तुमने योग्य पति के साथ संबंध स्थापित किया है। अतः लोक में तुम्हारे गर्भ से एक महाबली और महात्मा पुत्र उत्पन्न होगा, जो समुद्र से घिरी हुई इस संपूर्ण पृथ्वी का उपभोग करेगा।”
वास्तव में यह एक मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक कारण है कि समागम के क्षणों में माता की जैसी मानसिक स्थिति होती है संतान पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है। शकुंतला ने विवाह से भी पूर्व राजा के समक्ष प्रस्ताव रखा था कि वह चाहती है कि उसका पुत्र ही आपका उत्तराधिकारी हो । कहने का अभिप्राय है कि शकुंतला जब इस प्रकार का विचार लेकर राजा दुष्यंत के साथ एकांतवास में रमण कर रही थी तो निश्चय ही उसके भीतर एक चक्रवर्ती सम्राट बनने वाले पुत्र की इच्छा रही होगी। उसने एकांत की उन घड़ियों में भी अपने ऊपर वासना को हावी नहीं होने दिया और बहुत शांत भाव से एक ऐसे पुत्र की कामना करते हुए राजा के साथ समागम किया जो संपूर्ण वसुधा का उपभोग करने वाला हो। शकुंतला के इसी पवित्र भाव का प्रभाव राजा पर भी पड़ा। जिसने शकुंतला के साथ समागम करने से पूर्व उसे एक ऐसे ही पुत्र रत्न को देने का संकल्प लिया जो संपूर्ण भूमंडल का उपभोग करने में समर्थ हो। दोनों की सोच का केंद्रबिंदु एक हो गया। महर्षि ने दोनों की सोच के इस केंद्रबिंदु को अपने दिव्य ज्ञान से समझ लिया।
समय आने पर शकुंतला ने एक तेजस्वी बालक को जन्म दिया। यह बालक अमित पराक्रमी था। महर्षि कण्व ने बालक के जातकर्म आदि सभी संस्कार विधि विधान से कराए। जब यह बालक 6 वर्ष का हुआ तो वह शेरों, बाघों, वराहों को पकड़कर खींच लाता और आश्रम के समीपवर्ती वृक्षों से बांध दिया करता था। उसके इस प्रकार के कार्यों को देखकर कोई भी यह सहज अनुमान लगा सकता था कि वह भविष्य में अपने पराक्रम और शौर्य का इतिहास किस प्रकार लिखेगा ? वह बालक उन हिंसक प्राणियों की पीठ पर चढ़ जाता। उनके साथ क्रीडा करता। उन्हें सब ओर दौड़ाता हुआ दौड़ता था। उसके इस प्रकार के कार्यों को देखकर महर्षि कण्व ने अपने अन्य ऋषियों के साथ मंत्रणा करने के उपरांत उसका नामकरण सर्वदमन किया।
तब ऋषि ने अपने शिष्यों से कहा कि अब तुम लोग शकुंतला को उसके पुत्र के साथ इसके पति के घर पहुंचा दो। ऋषि शिष्यों ने अपने गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए शकुंतला और उसके पुत्र को लेकर दुष्यंत के नगर की ओर प्रस्थान किया। राजा दुष्यंत की राजसभा में पहुंचकर वे शिष्य शकुंतला को वहां छोड़कर और राजा को महर्षि का संदेश सुनाकर अपने आश्रम की ओर लौट गए।
