भूमिका
महाभारत जैसा महान ग्रंथ क्यों लिखा गया ? इसका महत्व क्या है ? इसका अर्थ क्या है ? यह प्रश्न अक्सर आपके मन मस्तिष्क में उठते रहते होंगे । यदि इन् प्रश्नों का उत्तर खोजा जाए तो महाभारत के अन्त में महाभारत का महत्व और उपसंहार करते हुए इस पर प्रकाश डाला गया है। जिसमें सौति कहते हैं कि ‘ब्रह्मन ! सत्यवादी मुनिवर व्यास जी द्वारा लिखित यह पुण्यमय इतिहास परम पवित्र और अति उत्तम है।’
सौति के इस कथन से दो बातें स्पष्ट हो गईं , एक तो यह कि महाभारत अपने आपमें कोई धर्म ग्रंथ नहीं है , अपितु यह एक इतिहास है । इतिहास कभी कोई उपन्यास नहीं हो सकता । इतिहास कल्पनाओं के आधार पर लिखी गई कोई कहानी नहीं होता , वह सत्य घटना होती है । इस प्रकार महाभारत को धर्म ग्रंथ मानना या उसे केवल एक उपन्यास मान लेना हमारी अज्ञानता है।
दूसरी बात इसी श्लोक से यह भी स्पष्ट हो जाती है कि इतिहास का ज्ञान हमारे पूर्वजों को प्रारम्भ से ही रहा है, तभी तो इस ग्रंथ को ‘इतिहास’ नाम दिया गया है । जो लोग हमारे बारे में यह कहते हैं कि भारतवासियों को इतिहास ना तो लिखना आता है और ना ही उन्हें इतिहास का कोई ज्ञान है , उन्हें महाभारत के इस श्लोक पर अवश्य चिंतन करना चाहिए। इससे उन्हें पता चल जाएगा कि भारत के लोगों को कितनी उत्कृष्ट शैली में इतिहास लिखना आता है ?
जब देश आजाद हुआ तो उस समय कांग्रेस के बड़े नेता भी ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को कल्पनाओं पर आधारित लिखे गए ग्रंथ बता रहे थे। उनके मानसपुत्रों को भी महाभारत की इस साक्षी पर विचार करना चाहिए। महाभारत के ‘स्वर्गारोहण पर्व’ के चौथे अध्याय के दूसरे श्लोक में यह बात स्पष्ट की गई है कि ‘इस ग्रंथ में भरतवंशियों के महान जन्म – कर्म का वर्णन है । अतः इसे महाभारत कहते हैं । महान एवं भारी होने के कारण भी इसे महाभारत कहते हैं।’ इस श्लोक से फिर यह स्पष्ट हो रहा है कि यह भरतवंशियों का इतिहास है । साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया कि इसे महाभारत क्यों कहते हैं ?
