( महाराज दुष्यंत भरतकुलभूषण, महापराक्रमी और चारों समुद्रों से घिरे हुए समस्त भूमंडल के पालक के रूप में जाने जाते हैं। उनके शासनकाल में चोरों का भय नहीं था। भूख से लोग त्रस्त नहीं थे और रोग या व्याधि का डर भी लोगों में नहीं था। उनके राज्य में समय पर वर्षा होती थी तथा अन्न रसयुक्त होते थे। जब वह एक युवक थे तो उनका शरीर वज्र के समान दृढ़ था। वे महान पराक्रम से संपन्न थे । वे अपने दोनों हाथों से उपवनों, काननों सहित मंदराचल को उठाकर ले जाने की शक्ति रखते थे । वे गदा युद्ध में बहुत प्रवीण थे। समुद्र के समान गंभीर और पृथ्वी के समान सहनशील थे । उनका सर्वत्र सम्मान था। उनके नगर तथा राष्ट्र के लोग सदा प्रसन्न रहते थे।
ऐसे विशिष्ट गुण किसी आर्य राजा के ही हो सकते हैं। वास्तव में, महर्षि मनु के द्वारा जब इस भूमंडल पर राजाओं की परंपरा आरंभ की गई तब से लेकर महाभारत काल तक और उसके बाद भी राजाओं की एक ऐसी सुंदर परंपरा भारत में मिलती है जिनमें से अधिकांश ने अपने राजधर्म का सम्यक पालन किया है। राजधर्म के सम्यक पालन के कारण ही वे इतिहास में महान कहलाए । भारत का राजधर्म लोकतंत्र का सुंदर और उत्कृष्ट उदाहरण है। लोकतंत्र के इसी सुंदर स्वरूप का पालन अपने जीवन काल में महाराज दुष्यंत भी करते रहे थे।
हमारे देश के राजा प्राचीन काल से ही ऐसे पशुओं का शिकार करने के आदी रहे हैं जो किसानों की फसलों को नष्ट करते हैं। आर्य राजाओं में से कोई भी मांसाहारी नहीं होता था। वे हिंसक और फसलों को क्षतिग्रस्त करने वाले पशुओं को समाप्त करने और अपना युद्ध अभ्यास बनाए रखने के लिए ही शिकार किया करते थे। इन शिकारों से जहां हिंसक पशुओं का विनाश हो जाता था, वहीं राजा के बल और पराक्रम में वृद्धि भी होती थी। – लेखक )
एक बार राजा दुष्यंत अपने बहुत से सैनिकों और सवारियों को साथ लेकर शिकार के लिए वन में गए। उस वन में सेना और सवारी के साथ राजा दुष्यंत ने अनेक हिंसक पशुओं का वध करके एक मृग का पीछा करते हुए दूसरे वन में प्रवेश किया। उस वन की शोभा देखते हुए उनकी दृष्टि एक उत्तम आश्रम पर पड़ी जो अत्यंत रमणीय और मनोरम था। उस आश्रम में बहुत से पक्षी हर्षोल्लास में भरकर चहक रहे थे। कश्यप गोत्रीय महात्मा कण्व के उस मनोहर रमणीय आश्रम को देखकर राजा दुष्यंत ने उसमें प्रवेश किया। उस आश्रम में प्रवेश का निश्चय कर महाबाहु राजा दुष्यंत साथ आए हुए अपने मंत्रियों को भी बाहर छोड़कर अकेले ही उस आश्रम में गए। उन्हें देखकर आश्चर्य हुआ कि वहां पर उस समय कोई महर्षि नहीं था। तब उन्होंने "यहां कौन है ?" की जोरदार ध्वनि की। उनकी इस प्रकार की ध्वनि को सुनकर एक सुंदरी कन्या तापसी का वेश धारण किए हुए आश्रम से बाहर निकली।
वह कन्या अत्यंत सुंदर थी। उसका मदमाता यौवन उसकी सुंदरता में और भी चार चांद लग रहा था। बहुत ही शालीन और सौम्य स्वभाव से उन्होंने अत्यंत विनम्रता का प्रदर्शन करते हुए राजा दुष्यंत को देखकर "अतिथि देव ! आपका स्वागत है ?" ऐसा कहकर उन्हें भीतर आने के लिए आमंत्रित किया। अपने अतिथि देव महाराज दुष्यंत का सौंदर्य की प्रतिमूर्ति उस कन्या ने भरपूर स्वागत सत्कार किया । उन्हें आसन , पाद्य और अर्घ्य अर्पण किया। उनका कुशल क्षेम लिया।
हमारे यहां प्राचीन काल से ही 'अतिथि देवो भव:' की परंपरा रही है । अतिथि का घर पर आना बहुत ही सौभाग्य का विषय माना जाता रहा है। उस परमसुंदरी कन्या ने भी अतिथि का इसी प्रकार स्वागत सत्कार किया और आर्ष परंपरा का बड़ी उत्तमता से निर्वहन किया।
जब उस कन्या ने राजा दुष्यंत से पूछा कि ‘आपकी क्या सेवा की जाए?’ तो इस पर राजा दुष्यंत ने बड़े शांत भाव से कहा कि “मैं महर्षि कण्व का सत्संग लाभ करने के लिए इस आश्रम में उपस्थित हुआ हूं । मैं चाहता हूं कि मुझे महर्षि का दर्शन और सत्संग लाभ प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हो । कृपया, मुझे बताइए कि भगवान कण्व इस समय कहां पर हैं?”