तब शकुंतला ने राजा से कहा कि “राजन! यह आपका पुत्र है। यह पुत्र आपके द्वारा मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है । इसके जन्म से पूर्व आपने मेरे कहे पर मुझे जो वचन दिया था उसका पालन कीजिए। शकुंतला का अभिप्राय था कि अब अपने इस पुत्र को आप युवराज घोषित करें। राजा दुष्यंत ने शकुंतला की बातों को सुनकर भी ऐसा प्रदर्शन किया कि जैसे उन्हें कुछ भी याद नहीं है। उन्होंने पूर्व की किसी भी घटना से अपने आपको अपरिचित दिखाते हुए शकुंतला से कहा कि “मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है। तुम किसकी स्त्री हो? तुम्हारे साथ अतीत में मेरा कोई संबंध नहीं रहा । मुझे ऐसा कोई भी पल याद नहीं है, जब मैं आपके साथ रहा हूं ? तुम अपनी इच्छानुसार जाओ या यहां रहो, जैसी तुम्हारी रुचि हो, वैसा करो।”
शकुंतला को अपने पति दुष्यंत से इस प्रकार के शब्दों की अपेक्षा नहीं थी। राजा के इस प्रकार के वचनों को सुनकर वह अत्यंत लज्जित हुई । शकुंतला इन शब्दों को सुनकर इतनी अधिक दुखी हुई कि वह बेहोश हो गई।
उन पलों में अपने आपको संभाल कर उसने क्रोध आवेश में राजा को लगभग लकारते हुए कहा कि “महाराज आप सब कुछ जानबूझकर भी ऐसी बातें कर रहे हैं जैसे आपको कुछ भी पता नहीं है। मैं नहीं समझ सकती कि तुम ऐसा आचरण क्यों कर रहे हो ? आप अपने हृदय में स्वयं यह जानते हो कि सच्चाई क्या है ? ऐसे में आप अपने हृदय पर हाथ रखकर कहिए कि जो आप बोल रहे हैं, वही सत्य है। इन क्षणों में आप अपनी आत्मा की अवहेलना मत कीजिए ।”
“राजन ! ध्यान रखिए कि जो अपने वास्तविक रूप को छिपाता है और अपने आपको और ही कुछ दिखाता है , वह चोर होता है। मैं स्वयं आपके पास आई हूं। ऐसा समझकर आप मेरे पतिव्रत धर्म का अनादर मत कीजिए। आपकी पत्नी होने के कारण मैं आपका आदर पाने के योग्य हूं । आप गंवार पुरुषों की भांति अपनी इस राजसभा में मेरा अपमान कर रहे हैं, यह आप जैसे धर्मशील राजा के लिए अच्छी बात नहीं है । यदि आप मेरी याचना भरे शब्दों की अवहेलना करेंगे तो आज ही आपके सिर के सैकड़ों टुकड़े हो जाएंगे। तुम इस बात को भूल रहे हो कि पति ही पत्नी के भीतर गर्भ रूप से प्रवेश करके पुत्र के रूप में जन्म लेता है। किसी भी पत्नी का यही पतिव्रत धर्म होता है।”
शकुंतला अपने आप पर पूर्ण संयम रखने का प्रयास कर रही थी । यद्यपि उसकी भावनाएं उसे बहुत कुछ कहने के लिए प्रेरित कर रही थीं। इसके उपरांत भी वह अपने पक्ष को एक योग्य अधिवक्ता की भांति रखती जा रही थी। सारी राजसभा शांत होकर उसके तर्कों को सुन रही थी । उसकी बातों में उसका वैदुष्य झलक रहा था । उसकी साधना बोल रही थी। उसकी तपस्या सबको प्रभावित कर रही थी और उसका पतिव्रता का धर्म सबको यह सोचने के लिए विवश कर रहा था कि राजा आखिर उसकी बातों पर विश्वास क्यों नहीं कर रहे हैं ? सारी राजसभा विस्मय में दिखाई दे रही थी। राजसभा में बैठे लोगों के लिए आज ये अप्रत्याशित पल उपस्थित हो गए थे। जिनकी उन्होंने कभी कल्पना तक नहीं की थी। वह सोच भी नहीं सकते थे कि उनका राजा किसी एकांत में जाकर किसी रूपसी से गंधर्व विवाह कर संतान को जन्म दे सकता है ? पर जो कुछ स्पष्ट होता जा रहा था उससे उन सब लोगों की सहानुभूति शकुंतला के साथ जुड़ती जा रही थी।
