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आज का चिंतन

वाल्मीकी समाज के आराध्य देव वीर गोगा जी महाराज सामाजिक समरसता की मशाल ***

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आश्चर्य किंतु सत्य है कि इक्कीसवीं शताब्दी में पढ़े लिखे लोग संत और ऋषि, योद्धा और महापुरुष और यहां तक कि भगवान को भी जातियों में बंट कर अपने को उच्च समाज का बतलाते हुए नहीं थकते हैं! अपने ही धर्म के दूसरी जाति या समाज का व्यक्ति उनके मंदिर में जाकर पूजा अर्चना करना तो दूर, प्रवेश भी नहीं कर सकता!भारत में आज भी अनेक ऐसे मंदिर , मस्जिद और चर्च हैं, जहां उसी धर्म या जाति या समाज के लोगों को पूजा अर्चना करने की पाबंदी है। यहां तक की मृत शरीर का अंतिम संस्कार के लिए भी हिंदुओं में शमशान और मुस्लमान व क्रिश्चियन में क़ब्रिस्तान भी बंटे हुए हैं!!
इतनी ज्यादा ऊंच-नीच , छुआ छूत, भेदभाव और विषम परिस्थितियों के बाद भी वीर गोगा जी महाराज, जिनका वर्ण व्यवस्था के आधार पर संबंध क्षत्रिय चौहान राजपूत वंश से है, को हिंदू समाज की वर्ण व्यवस्था के हिसाब से सबसे अंतिम पायदान पर माने जाने वाले वाल्मीकि समाज द्वारा आराध्य देव के रूप में निर्मल मन से स्वीकार करना और उनकी पवित्र छड़ी को स्थापित कर एक महीने तक शुद्ध अंत:मन से पूजा – अर्चना करना वास्तव में अद्भुत सुखद की अनुभूति है और ‘अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति व सभ्यता की अप्रतिम विशेषता’; कहावत को सही साबित करता है। सामाजिक समरसता की जीती जागती मशाल और मिशाल है।

   वीर गोगा जी  महाराज  एक ऐसे लोक देवता हैं जिनको हिंदू  के अलावा इस्लाम और सिख धर्म के मतावलंबी भी अपना आराध्य देव मानते हैं। विश्व में कहीं भी मुसलमान द्वारा  हिन्दू देवी देवताओं की पूजा अर्चना करने का प्रमाण नहीं मिलता है। लेकिन हमारे देश में कायमखानी मुसलमान समाज एक ऐसा समाज है जो वीर गोगा जी की 'जाहर पीर' के रूप में पूजा अर्चना करता है। जाहर पीर का शाब्दिक अर्थ है तत्काल हर कहीं जहां प्रकट होने वाला । यह संज्ञा महमूद गजनवी ने उनसे युद्ध करते समय दी थी। कहा जाता है कि जब वीर गोगा देव जी का युद्ध महमूद गजनवी के साथ हो रहा था, तब  गजनवी ने  देखा कि गोगाजी युद्ध में हर कहीं दिखाई देते हैं और अपनी सेना का नेतृत्व बखूबी करते हैं। उनकी तत्परता और वीरता को देखते हुए उन्हें 'जाहर पीर'की उपाधि से नवाजा गया था।
     वीर गोगा जी का जन्म  ददरेवा ( दत्तखेड़ा ) वर्तमान जिला चुरु, राजस्थान में 10 वीं सदी के अंत या 11 वीं सदी के प्रारंभ में चौहान वंश के राजा जैबर सिंह के यहां हुआ था। उनकी माता का नाम बाछल कवर था और वे  सरसापट्टम की राजकुमारी थी।पत्नी का नाम 'कैमल दे' था और वे कोलूमंड की राजकुमारी थी।  मान्यता है कि गुरु गोरखनाथ ने रानी बाछल कवर को कई वर्षों तक संतान प्राप्ति नहीं होने पर   उनके आश्रम "नौलाब बाग" में जाकर संतान प्राप्ति हेतु उपाय बताने की याचना करने पर अभिमंत्रित गुग्गल फल खाने को देते हुए वरदान दिया था कि आपको  पुत्र की प्राप्ति होगी और वह महान राजा की ख्याति प्राप्त करेगा। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि वीर गोगाजी पृथ्वीराज चौहान के बाद इस वंश के महान योद्धा थे और उन्होंने अपने राज्य का विस्तार सतलुज से लेकर चिनाव नदी  तक किया था। वीर गोगा जी को कई उपनाम से भी पुकारा जाता है। जैसे- गोगाजी, गुग्गा वीर ,बागड के पीर, जाहर वीर,जाहर पीर और राजा मंडलीक । गोगा जी की जन्म भूमि पर आज भी  अस्तबल है, जहां सैकड़ों वर्ष बाद भी उनके घोड़े की रकाब विद्यमान है।

विदित है कि वीर गोगाजी, गुरु गोरखनाथ के परम शिष्य थे और माता द्वारा गुग्गल फल खाने के पश्चात ही उनका जन्म हुआ था। इसी कारण उनका नाम गोगा देव रखा गया था। जब  जाहर वीर  की आठवीं पीढ़ी ने मुस्लिम आक्रांताओं से त्रस्त हो कर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था,तभी से उनके वंशज "कासिम खानी मुसलमान"कहलाने लगे और इनका निवास स्थान फतेहपुर सीकरी के आस पास माना जाता है ।