राजा दुष्यंत की इस प्रकार की बात को सुनकर उस कन्या ने उन्हें बताया कि “महर्षि कण्व इस समय यहां पर उपस्थित नहीं हैं। वे इस समय फल लाने के लिए आश्रम से बाहर गए हुए हैं। आप कुछ समय यहां पर प्रतीक्षा कीजिए। लौटने पर उनसे आपकी भेंट अवश्य होगी ।”
महर्षि कण्व की प्रतीक्षा करने के उन क्षणों में राजा दुष्यंत ने उस कन्या के सौंदर्य पर मुग्ध होते हुए उससे कहा कि “मनोहर कटि प्रदेश से सुशोभित हे सुंदरी ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो और इस निर्जन वन में तुम्हारे अकेले आने का प्रयोजन क्या है ?” वास्तव में राजा इस समय कामदेव के शिकार हो चुके थे और वह उस सुंदरी के सौंदर्य के प्रति आसक्त होकर उससे इस प्रकार की बात करने लगे थे। राजा ने कहा कि “मैं तुम्हारे दर्शन मात्र से ही तुम्हारा हो गया हूं। मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहता हूं। तब उस कन्या ने बताया कि मैं तपस्वी, धृतिमान, धर्मज्ञ, महात्मा भगवान कण्व की पुत्री शकुंतला हूं।”
इस पर राजा दुष्यंत ने अगला प्रश्न दाग दिया। वास्तव में शकुंतला के इस प्रकार के कथन से उनकी संतुष्टि नहीं हुई थी, या ऐसा भी कह सकते हैं कि वह उन्हें अपनी बातों में और उलझाये रखकर कुछ देर और उनके साथ बातों का आनंद लेना चाहते थे । तब उन्होंने कहा कि “शकुंतले ! विश्ववंद्य कण्व तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी के रूप में जाने जाते हैं। ऐसी अवस्था में तुम जैसी सुंदरी कुमारी उनकी पुत्री कैसे हो गई ? यह बात मेरी समझ से बाहर है।”
राजा के द्वारा इस प्रकार की जिज्ञासा करने के उपरांत उस सुंदरी कुमारी शकुंतला ने अपने जन्म के बारे में बताना आरंभ किया । उसने बताया कि “मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी महर्षि कण्व की पुत्री होने के बारे में जानकारी स्वयं मेरे पिता के द्वारा ही एक बार इस आश्रम में उपस्थित हुए एक ऋषि के साथ हुए उनके वार्तालाप से हुई थी। उससे पूर्व मैं भी नहीं जानती थी कि मैं वास्तव में उनकी पुत्री नहीं हूं । उस समय भगवान कण्व ने जो कुछ बताया था मैं उसी को आपके समक्ष यथावत प्रस्तुत करती हूं।” इसके पश्चात महाभारत में अलंकारिक भाषा में प्रस्तुत की गई एक कहानी को शकुंतला ने बताना आरंभ किया।
उसने बताया कि यह उस समय की बात है जब महर्षि विश्वामित्र अपनी गहन तपस्या में लीन थे। उनकी गहन तपस्या को देखकर इंद्र को यह भय हो गया कि तपस्या से अधिक शक्तिशाली होकर यह विश्वामित्र मुझे अपने स्थान से भ्रष्ट कर देंगे। तब इंद्र ने महर्षि विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए मेनका नाम की अप्सरा से कहा कि तुम अपने रूप, यौवन, मधुर स्वभाव, मंद मुस्कान और सरस वार्तालाप आदि के द्वारा तपस्यारत महर्षि विश्वामित्र को लुभाकर उनकी तपस्या को भंग करने का उपक्रम करो।”