शकुंतला के तर्कपूर्ण कथनों से राजसभा में बैठे सभी धर्म प्रेमी विद्वान सहमत होते जा रहे थे । शकुंतला ने अपने तर्क बाणों को जारी रखते हुए कहा कि “राजन ! पुत्र नरक से पिता का त्राण करता है। अतः साक्षात ब्रह्मा जी ने उसे पुत्र कहा है। आपको यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पत्नी वही है जो गृह कार्य में कुशल हो। वही पत्नी है जो संतानवती हो। वही भार्या है जो अपने पति को प्राणों के समान प्रिय मानती हो और जो पतिव्रता हो। पत्नी वाले लोग ही यज्ञ आदि कर्म कर सकते हैं। सपत्नीक पुरुष ही सच्चे गृहस्थ हैं । पत्नी ही एकांत में प्रिय वचन बोलने वाली संगिनी या मित्र है। धर्म कार्यों में स्त्रियां पिता की भांति पति की हितैषिणी होती हैं। संकट के समय माता की भांति दु:ख में हाथ बंटाती हैं और कष्ट निवारण करती हैं। परदेश में यात्रा करने वाले पुरुष के साथ यदि उसकी पत्नी हो तो वह घोर घने जंगल में भी विश्राम पा सकता है। रति, प्रीति और धर्म सब पत्नी के अधीन हैं। जब पुत्र धरती की धूल में सना हुआ पास आता है और पिता के अंगों से लिपट जाता है तो उस समय जो सुख मिलता है उससे बढ़कर और क्या सुख हो सकता है ?”
अपने इस प्रकार के धर्म वचनों से राजसभा के अनेक लोगों को अपने समर्थन में ले चुकी शकुंतला अपने पति को अभी भी जीतने में सफल नहीं हो पा रही थी। यही कारण था कि दुष्यंत ने उसकी सब बातों को अनसुना कर फिर जले पर नमक छिड़क दिया । उसने कह दिया कि – “स्त्रियां झूठ बोलने वाली होती हैं। अतः तुम्हारी बात पर कौन विश्वास कर सकता है ? जो तुम कहती जा रही हो वह सब मेरी आंखों के सामने नहीं हुआ। मैं तुम्हें जानता नहीं। पहचानता नहीं। तुम्हारी जहां इच्छा हो, यहां से चली जाओ।”
शकुंतला राजा के इन वचनों को सुनकर दु:खी तो हुई पर उसका संयम और विवेक इस समय भी काम करता रहा। उसने राजा को फिर समझाते हुए कहा कि “राजन! आप दूसरों के सरसों के बराबर दोषों को देखने की तो क्षमता रखते हो परंतु आप अपने बड़े-बड़े दोषों को भी देखने में असमर्थ हो। विद्वान मनुष्य दूसरे वक्ताओं के अच्छे बुरे वचनों को सुनकर उनमें से अच्छी बातों को अपना लेते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे हंस पानी को छोड़कर केवल दूध को ग्रहण कर लेता है । जो सत्य रूपी धर्म से भ्रष्ट हो जाता है वह पुरुष क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान भयंकर है। उससे नास्तिक भी डरता है, फिर आस्तिक की तो बात ही क्या है ?”