आगे बताया गया है कि भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने 3 वर्षों में इस संपूर्ण महाभारत नामक ग्रंथ का अपना लेखन कार्य पूर्ण किया था । मूल रूप में इस ग्रंथ का नाम ‘जय’ रखा गया था । चौथे श्लोक में स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि जो मनुष्य ‘जय’ नामक इस महाभारत इतिहास को सदा भक्तिपूर्वक सुनता है उसके यहां श्री , कीर्ति तथा विद्या यह तीनों साथ – साथ रहती हैं।
यह बात कुछ अटपटी सी लगती है कि महाभारत जैसे इस ग्रंथ के पढ़ने से श्री ,कीर्ति और विद्या का मिलना कैसे संभव है ? क्योंकि इसमें छल ,कपट ,द्वेष आदि के भाव ही अधिक दिखाई देते हैं। वास्तव में इससे अगले श्लोक में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ‘भरतभूषण ! धर्म , अर्थ ,काम और मोक्ष के विषय में जो भी कुछ इस महाभारत नामक ग्रंथ में कहा गया है , वही अन्यत्र है , जो इसमें नहीं है वह कहीं भी नहीं है।’इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि महाभारतकार ने महाभारत जैसा ग्रंथ धर्म , अर्थ ,काम और मोक्ष के गूढ़ रहस्य को समझाने के लिए लिखा । उसके लिए महाभारतकार ने हस्तिनापुर के राजवंश के लोगों को पात्र बनाया और उनके मध्य हुए झगड़े को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि संसार के लोग धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष के बारे में समझ सकें । उन्हें यह बोध हो सके कि यदि नैतिकता और मर्यादा रूपी द्रोपदी का चीर हरण करोगे तो परिणाम बड़े भयंकर आएंगे । कुल का नाश हो जाएगा , देश का नाश हो जाएगा और अन्त में मानवता को बहुत भारी क्षति उठानी पड़ेगी।
महाभारत के भीतर धर्म पर चलने वाले पांच पांडव भीष्म पितामह , विदुर और गांधारी , कुन्ती व द्रौपदी जैसी महान नारियां हैं तो अधर्म पर चलने वाले शकुनि , दुर्योधन, दु:शासन आदि लोग भी हैं। इसमें काम भी है , इसमें अर्थ भी है और सदा धर्मानुसार आचरण करने व मोक्ष को प्राप्त करने वाले युधिष्ठिर और विदुर जैसे महात्माजन भी हैं। इसमें पात्रों द्वारा गलतियां भी बहुत की गई हैं तो पात्रों ने ऊंचे संवाद के माध्यम से बहुत गहरी बातों को बड़े सरल ढंग से हमें समझाने का प्रयास भी किया है। किसी लेखक का उद्देश्य भी यही होता है कि वह अपने पाठक को कुछ शिक्षाप्रद बातें भी दे । उसकी इच्छा होती है कि मेरे पाठक का मुझे पढ़ने में समय ही नष्ट न हो अपितु उसे कुछ मिले भी । महाभारतकार ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है । अपने पात्रों से उसने ऐसे ऊंचे संवाद करवाए हैं ,जिन्हें सुनकर हमको बहुत कुछ मिलता है ।
। महाभारत उपद्रव का नाम नहीं है , बल्कि उपद्रव कैसे शांत हो और धर्म ,अर्थ , काम के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो ? – इसको समझाने का एक बहुत ही सुंदर और उत्कृष्ट ग्रंथ है । इसमें मानव मन के भीतर उठने वाली अज्ञान रूपी तरंगों को शांत करने की क्षमता है । काम व क्रोध के वशीभूत होकर जो गलतियां हमसे होती हैं , उनका निवारण देने की उत्कृष्ट प्रतिभा महाभारतकार के भीतर है । इस ग्रंथ को उसका लिखने का उद्देश्य यही था कि संसार में रहकर मनुष्य उपद्रव में फंसकर न रह जाए बल्कि मोक्ष की ओर चले।तभी तो छठे श्लोक में यह बात स्पष्ट की गई है कि मोक्ष की इच्छा रखने वाले ब्राह्मण को , राज्य चाहने वाले क्षत्रिय को और वीर तथा श्रेष्ठ पुत्र की इच्छा रखने वाली गर्भवती स्त्री को इस ‘जय’ नामक इतिहास का श्रवण अवश्य करना चाहिए ।