महर्षि विश्वामित्र अपनी साधना में लगे हुए थे। उन्हें नहीं पता था कि उनके विरुद्ध क्या चाल चली जा रही है? उधर देवराज इंद्र का आदेश पाकर मेनका मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र की तपस्थली के पास आकर प्रकट हुई । उसके रूप लावण्य को देखकर मुनि विश्वामित्र पर कामदेव का आक्रमण हो गया। अपलक उस सुंदरी को निहारने के उपरांत मुनिवर विश्वामित्र ने उसे निकट आने के लिए कहा । कामांध होकर मुनि विश्वामित्र ने मेनका से अपने साथ संबंध स्थापित करने का निमंत्रण भी दे डाला। मेनका तो पहले से ही यह चाहती थी। अत: उसने भी बिना देरी किए मुनिश्रेष्ठ के साथ संबंध स्थापित करने पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी। वे दोनों ही वहां देर तक विहार और रमण करते रहे। इस प्रकार उन दोनों के संबंध से एक बच्ची ने जन्म लिया।
उस बच्ची को जन्म देने के उपरांत मेनका का कार्य भी पूरा हो चुका था। यही कारण था कि वह उस नवजात बालिका को मालिनी के तट पर छोड़कर वहां से इंद्रलोक के लिए प्रस्थान कर गई। शेर और बाघों से भरे हुए उस निर्जन वन में सोते हुए उस शिशु की रक्षा शकुंतों अर्थात पक्षियों ने करनी आरंभ की। अनेक पक्षियों ने उस बच्ची को चारों ओर से घेर लिया और उसका सुरक्षा कवच बनाकर वहां बैठ गए ।
उसी समय महर्षि कण्व उस निर्जन वन से गुजर रहे थे। उन्होंने कुछ असहज परिस्थितियों में बैठे उन पक्षियों की ओर बढ़ना आरंभ किया । जब वह उन पक्षियों के और अधिक निकट गए तो उनके सुरक्षा कवच के बीच पड़े एक नवजात शिशु को उन्होंने देखा। महर्षि ने उस सोई हुई बच्ची को वहां से उठा लिया। इसका वृतांत बताते हुए मेरे पिता महर्षि कण्व ने उस ऋषि को बताया कि तब मैं इस कन्या को वहां से उठाकर अपने आश्रम में ले आया और अपनी पुत्री के पद पर प्रतिष्ठित कर इसका लालन पालन करने लगा।
सामने खड़ी शकुंतला ने राजा दुष्यंत को बताया कि राजन ! गर्भाधान के द्वारा शरीर का निर्माण करने वाला तो पिता होता ही है जो अभयदान देकर प्राणों की रक्षा करता है तथा जिसका अन्न भोजन किया जाता है, धर्मशास्त्र में ये तीनों ही पुरुष पिता कहे जाते हैं । यही कारण है कि मैं धर्मशास्त्र की आर्ष परंपरा के अनुसार महर्षि कण्व की पुत्री हूं। वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी भी हैं और मेरे पिता भी हैं। इसके अतिरिक्त शकुंतला ने राजा दुष्यंत को यह भी बताया कि उसे निर्जन वन में शकुंतों अर्थात पक्षियों के द्वारा मेरी रक्षा किए जाने के कारण ही मेरे पिता महर्षि कण्व ने मेरा नाम शकुंतला रखा।
इस पर राजा दुष्यंत ने शकुंतला से कहा कि जो कुछ तुमने अपने जन्म के विषय में मुझे बताया है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि तुम एक क्षत्रिय कन्या हो। मैं चाहता हूं कि तुम मेरी पत्नी बनो। यह मेरी प्रबल इच्छा है। मेरे इस प्रस्ताव को यदि आप स्वीकार करती हैं तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। मैं जानना चाहता हूं कि आपकी प्रसन्नता के लिए मैं इस समय क्या कर सकता हूं ?
