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स्मार्टफोन से बच्चे स्मार्ट से अधिक आक्रामक बन रहे हैं

वंदना कुमारी
मुजफ्फरपुर, बिहार

सूचना क्रांति के इस दौर में पूरी दुनिया ग्लोबल विलेज बन गई है. आज तमाम अद्यतन जानकारी, सूचना, तकनीकी अनुसंधान, पठन-पाठन आदि मानव जीवन के लिए आसान और सर्वसुलभ हो गया है. सबसे ज्यादा शिक्षा में क्रांतिकारी बदलाव आया है. अब घर बैठे स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप, कंप्यूटर आदि को इंटरनेट के जरिए कंनेक्ट करके बहुत तीव्रता और शुद्धता के साथ नवीनतम और अद्यतन ज्ञान को प्राप्त करना सुलभ हो गया है. ऐसे में इंटरनेट की सुविधा के सदुपयोग करने वाले विद्यार्थी स्कूली परीक्षा, प्रतियोगी परीक्षाओं से लेकर अनुसंधानात्मक तथा तथ्यात्मक प्रक्रिया को अपनाकर नित्य नए प्रतिमान गढ़ रहे हैं. कोरोना काल में इंटरनेट के जरिए ऑनलाइन शिक्षा की बदौलत ही प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक अलख जगाना सर्वसुलभ व संभव हो सका था. कई बड़ी एजुकेशनल कंपनियां अस्तित्व में आई और आज पूरे देश-विदेश में डिप्लोमा, डिग्री, मास्टर तक की ऑनलाइन संभव हो सकी है. सामान्य शिक्षा के अलावा तकनीकी शिक्षा को भी इंटरनेट के माध्यम से वैश्विक स्तर पर स्थापित करना बेहद फायदेमंद रहा है.

यूएन की एजेंसी इंफॉर्मेशन एंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी की रिपोर्ट की मानें तो पूरी दुनिया में 3.9 अरब लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं. भारत में 2007 में सिर्फ 4 प्रतिशत की तुलना में 2022 में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या लगभग 48.7 प्रतिशत तक पहुंच गई है. जबकि भारत में इंटरनेट की शुरुआत 15 अगस्त 1995 को विदेश संचार निगम लिमिटेड द्वारा की गई थी. 27 मार्च 2023 को संसद में शिक्षा मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़े के अनुसार भारत के तकरीबन 24 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में इंटरनेट की सुविधा है. विद्यार्थी जीवन में सोशल साइट्स- गूगल सर्च इंजन, एआई, यूट्यूब, टेलीग्राम, ट्विटर, जी-मेल, लर्निंग एप्प आदि ज्ञान को अति शीघ्र पहुंचाने का सशक्त और निःशुल्क साधन है. जहां विद्यार्थी सकारात्मक सामग्रियों को सर्च कर अपने पाठ्यगामी प्रक्रिया को संपन्न कर सकते हैं.

प्राइवेट स्कूल की तरह सरकारी स्कूल में भी इ-लर्निंग एवं डिजिटल सामग्रियों की व्यवस्था हो रही है. ब्लैकबोर्ड की जगह डिजिटल बोर्ड लग रही है. स्मार्ट क्लास में दृश्य-श्रव्य सामग्रियों से पाठ्यक्रम को आसान बनाया जा रहा है. गुरुजी, यूट्यूब व लर्निंग एप्प से पढ़ाकर स्मार्ट गुरु बन गए हैं. बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन और टैब होना आम बात हो गई है. कोरोना काल में इन विषय से संबंधित जानकारियों को प्राप्त करना तो सिखाया ही है, साथ ही उन्हें बेवक्त सोशल मीडिया पर घंटों रहने की आदत भी डाल दी है, जो आज बच्चों के लिए मानसिक रोग का कारण बनता जा रहा है. कोरोना के बाद अधिकांश बच्चों की आंखों पर चश्मे लग गए हैं. ऐसे में माता-पिता बच्चों में मोबाइल की लत को लेकर परेशान और चिंतित हैं.