महाभारत का श्रवण अथवा पाठ करने वाला मनुष्य स्वर्ग अर्थात सुख विशेष की इच्छा करे तो उसे स्वर्ग मिलता है और युद्ध में विजय पाना चाहे तो विजय श्री उसके चरण चूमती है, इसी प्रकार गर्भिणी स्त्री को महाभारत के सेवन से सुयोग्य पुत्र अथवा सौभाग्यशालिनी कन्या की प्राप्ति होती है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि महाभारत सुनो और आपकी मनोकामनाएं पूरी हो जाएंगी। इसका अभिप्राय है कि महाभारत के मर्म को समझते हुए कर्म करो कि अमुक कर्म करने से अमुक फल की प्राप्ति होती है अर्थात विनाश और बेईमानी की सोच व नीयत रखने से कुल का नाश होता है और शुभ कर्म करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।
जब दुर्योधन और युधिष्ठिर इन दोनों के इस प्रकार के चरित्र को पढ़ व समझकर और यह विचार करके कार्य किया जाता है कि मुझे कौन से मार्ग का अनुगामी होना है तो मनुष्य धर्म के अनुसार आचरण करने लगता है । जब धर्म के अनुसार आचरण करने लगता है तो उसकी मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती हैं।व्यास जी ने पहले इस महाभारत नामक ग्रंथ की रचना मात्र 4 श्लोकों में की थी । उन चारों श्लोकों को उन्होंने अपने पुत्र शुकदेव को सुनाया था । जिसमें उन्होंने कहा कि – ” पुत्र ! मनुष्य इस संसार में सहस्रों माता-पिता , सैकड़ों स्त्री – पुरुषों के संयोग – वियोग का अनुभव कर चुके हैं , करते हैं और करते रहेंगे । मूर्ख मनुष्य को प्रतिदिन हर्ष के सहस्रों और भय के सैकड़ों अवसर प्राप्त होते रहते हैं , परंतु विद्वान पुरुष के मन पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ‘
मैं दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर पुकार – पुकार करके कह रहा हूँ , परन्तु मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से मोक्ष की तो सिद्धि होती ही है अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं । फिर भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते ?” कामना से , भय से , लोभ से अथवा प्राणों की रक्षा के लिए भी धर्म का त्याग न करें धर्म नित्य है और सुख-दु:ख अनित्य , इसी प्रकार जीव नित्य है और उसके बंधन हेतु शरीर आदि अनित्य है।’
4 श्लोकों में महाभारत को पूर्ण करना महाभारत के रचयिता व्यास जी के बौद्धिक चिंतन और उनकी मन:स्थिति को प्रकट करता है । उन्होंने अपने समकालीन कौरव – पांडवों के जीवन चरित्र पर चिंतन करते हुए 4 श्लोकों में इसका निष्कर्ष निकाला होगा कि कितना भयंकर युद्ध इन लोगों ने असार धन को लेकर कर दिया , जिस अनित्य धन को लेकर दुर्योधन ने यह सब कुछ किया कराया उसकी असारता व अनित्यता पर उसने विचार क्यों नहीं किया और युद्धिष्ठिर ‘सद्गुण विकृति’ का शिकार क्यों हो गए कि उन्होंने अपनी पत्नी को ही जुए में दांव पर लगा दिया ? यह सब क्यों होता है ? इस पर उन्होंने गहराई से चिंतन किया तो उन्होंने निष्कर्ष रूप में अपने पुत्र को 4 श्लोकों में उस समय मचे इस महातांडव और भयंकर युद्ध की परिणति , परिणाम और उससे मिलने वाली प्रेरणा को ही स्पष्ट कर दिया ।