“हे राजन ! आप अपने आत्मा, सत्य और धर्म का पालन करते हुए अपने सिर पर कपट का बोझ न उठाएं और अपने पुत्र को त्यागने का पाप न करें। सत्य के समान संसार में कोई धर्म नहीं होता। सत्य से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है और असत्य से बढ़कर कोई पाप इस संसार में नहीं। इसलिए राजन ! तुम पाप मार्ग को छोड़कर सत्य के धर्मयुक्त मार्ग का अनुकरण करो। अपने ही सदृश पुत्र को उत्पन्न करके उसका सम्मान करो। मैं तुम्हें यह भी समझाए देता हूं कि आपके सहयोग के बिना भी मेरा यह पुत्र चारों ओर समुद्र से घिरी हुई, गिरिराज हिमालय रूपी मुकुट से सुशोभित इस संपूर्ण वसुधा का शासन करेगा। पर मैं चाहती हूं कि यदि इसको आपका भी आशीर्वाद और सानिध्य प्राप्त हो तो सोने पर सुहागा हो जाएगा।”
शकुंतला ने ऐसी भविष्यवाणी कर बहुत बड़ी बात कह दी थी। अब उसके पास कहने के लिए कुछ शेष बचा भी नहीं था। उसने अपना अंतिम ब्रह्मास्त्र चला दिया था। यह ब्रह्मास्त्र सही निशाने पर लगा। उसने वह काम कर दिया जिसके लिए शकुंतला इतनी दूर से चलकर आज अपने प्राणनाथ के पास आई थी। शकुंतला अपने इस ब्रह्मास्त्र को चलाकर वहां से विदा लेने लगी। अब तक राजसभा पूर्णतया शकुंतला के साथ हो चुकी थी। राजा भी इस बात को समझ चुके थे कि अब शकुंतला को और अधिक देर तक सुनना अपना अपमान कराने जैसा होगा। राजा के भीतर जो कुछ उस समय चल रहा था, उसको साकार करते हुए उस समय एक आकाशवाणी वहां पर हुई कि – “दुष्यंत ! तुम अपने पुत्र का पालन करो। शकुंतला का अनादर मत करो। तुमने ही इस गर्भ का आधान किया था। शकुंतला आज जो कुछ कह रही है वह सत्य है और यही सत्य स्वीकार करना तुम्हारे लिए धर्म का पालन करने जैसा होगा। यदि तुमने शकुंतला और उसके पुत्र का अनादर किया तो यह तुम्हारे लिए अनर्थकारी होगा।”
उन्होंने शकुंतला के ब्रह्मास्त्र के पश्चात उपजी स्थिति को संभालते हुए कहना आरंभ किया कि “राजसभा में उपस्थित आप लोग इस देवदूत की आकाशवाणी को भली प्रकार सुनिए। मैं भी अपने इस पुत्र को भली प्रकार जानता हूं । पर यदि केवल शकुंतला के कहने से मैं इसे ग्रहण कर लेता तो सब लोग इस पर संदेह करते और यह बालक विशुद्ध नहीं माना जाता।”
तब उन्होंने अपनी पत्नी शकुंतला से भी कहा कि “देवी! मैंने तुम्हारे साथ जो विवाह संबंध स्थापित किया था, उसे मेरे देश के लोग नहीं जानते थे। अतः तुम्हारी शुद्धि के लिए ही मैंने यह सब कुछ सोच समझ कर किया था। मेरे दुराचरण के चलते आपने जो कुछ भी वचन मेरे लिए कहे हैं यह सब मेरे प्रति प्रेम होने के कारण ही कहे हैं । अतः मैं तुम्हारे इन वचनों के लिए तुम्हें क्षमा करता हूं।”
इसके पश्चात राजा ने शकुंतला कुमार का नाम ‘भरत’ रखकर उसे युवराज के पद पर अभिषिक्त किया। यही महाराज भरत आगे चलकर संपूर्ण भूमंडल में विख्यात प्रतापी और चक्रवर्ती सम्राट हुए। उन्होंने अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया था। इन्हीं से कौरव वंश भरत वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यह कहानी हमें मर्यादा और धर्म का पाठ पढ़ाती है। हमें बताती है कि धर्म का पालन करना ही किसी व्यवस्था को आगे चलाने का सबसे उत्तम उपाय है। यदि राजा धर्म का पालन नहीं करता है तो ऐसा राज्य और राजा नष्ट हो जाते हैं। राजा वही उत्तम होता है जो लोकानुकंपा को प्राप्त होता है । जनभावना का सम्मान करता है और अपने प्रत्येक कार्य का अनुमोदन राष्ट्र के प्रजाजनों से करवाता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)

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