“बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना” इस कहावत को दुष्टता के स्तर तक चरितार्थ करते घूम रहे थे एएमयू (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी) के वामपंथी – मुस्लिम विद्यार्थी। उन्होंने फलस्तीनी आतंकी संगठन हमास की क्रूरता के समर्थन में आतंकी नारों और मजहबी क्रूरता के नारों से पूरे परिसर को दहला दिया। इससे गैर इस्लामी छात्रों के बीच जबरदस्त भय का माहौल बन गया था। लेकिन क्या यह पहली बार है? नहीं! याद कीजिए कश्मीर में धारा ३७० हटाने से पूर्व कश्मीरी मुस्लिम आतंकियों के समर्थन में भी इसी प्रकार के नारे लगाए जाते थे। संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु की फांसी को “न्यायिक हत्या” कह, हिंदुओं और सैनिकों के हत्यारे आतंकी बुरहान वाणी के वध को किस प्रकार गौरवान्वित किया गया। कैसे असंख्य भीड़ इन जिहादी आतंकियों के जनाजे में शामिल हो कर समाज, कानून व्यवस्था को मुंह चिढ़ाती रही है, वह किसी से छुपा नहीं है। यह स्पष्ट संदेश है “इस्लामी उम्मा” का जिसके अनुसार किसी मुस्लिम व्यक्ति अथवा इस्लामी दलील का समर्थन हर कीमत पर किया जाना हर मुस्लिम के लिए फर्ज़ है। फिर चाहे वह कितना ही अनैतिक, अमानवीय, असभ्य ही क्यों न हो।
याद रखिए, यह वही विश्वविद्यालय है जिसमें भारत को विभाजित करने वाले योजनाकार, हिंदू मुस्लिम खाई को बढ़ा कर राजनीति करने वाले, विभाजन के समय लाखों हिंदुओं की हत्याएं, बच्चियों महिलाओं के साथ बलात्कार की “सीधी कार्यवाही” को प्रेरित करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना को ससम्मान याद किया जाता है। और जब कोई इसका विरोध करता है तो एएमयू प्रशासन जिन्ना के पूर्व छात्र होने को, कारण बता इससे अपना पल्ला झाड़ लेता है। प्रश्न है कि, एएमयू ऐसा क्यों करता दिखता है? जिन्ना करोड़ों मुस्लिमों के लिए आदर्श है, प्रेरणा का पात्र है। इसलिए वह बिना किसी ऐसी घोषित नीति के अपने मजहबी सिद्धांत को प्रतिपादित करने में सहायक बातों या लोगों को संरक्षण देता हैं। लगता है, ऐसे विश्वविध्यालों द्वारा ऐसा करना एक मजहबी संदेश है।
अधिक वर्ष नहीं बीते हैं जब इन्हीं इस्लामिक यूनिवर्सिटी में पड़ोसी इस्लामी देशों के अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने वाले सीएए, एनआरसी के विरोध में “तेरा मेरा रिश्ता क्या..” जैसे विभाजक नारे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लगाए गए। और लगाने वालो में अधिकांश भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के लोग। लेकिन ये इन्हीं देशों से आने वाले बहुसंख्यक मुस्लिमों के लिए देश के हर संसाधनों पर अधिकार चाहते हैं। उनके रिश्ते- नातेदार बनकर उनकी पैरवी करते हैं।
ऐसे में उस मानसिकता को समझना बहुत आवश्यक है जो इस प्रकार के विभाजक, उद्वेलक, जिहादी नारे और व्यवहार करने को प्रेरित करती है। यदि समय रहते इन पर नियंत्रण कर इन्हे कुचला नहीं गया तो संविधान को ताकत देने वाले “हम भारत के लोग..” ही बहुत बड़े खतरे में पड़ जायेंगे।
हमारा संविधान लोगों को बिना शस्त्रों के एकत्रित होने का अधिकार देता है। लेकिन यह कहां की नैतिकता है, संवैधानिकता है, कि इस शांति से एकत्रित होने के नाम पर अशांति, आतंकवाद फैलाने वालों के समर्थन में रैलियां, गोष्ठियां, कार्यक्रम किए जाएं? ऐसे में तो हम जानबूझ कर उन विध्वंसक शक्तियों को सक्रियता का अधिकार दे रहे हैं जो हमारे, हमारे राष्ट्र और हमारी संस्कृति – सभ्यता को नष्ट करने के मजहबी उन्माद से भरे हुए हैं। जिनके लिए किसी अन्य ईश्वर, अल्लाह का अस्तित्व ही न काबिल -ए -बर्दाश्त है। फिर विविधता में एकता, आपसी भाईचारे, शांतिप्रियता, मानवीयता के लिए कोई स्थान ही कहां बचता है?
