भारत में सचमुच वह काला दिन था जब देश को सैकुलरिज्म के रास्ते पर डालने की बात सोची गयी थी। क्योंकि सैकुलरिज्म और भारतीय राजनीति का दूर दूर तक का भी कोई सम्बन्ध नहीं है । भारत में राजनीति को पंथनिरपेक्ष बनाने की दिशा में कार्य होना चाहिए था, परन्तु राजनीतिज्ञों की भाषा और उनकी वोट की राजनीति ‘राजनीति’ को दिन प्रतिदिन पन्थ सापेक्ष बनाती जा रही है। यही कारण है कि देश में समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात को इस प्रकार दूर रख दिया गया है जैसे किसी सरकारी दफ्तर में किसी फाईल को निपटाने के मामले में ‘कभी नहीं’ के खाते में डाल दिया जाता है। देश में यदि शासन वास्तव में पन्थ निरपेक्ष लोगों का रहा होता तो कश्मीर समस्या का समाधान अब से बहुत पहले हो गया होता। कश्मीर समस्या के हल न होने के कारण राजनीतिक ही नहीं हैं, अपितु सांप्रदायिक कारण भी हैं, वोट की राजनीति है और किसी खास वर्ग को खुश रखने की राष्ट्रघाटी सोच है।
भारत में सैकुलरिज्म को भारतीय अर्थो, संदर्भों व परिस्थितियों को समझकर पेश नहीं किया गया, जैसा कि इसे ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में परिभाषित किया गया है——
“Secularism means not religious or spiritual and not belonging to or living in a monastic order.”
इसका अभिप्राय है कि (1) व्यक्ति धार्मिक और आध्यात्मिक नहीं होना चाहिए तथा (2) साथ ही वह किसी आश्रम सम्बन्धी व्यवस्था या संतों की दी गयी व्यवस्था में आस्था रखने वाला नहीं होना चाहिए।
इस परिभाषा का अर्थ क्या फिर यह होना चाहिए कि जो व्यक्ति नास्तिक हो और एक दूसरे के प्रति संवेदना शून्य हो उसे ही सैकुलरिस्ट कहा जायेगा?
हमने अपनी राजनीति में राजनीतिज्ञों की भाषा में मजहबी तुष्टिकरण की गंदी भाषा का जमकर प्रयोग होते देखा है। उसे भी लोग सैकुलरिज़्म के नाम पर करते है। हिन्दू मंदिरों की आय पर टैक्स लगता है और उस टैक्स को मस्जिदों और चर्चों पर खर्च कर दिया जाता है, क्योंकि उनपर कोई टैक्स नहीं लगाया जाता। ये दोहरी बातें और दोगली चालें भारत में सैकुलरिज़्म की असली धारणा (पन्थ निरपेक्षता) को मार चुकी हैं।
मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में:——-
” जो धर्म सुख का हेतु है, भवसिंधु का सेतु है,
देखो, उसे हमने बनाया अब कलह का केतु है।”
धर्म के विषय में महाभारत में कहा गया है कि धर्म के सार को सुनो और सुनकर हदयंगम करो। वह यह है कि जो आचरण अपने प्रतिकूल समझो, उसे दूसरों के साथ मत करो। ऐसे धर्म के विषय में ही महात्मा गांधी ने कहा था कि धर्म जिन्दगी की हर एक सांस के साथ अमल में लाने की चीज है।
धर्म वह है जो हमें दूसरे मजहबों के प्रति मानवीय बनाया है और दूसरों को सहन करने की हमें शक्ति देता है। जिन्दगी को अपनी लाठी से हांकने की तानाशाही नीति पर नहीं बल्कि ‘कुछ ले और दे’ की तालमेल बिठाकर चलने की नीति पर चलने के लिए प्रेरित करता है। भारत वर्ष में राजनीति को ऐसी ही आदर्श व्यवस्था में ढालने की बात कही गयी है। यदि राजनीति का आदर्श धर्म नहीं रहा तो समाज में अराजकता और अधर्म फैलता है। इसलिए हमने कहा कि ‘सैकुलरिज़्म’ को भारत में लागू करना हमारी गलती थी। राजनीति पंथ निरपेक्ष हो परन्तु धर्म निरपेक्ष नहीं। धर्म को तो राजनीति का अंकुश होना चाहिए। मार्गदर्शक होना चाहिए और प्रेरणा स्त्रोत होना चाहिए। मनुष्य के भीतर छिपी मनुष्यता उसकी शक्ति है और दुष्टता उसका दुस्साहस है। धर्म मनुष्यता की शान्ति को निखारता है।
जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने कहा था—————-
धर्म मनुष्य में विद्यमान जन्मजात शक्तियों की अभिव्यक्ति मात्र है। महात्मा गांधी राजनीति में इसीलिए धर्म के हिमायती थे। वह मनुष्य की दुष्टता को समाप्त कर मानवता को मुखरित करना चाहते थे। उनका विचार था कि दुष्कर्म से सफलता प्राप्त करने की अपेक्षा धर्माचरण करते हुए मर जाना भी श्रेयस्कर है।
भारत में सांप्रदायिक मनोवृति से देश में एक वर्ग का पोषण तो दूसरे का शोषण हो रहा है। राजनीति पथभ्रष्ट और दिशाहीन हो चुकी है। यहाँ लुटेरों की पूजा है, यहां अत्याचारियों का पक्ष पोषण है, आतंकियो को शरण दी जाती है और धर्म को लात मारी जाती है। मैथिलीशरण गुप्त की कलम आज स्वर्ग में भी रो रही होगी , जिसने ये शब्द लिखे थे——————
पशुबल नहीं चाहता धर्म नहीं कराता वह दुष्कर्म,
लूट मार या अत्याचार करे लुटेरों की तलवार,,
यदि पशुबल और दुष्कर्म मे लगे लुटेरों और अत्याचारियों का पक्ष पोषण, तुष्टिकरण कर उनकी पीठ थपथपाने की गंदी नीति का नाम सैकुलरिज़्म है, तो भारत की धार्मिक जनता को ऐसे सैकुलरिज़्म और सेकुलरिस्टों को शीघ्र से शीघ्र सत्ता से बेदखल कर देना चाहिये।