     गोगाजी का अपने मौसेरे भाई अर्जुन और सुरजन चौहान के साथ कुछ इलाके को लेकर मतभेद  था ।अर्जुन और सूरजन गोगाजी के विरुद्ध युद्ध करने के लिए तुर्क आक्रांताओं से मदद मांगी । तुर्कों ने  गोगाजी की गाएं की घेर लिया। जिसके प्रतिरोध में वीर गोगा जी ने तुर्क आक्रमण से युद्ध किया था। वीर गोगा जी का युद्ध में यहां शीश कटा उस स्थान को *शीशमढ़ी* जो वर्तमान में  चुरु  जिले के ददरेवा  में स्थित है तथा उनके वीरगति प्राप्त होने के स्थान को **धूरमेडी** या **गोगामेडी** कहते हैं । यह स्थान नोहर हनुमानगढ़ में  गोगाजी महाराज के जन्म स्थान से 80 कि.मी.दूर स्थित है। हनुमानगढ़ के गोगा वीर  मंदिर का निर्माण बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह ने करवाया था। इस मंदिर के दरवाजे पर #बिस्मिल्लाह# लिखा है। जिसका अर्थ होता है 'अल्लाह के नाम से' या 'ईश्वर के नाम से'।

    कायमखानी मुसलमान जाहर पीर  की इस स्थान पर वर्ष में 11 महीने पूजा अर्चना करते हैं और शेष 1 महीना हिंदुओं के लिए  पूजा अर्चना के लिए छोड़ दिया जाता है। जालौर जिले के किलोरियों की ढाणी में भी गोगा जी महाराज की ओल्डी नामक स्थान पर गोगाजी का  एक मंदिर और है। वीर गोगा जी की राजस्थान में इतनी ज्यादा मान्यता है कि किसान वर्षा के बाद खेत में हल जोतने से पहले गोगाजी के नाम की राखी  'गोगाराखड़ी' हल और हाली ( मजदूरी पर खेती किसानी करने वाला) दोनों को  बांधते हैं। गोगाजी के 'थान'(ओटला या चबूतरा) खेजड़ी वृक्ष के नीचे होता है। जहां एक पत्थर पर सर्प की आकृति अंकित होती है । 'गांव गांव में गोगो ने गांव-गांव में खेजड़ी' की लोकोक्ति प्रचलित है। लोक मान्यता एवं लोक कथाओं के अनुसार गोगाजी को सांपों  और गायों के देवता के रूप में पूजा जाता है। गोगा देव महाराज बच्चों के जीवन की रक्षा करते हैं। जब छड़ी यात्रा निकलती है तो श्रद्धालु 'दुखियों का सहारा गोगा वीर'  जयकारा लगाते हुए आगे बढ़ते हैं। प्रतिवर्ष भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की पंचमी को गोगा पंचमी की रूप में मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है।
     छड़ी पूजा  और वीर गोगाजी की पूजा का इतिहास बड़ा रोचक, मनभावन और अजब गजब है।   छड़ी पूजा एक प्राचीनतम  सांस्कृतिक परंपरा है। विभिन्न समाज और धर्म के लोग छड़ी  का उपयोग पवित्रता स्वरूप  ध्वज या ध्वजा के रूप करते हैं । शायद यही कारण है कि सभी धर्मों के राजा महाराजा जब यात्रा पर निकलते थे तो उनके आगे आगे अपनी विशिष्ट पहचान स्वरूप छड़ी या निशान चलते थे। शायद इसलिए इसे शुभ फल देने वाला मानते हुए 'देवक स्तंभ' कहा जाता है। छड़ी का उपयोग धर्म ध्वजा के रूप में भी किया जाता है। तेजाजी महाराज की छड़ी को 'निशान' कहा जाता है। आदि शंकराचार्य और वर्तमान धर्माचार्यों द्वारा हमेशा अपने साथ धर्म ध्वजा अपने हाथ में लेकर चलने की परंपरा हैं। हिंदू के अलावा छड़ी पूजा  नार्वे में माइरे चर्च, इजरायल में अशेरा पोल (Ashers Pole) की पूजा "ज्यू" धर्म की स्थापना के पहले से ही की जाती रही है। विश्वभर में विभिन्न आदिवासी समुदाय में छड़ी पूजा की परंपरा का निर्वाह दिखाई देता है। भारतीय उपखंड में बलूचिस्तान में हिंगलाज माता, जम्मू कश्मीर  के पहल गांव में छड़ी मुबारक, महाराष्ट्र में जोतिबा गुड़ी के साथ यात्रा करने की परंपरा विद्यमान है। मध्यप्रदेश में निमाड़ में छड़ी माता की पूजा व छड़ी नृत्य परंपरा है।

इस प्रकार वीर गोगाजी की वाल्मीकि समाज द्वारा छड़ी पूजा करना सामाजिक समरसता के जीती जागती मशाल और मिसाल है।

डॉ बालाराम परमार’हंसमुख’
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं समाजिक समरसता टोली के सदस्य हैं ।

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