भाजपा अध्यक्ष की चिंता चिंतनीय है पर हमारे लिए नहीं, स्वयं उनके लिए। उन्हें चिंतन करना पडेगा कि आज वह अटल जी की कुर्सी पर हैं तो क्या यह अटलजी का आशीर्वाद नहीं है और यदि है तो वह अटलजी के सपनों का भारत बनाने में स्वयं कितने सहायक बने हैं? उन्हें यह भी चिंतन करना चाहिए कि पार्टी केवल 32 वर्ष के अल्पजीवन में ही सत्ता शीर्ष तक पहुंची और दो से दो सौ सीटों तक पहुंच गयी।
वह आखिर किस पुरूषार्थ का फल था और फिर दो सौ से पीछे हटकर सत्ता पाने की आजकल कोशिश करते करते अंगूर खट्टïे हैं, की पराजित मानसिकता का प्रदर्शन आखिर क्यों कर रही है? यह गिरावट आखिर क्यों आ गयी, किस कमी के कारण आयी?
वास्तव में आज भाजपा खुद मियां फजीहत औरों को नसीहत वाली कहावत को चरितार्थ करने वाले नेताओं की पार्टी बनकर रह गयी है। यहां अधिकांश नेताओं को पता है कि तुम्हारा मूल्य अब कितना रह गया है पर कब्र में पांव टेके नेता भी अंतिम सांस तक कुर्सी के लिए पार्टी पर अपनी पकड़ बनाये रखने के मोहजाल में फंसे पड़े हैं।
जिस दिन पार्टी के लिए सोचने की बात शुरू हो जाएगी उसी दिन अटल जी का आर्शीवाद फलीभूत होने लगेगा। अभी तो अटल जी का आशीर्वाद लेकर उसे नीचे से चुपचाप बहते दरिया में डाला जा रहा है और होशियारी दिखाई जा रही है कि मैं ऐसा नहंी कर रहा हूं। अटल जी के आशीर्वाद को अपने साथ रखने की आवश्यकता नही है, पार्टी हित में काम करने की आवश्यकता है। तभी राष्टï्र के लिए पार्टी नि:स्वार्थ कार्य कर पाएगी।