मैं चाहता हूं कि आप स्वेच्छा से मेरे इस प्रस्ताव को स्वीकार करें। मैं तुम्हारे लिए ही यहां पर ठहरा हुआ हूं । मेरा मन इस समय तुममें लगा हुआ है। यदि आप मेरे इस प्रस्ताव को स्वीकार करती हैं और गंधर्व विवाह कर मेरी पत्नी बनती हैं तो मुझे अत्यधिक आनंद की प्राप्ति होगी। तुम्हें इस समय किसी प्रकार के धर्म संकट में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। अपनी अंतरात्मा से स्वयं ही पूछिए कि क्या मेरा निर्णय धर्म संगत है या नहीं ? क्योंकि आत्मा ही अपना बंधु है । आत्मा ही अपना आश्रय है। यदि आत्मा से बहुत सात्विक बुद्धिभाव रखते हुए कुछ पूछा जाता है तो वह समस्या का या द्वंद्वभाव का निश्चय ही समाधान कर देती है। मेरी इच्छा है कि तुम इस समय अपनी आत्मा से पूछकर धर्मपूर्वक आत्मसमर्पण कर मेरे इस प्रस्ताव को स्वीकार करो।”
राजा दुष्यंत और शकुंतला दोनों ही युवा थे। इसके उपरांत भी वे संयमित, संतुलित और धर्मानुकूल वार्तालाप कर रहे थे। उनका विवेक जीवित था। यही कारण था कि वह उन क्षणों में भी धर्म को सर्वोपरि मानकर उसके अनुकूल ही कार्य करना चाहते थे। वे शारीरिक सौंदर्य के आकर्षण के वशीभूत होकर किसी अधर्म की ओर बढ़ना उचित नहीं मानते थे। शारीरिक सौंदर्य व्यक्ति को अंधा बनाता है। शारीरिक सौंदर्य के प्रति आसक्ति मनुष्य के विवेक को मार डालती है। तब उन परिस्थितियों में अधर्म तांडव करता है। जिससे सृष्टि नियमों का उल्लंघन होता है। इसके साथ-साथ ऐसी अंधी आसक्ति का सामाजिक स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। राजा दुष्यंत और शकुंतला ऐसे किसी अधर्म की ओर बढ़ना नहीं चाहते थे जिससे सामाजिक जीवन अस्त व्यस्त हो। आसक्ति पर धर्म की नकेल डालना बहुत बड़ी बात होती है। इसी को आत्मसंयम कहते हैं। जवानी के दौर में आत्मसंयम बहुत अधिक आवश्यक होता है। यदि उस समय धर्म को साक्षी मानकर आचरण किया जाए तो समाज की व्यवस्था सुंदर बनी रहती है।
काम के आवेग के क्षणों में भी विवेक को जीवित रखना और विवेक के आलोक में धर्मसंगत निर्णय लेना आत्मसंयम की पराकाष्ठा है । इस आत्मसंयम से उपजा लगाव ही वास्तविक प्रेम होता है। आत्मा का प्रेम होता है । मन का मन से मिल जाना होता है। हृदय का हृदय से जुड़ जाना होता है। इससे जो नव सृष्टि होती है वह संसार के लिए एक सुंदर कृति बन जाती है। इसके विपरीत जो आवेग और आवेश के वशीभूत होकर काम किया जाता है उस कामना की अंतिम परिणति खेल-खेल में एक विकृति को जन्म दे जाती है । जिससे सारे समाज की व्यवस्था तार-तार हो जाती है। राजा दुष्यंत और शकुंतला दोनों ही समाज की व्यवस्था को तार-तार कर अपने आपको कलंकित करना नहीं चाहते थे।
राजा दुष्यंत के इस प्रकार के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार करते हुए शकुंतला ने भी अपने मन की बात कह दी । उसने राजा की बात को सुनकर बड़े गंभीर स्वर से कहा कि “यदि यह गंधर्व विवाह धर्म का मार्ग है और यदि आत्मा स्वयं ही अपना दान करने में समर्थ है तो मैं आपके प्रस्ताव को सहज-भाव से स्वीकार करती हूं । परंतु इस समय मेरी एक शर्त भी है कि मेरे गर्भ से आपके द्वारा जो पुत्र उत्पन्न हो, वही आपके बाद युवराज हो। यदि आप मेरी इस शर्त को स्वीकार करते हैं तो आपके साथ मेरा समागम हो सकता है।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)