यूरोप ने भारतीय ऋषियों के चिंतन पर फिर लगायी मुहर
गाजियाबाद। यह खेद का विषय है कि जब तक हमारी संस्कृति सभ्यता या मान्यताओं पर पश्चिम की मुहर ना लग जाए तब तक हमारे अपने बुद्घिजीवियों के गले से हमारी अपने सिद्घांत नीचे नहीं उतरते। पूरी दुनिया में जिस एक बिंदु पर किसी बहस या बाद विवाद की गुंजाइश नहीं तथा जिसे सब भली प्रकार मानते हैं कि दुनिया की सबसे प्राचीन विचार धारा जीवन पद्घति व संस्कृति हिंदू संस्कृति है जिसका आधार वेद हैं तथा ऋग्वेद रूप से प्राचीन पुस्तक है। वही प्राचीन सनातन संस्कृति जिसके एक पुरोधा स्वामी दयान सरस्वती हुए जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन वेदों के प्रचार प्रसार में लगा दिया तथा उन्होंने इनके प्रचार प्रसार के लिए आर्य समाज नामक संस्था की स्थापना की। उन्होंने स्वरचित पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में वैवाहिक संबंधों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि उत्तम संतान उत्पन्न करने के लिए हमें वैवाहिक संबंध दूर व अपनी जाति से अलग स्थापित करने चाहिए। इसके लाभ बताते हुए स्वामी जी महाराज ने इस पर विस्तार से चर्चा की है।
इसी प्रकार का एक मामला पिछले दिनों यूरोप की मानवाधिकार अदालत ने जर्मनी के एक भाई बहिन को पति पत्नी की तरह रहने से इंकार कर दिया तथा अपनी बात स्पष्टï करते हुए अदालत ने कहा कि जर्मनी को सगे संबंधियों के बीच यौन संबंध या कौटुंविक व्याभिचार रोकने का पूरा अधिकार है। यूरोप की मानवाधिकार अदालत का यह आदेश भारत के उन पश्चिमपरस्त बुद्घिजीवियों के मुंह पर करारा तमाचा है। जिनके लिए शादी की एक मात्र शर्त बालिग होना है। जिनके लिए देश का मानवाधिकार डंडा लेकर खड़ा है कि खबरदार जो किसी ने भी इसके इतर कोई बात रखी अगर ऐसा हुआ तो उसे दकियानूसी व पिछडेपन का प्रमाण पत्र देकर बुद्घिजीवियों की जमात से बाहर फेंक दिया जाएगा। उपरोक्त दोनों भाई बहन अपने जीवन में शादी से पहले कभी नहीं मिले। पैट्रिक स्ट्रविंग और सूसन कैरोलेवस्की नाम के उपरोक्त जोड़े से चार बच्चे हुए जिनमें से तीन को बाल संरक्षण गृह में रखा गया है। उनको कौटुंविक व्याभिचार का दोषी ठहराया गया है। पैट्रिक ने तीन वर्ष जेल में बिताये हैं। वहां की अदालत ने कौटुंविक व्याभिचार की खिलाफ कानून इसलिए बनाया था क्योंकि इसमें होने वाली संतान की विकलांग पैदा होने की आशंका ज्यादा होती है और उनकी या भारतीय ऋषियों की आशंका इसलिए भी गलत नहीं है क्योंकि पेट्रिक और सूसन की दो संतानें विकलांग हैं। यह गंभीर चिंतन का विषय है। उन भारतीय विचारकों के लिए, समाज की दशा व दिशा तय करने वाले लोगों के लिए, भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए की क्या वास्तव में यूरोप की मानवाधिकार अदालत का यह निर्णय या भारतीय ऋषियों की विचारधारा क्या केवल कुछ लोगों के कहने से त्याज्य हो गयी या उनकी बात का कोई मर्म है।
सारी दुनिया हमको माने।
हम खुद को ना जानें।।