भारतीयों को विशेषकर हिंदुओं और सेकुलर लोगों को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मुस्लिम तुष्टिकरण या हिंदू मुस्लिम भाईचारे को प्रस्थापित करने की धुन में गांधी जी ने जिस “खिलाफत” के समर्थन में रैलियां की थीं वह इस्लामिक भाईचारे की बात तो करता है, लेकिन अंबेडकर के शब्दों में वह “सिर्फ मुस्लिम भाईचारे तक सीमित” है। गैर मुस्लिमों को वह काफिर मानता है। यही कारण है गांधी की तमाम कोशिशों के बावजूद इस्लाम के नाम पर भारत का विभाजन हुआ और गांधी जो अपनी लाश पर पाकिस्तान बनेगा का दावा करते थे, अपने जिंदा रहते हुए पाकिस्तान बनना स्वीकारना पड़ा। साथ ही उसे मजबूत करने हेतु उन्होंने आर्थिक सहायता का दबाव भी हिंदुस्तान की सरकार पर बनाया था।
वर्तमान में फलिस्तीन के नाम पर हमास का समर्थन करने वाले गैर- मुस्लिम जाने अनजाने ही गांधी वाली गलती को दोहरा रहे हैं। इससे वे इस्लामी उम्मा का कट्टर सिद्धांत मजबूत कर रहे हैं। यही कारण है हम भारत में यदाकदा “तेरा मेरा रिश्ता क्या..” “हिंदुओं की कब्र खुदेगी…” जैसे विभाजनकारी, नस्लीय, मजहबी उन्मादी और भय पैदा करने वाले नारे सुनते रहते हैं। किसी दूर देश से संबंधित इस्लामी विषयों पर भारत में रैली, विरोध प्रदर्शन, तोड़ फोड़, यहां तक कि हिंसक दंगो के कारण “सेकुलर उत्पीड़न” का शिकार हैं। याद कीजिए मुंबई में आजाद मैदान में हुई इस्लामी रैली और उसके बाद के दंगे। जिसमें हर भारतीय के लिए गौरवशाली प्रेरणा के प्रतीक “अमर जवान ज्योति” को लात मार कर तोड़ दिया गया था। क्या उनका भारत से किसी भी प्रकार का कोई लेना देना था? नहीं। यह रैली म्यांमार में मुस्लिमों की हिंसा, अत्याचार के खिलाफ बेहद शांति प्रिय अहिंसक बौद्धों के प्रतिकार के विरोध में शांति के नाम पर आयोजित की गई थी।
इतना सब कुछ होने, देखने के बावजूद भारत के कथित बुद्धिजीवी, वामपंथी, इस्लामी विद्वान इजरायल पर हमला, बहु बेटियों को बंधक बना उनका वैशिहाना बलात्कार करने, हत्याएं करने वाले फलिस्तीनी हमास के साथ खड़ा है। ये कितने वहशी हैं इसका अंदाजा लगाइए कि एक बंधक जिसे इसराइली फौज ने छुड़ा लिया ने बताया कि इस्लामी आतंकी हमास के लोगों ने तीन दिन से भूखी उस महिला को खाने में मीट की जो सब्जी दी थी, वह उस मां के खाने के बाद उसे बताते हैं, कि यह उसके एक साल के बेटे के मांस से बनी सब्जी थी, जिसे उन इस्लामी लोगों ने उससे छीना था। क्या गुजरा होगा इस मां के दिल पर? ज़रा सोचिए। क्या यह सब इन लोगों की शैतानी, वहशी ज़हेनियत को नहीं बताती? क्या ऐसे लोगों को हम अपने घर परिवार, पड़ौस में रखना चाहेंगे? इसकी क्या गारंटी है कि, ये लोग मौका मिलने पर हमारे साथ वही सब नहीं करेंगे जिसका ये समर्थन कर रहे हैं? ध्यान रहे, हमारे विचार ही हमारे व्यवहार को प्रेरित करते हैं।
एक बड़ा तथ्य जो हमास का समर्थन करने वाले गलत बताते हैं, वह यह कि जिस फलस्तीन को ये लोग पीड़ित बता रहे हैं, दरअसल वह ही इजरायल और यहूदियों पर कब्जा, प्रताड़ित करने वाले हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इजराइल यहूदी देश रहा है। लेकिन इस्लाम के आक्रमण के बाद इजरायल के यहूदियों को न सिर्फ उनकी मातृभूमि से धकिया किया गया, बल्कि उनकी संपत्ति, धन दौलत और स्त्रियों पर कब्जा और अत्याचार किया गया। कालांतर में यहूदियों ने अपने समाज के बीच विभाजन को समझा और एकता का दंड ऐसी कठोरता से पकड़ा, कि आज उन्होंने न सिर्फ अपना देश पुनः प्राप्त किया बल्कि इसे मजबूती से बढ़ा भी रहा है। यह कुछ कुछ ऐसा ही है जैसा कश्मीर से हिंदुओं को निकल कर मुस्लिमों ने सारे “स्वर्ग भूमि” को कब्जा कर “जिहादी मजहबी” भूमि में बदल दिया था। क्या कुछ नहीं हुआ था हिंदू परिवारों ने, महिलाओं, बच्चियों ने! भय आज भी इतना है कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद हिंदु वहां रहना सुरक्षित नहीं मान रहा।
क्या तब किसी मुस्लिम नेता,धर्मगुरु ने कश्मीरी हिंदुओं पर अत्याचार करने वाले जिहादियों का विरोध किया था? नहीं। क्योंकि यह सब उनके मजहब के विस्तार को बढ़ाता है। लेकिन जब कहीं से कोई प्रबल प्रतिरोध होता है, तो ये लोग तुरंत पीड़ित बनने का ढोंग कर संवेदनशील लोगों को धोखा देते हैं। ऐसे में इनकी मानसिकता को समझ कर ही इनसे बचा जा सकता है। क्योंकि भारत में हमास, आईएसआईएस, कश्मीरी जिहादियों के समर्थन में खड़े होने वाले लोग भारत के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं। ये वो “टाइम बम” हैं जो अपने समय आने पर फटने को तैयार हैं।
ऐसे में सरकार और समाज के सजग व जिम्मेदार लोगों को स्वयं और राष्ट्र रक्षा के लिए गंभीर कदम जल्द ही उठाने होंगे। क्योंकि भारत की विभाजनकारी राजनीति और कुछ राजनेता अपने निहित स्वार्थ के लिए देश को बर्बाद करने से गुरेज नहीं करेंगे। इसलिए सही नेतृत्व भारत को मिलता रहे इसकी चिंता और कर्मण्यता करते रहना ही “हम भारत के लोगों” का नैतिक और धार्मिक रूपी कर्तव्य है।
युवराज पल्लव।
8791166480