उन्होंने समझाया कि अनित्य को नित्य मानना मूर्खता है। जो सांसारिक धन वैभव स्वयं ही असार है , उसको सारवान समझकर उसके लिए लड़ना – झगड़ना कुल के नाश को आमंत्रित करना होता है । बेटे शुकदेव की समझ में तो यह बात आ गई , परन्तु आगे आने वाली पीढ़ियों को यह बात कैसे समझाई जाए ? जब यह प्रश्न व्यास जी के मन मस्तिष्क में कौंधने लगा तो उनसे महाभारत जैसे महान ग्रंथ की रचना हुई । जिसके माध्यम से उन्होंने हम पर उपकार किया कि इतिहास का एक महान ग्रंथ बनाकर हमें सौंप दिया । उसे यदि हम स्वयं ही कूड़ेदान की वस्तु मानें तो यह हमारी अज्ञानता है । उन्होंने तो हमें मोक्ष प्राप्ति का एक मार्ग समझाते हुए इतिहास लिख कर दिया।
वर्तमान इतिहास में हमें मोक्ष प्राप्ति का मार्ग नहीं बताया जाता । इसीलिए इतिहास नाम की वर्तमान पुस्तक हमें नीरस लगती है। सचमुच हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमारे इतिहास ग्रन्थ भी हमको मोक्ष का रास्ता बताते हैं , संसार के अनित्य विवादों और संसार की नश्वरता को परे हटाकर भवसागर से पार करने की विधि बताते हैं।जब इतिहास महाभारत के रूप में हमसे बोलने लगता है और संवाद स्थापित करने लगता है तो इतिहास जीवन्त हो उठता है । सार्थक हो उठता है और हमारे जीवन का एक आवश्यक अंग बन जाता है। हमारे लिए पथ प्रदर्शक हो जाता है और हमारी उंगली पकड़कर चलने लगता है कि बच्चो ! आओ , मेरे साथ चलो , मैं तुम्हें सीधे मोक्ष की पगडंडी पर डाल देता हूँ , जो तुम्हें इस भवसागर से पार कर देगी।महाभारत के अन्त में लिखा गया है कि व्यास जी ने जिन 4 श्लोकों को अपने पुत्र को सुनाया वास्तव में यह चार श्लोक महाभारत का सारभूत उपदेश ‘भारत सावित्री’ के नाम से प्रसिद्ध है । ‘जो प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इसका पाठ करता है , वह व्यक्ति संपूर्ण महाभारत के अध्ययन का फल पाकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ।’अर्थात जब संसार की अनित्यता का बोध हो जाता है तो इस धन आदि को लेकर लड़ने की मानव की प्रवृत्ति शांत हो जाती है और संसार से वैराग्य उत्पन्न हो जाने से वह संध्या – योग आदि की ओर प्रवृत्त होता है । जिससे वह परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।’जैसे ऐश्वर्यशाली समुद्र और हिमालय पर्वत दोनों ही रत्नों की निधि कहे गए हैं , वैसे ही महाभारत भी नाना प्रकार के उपदेशमय रत्नों का अपार भंडार कहलाता है ।”
जो भली-भांति एकाग्र चित्त होकर इस महाभारत का पाठ करता है वह अतुलनीय , पुण्यकारक , पवित्र पापों का हरण करने वाले ( इसकी दिव्य शिक्षाओं से भविष्य में पाप करने से मनुष्य बच जाएगा ) और कल्याणमय महाभारत को दूसरों के मुख से सुनता है उसे पुष्कर तीर्थ के जल में गोता लगाने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात उसे किसी भी प्रकार के सांसारिक पाखंड में फंसने की आवश्यकता नहीं है, उसके भीतर ही तीर्थ स्थापित हो जाएगा। कुल मिलाकर महाभारत के लिखने का उद्देश्य और उसका महत्व यही है।
इस पुस्तक के माध्यम से हमने महाभारतकार के मंतव्य को थोड़ा स्पष्ट करने का प्रयास किया है। जिसमें 17 कहानियों को लिया गया है । जिनके माध्यम से महाभारत की संवादात्मक शैली का बोध हमें होता है, प्रत्येक कहानी बड़ी शिक्षाप्रद है।
आज की युवा पीढ़ी को इन शिक्षाप्रद कहानियों को पढ़ने की आवश्यकता है । दुर्भाग्य से हमारी युवा पीढ़ी आजकल पश्चिमी जगत की शिक्षा प्रणाली के चलते भटकाव का शिकार है। उसके भीतर यह मिथ्या धारणा घर कर गई है कि भारत के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो उसके लिए शिक्षाप्रद हो । जो कुछ भी आया है वह पश्चिमी जगत से आया है और पश्चिमी जगत ने ही हमें आधुनिक अर्थात मॉडर्न बनाया है।
आजकल सनातन को लेकर भी जोरदार चर्चाएं हैं । अपने आप को मॉडर्न कहने वाले लोग ही सनातन के अर्थ को नहीं समझते। यही कारण है कि वे सनातन को अपशब्द कहते हुए मिल जाते हैं। जबकि सनातन के भीतर नित्य नूतनता होने के कारण अपने आप आधुनिकता अथवा मॉडर्निटी है। अतः युवा पीढ़ी को सनातन और सनातन के वैदिक साहित्य से अपने आपको जोड़ना चाहिए। जहां तक महाभारत की बात है तो इसे पांचवा वेद कहा गया है । स्पष्ट है कि महाभारत वैदिक संस्कृति के मूल्यों को लेकर ही लिखी गई।
इस पुस्तक में दी गई कहानियों के माध्यम से युवा पीढ़ी के भीतर वैदिक संस्कारों को स्थापित करने का विशेष ध्यान रखा गया है । पुस्तक को लिखने की प्रेरणा मुझे विदुषी बहन डॉ मृदुल कीर्ति जी द्वारा दी गई। जो कि स्वयं उत्कृष्ट साहित्य सृजन में लगी हुई हैं और सात समुंदर पार अर्थात ऑस्ट्रेलिया में रहकर भारत की आत्मा के साथ सहकार स्थापित कर वैदिक वांग्मय की ज्योति जला रही हैं। उनकी प्रेरणा शक्ति और साहित्य साधना को बारंबार नमन है।
पुस्तक लेखन कार्य के संपन्न होने के लिए परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा का हृदय से धन्यवाद करता हूं। इसके साथ ही पूज्य पिताजी स्व0 महाशय राजेंद्र सिंह आर्य जी और पूज्या माताजी स्व0 श्रीमती सत्यवती आर्या जी को उनकी 112 वीं और 99 वीं जयंती ( अर्थात 5 अक्टूबर और 8 अक्टूबर 2023 ) के अवसर पर श्रद्धापूर्वक सादर नमन करता हूं, जिनके आशीर्वाद से मेरी साहित्य साधना का यह 73 वां पुष्प आपके कर कमलों में सुशोभित हो रहा है। इसके अतिरिक्त श्रद्धेय ज्येष्ठ भ्राताश्री प्रो0 विजेन्द्र सिंह आर्य जी , मेजर वीर सिंह आर्य जी और श्री देवेंद्र सिंह आर्य जी के शुभ आशीर्वाद को भी नमन करता हूं , जिनका पितृतुल्य स्नेह और आशीर्वाद सदा मेरे साथ रहता है। अपनी धर्मपत्नी श्रीमती ऋचा आर्या पुत्र अमन आर्य, पुत्री श्रुति, श्वेता और श्रेया के सहयोग को स्नेहिल हृदय से सराहता हूं जिन्होंने इस पुस्तक के लेखन में मुझे सभी जिम्मेदारियों से मुक्त रखकर शांतिपूर्ण परिवेश और समय देकर मुझे कृतार्थ किया।
अन्त में अपने साथियों, मित्रों और पुस्तक के प्रकाशक महोदय का भी हृदय से धन्यवाद ज्ञापित करते हुए अपने पाठकों के प्रति भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूं जिनका आशीर्वाद मेरी सबसे बड़ी पूंजी है।
आशा करता हूं कि मेरी हर पुस्तक की भांति यह पुस्तक भी आपको अच्छी लगेगी।
दिनांक : 5 अक्टूबर 2023
भवदीय
डॉ राकेश कुमार आर्य
दयानंद स्ट्रीट, सत्यराज भवन , दयानंद वाटिका के पास, निवास सी ई - 121, अंसल गोल्फ लिंक- 2, तिलपता चौक, ग्रेटर नोएडा ,जनपद गौतम बुद्ध नगर (उत्तर प्रदेश ) पिन 201309 चलभाष : 991116 9917