स्कूल में अभिभाावक शिक्षक मीटिंग के दौरान अधिकांश अभिभावकों की शिकायत रहती है कि मेरा बच्चा पढ़ाई के बहाने सोशल मीडिया पर अधिक वक्त गुजारता है. जिसकी वजह से उसमें चिड़चिड़ापन, अनिद्रा और आंखों की समस्या उत्पन्न हो रही है. इस संबंध में डॉ परमेश्वर प्रसाद कहते हैं कि छोटी उम्र के बच्चों में स्मार्टफोन के अधिक इस्तेमाल से मानसिक रोग तथा ट्यूमर का खतरा अधिक रहता है. आंखों में जलन होना, सूखापन, थकान, अनिद्रा, चेहरे का शुष्क होना आदि आम बात है. स्मार्टफोन चलाते वक्त पलकें कम झपकाने से विजन सिंड्रोम जैसी समस्या पैदा होती है. स्मार्टफोन का दुष्परिणाम है कि बच्चे सामाजिक तौर पर विकसित नहीं हो पा रहे हैं. अन्य बच्चों के साथ सामूहिक गतिविधियां नहीं होने की वजह से उनके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो रहा है. मनोचिकित्सकों का मानना है कि ऐसे बच्चे कार्टून या गेम्स के कैरेक्टर को देखकर हूबहू घर में हरकतें करने लगते हैं. फलस्वरूप उनका बौद्धिक विकास प्रभावित होता है. फोन के चक्कर में खाना-पीना भूलकर घंटों उनका समय गेम्स और वीडियो में लगा रहता है. जिसकी वजह से बच्चों में आक्रामक शैली का विकास अधिक हो रहा है.

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी ब्लॉक अंतर्गत मानसाही नवादा गांव के उच्च विद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक परिमल कुमार कहते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र के छोटी उम्र के बच्चों में मोबाइल की लत ऐसी लग गई है कि बिना मोबाइल देखे वे भोजन तक नहीं करते हैं. गृहिणी की छोटी सी भूल इन बच्चों को मोबाइल का चस्का लगा दिया है. माताएं समय बचाने तथा बच्चों को इंगेज करने के लिए झट से मोबाइल थमा देती हैं. दुग्धपान करने वाले बच्चे रोने लगे तो घर वाले उसे मोबाइल पर कार्टून वीडियो स्टार्ट करके देखने के लिए दे देते हैं. यही आदत बाल्यावस्था से लेकर युवावस्था तक बच्चों को मानसिक अपंग बना रही है. परिमल कहते हैं कि अधिकांश बच्चे कार्टून, किड्स राइम्स, स्टोरी, गेम, रील्स, वेब सीरिज और सीरियल देखने के आदी हो रहे हैं. उसी स्कूल के खेल शिक्षक अंकुश कुमार कहते हैं कि बच्चे मोबाइल क्यों न देखें, जब घर के सभी सदस्य फुर्सत पाते ही मोबाइल से चिपक जाते हैं, तो स्वाभाविक रूप से बच्चे भी बड़ों को देखकर स्मार्टफोन के आदी हो जाएंगे. ऐसे में माता-पिता को भी बच्चों को पढ़ाने के लिए मोबाइल से कम किताब से अधिक प्रयास करना चाहिए.

स्मार्टफोन की लत केवल बच्चों में ही नहीं बल्कि बड़ों में भी लग गई है. एक ही कमरे में रहने वाले पति-पत्नी में बातचीत कम और स्मार्टफोन के स्क्रीन पर उंगलियां अधिक चलती हैं. स्मार्टफोन के जितने फायदे हैं, उतनी ही घर-परिवार के लोगों के प्रति संवेदनहीनता भी बढ़ रही है. पड़ोस में कोई घटना हो जाए तो लोगों को व्यक्तिगत जानकारी नहीं दी जाती बल्कि फेसबुक, इंस्टाग्राम के जरिए पता चलता है कि अमुक व्यक्ति की तबीयत खराब है या जन्मदिन मनाया जा रहा है. ऑनलाइन एजुकेशन का सदुपयोग बच्चे कम कर रहे हैं. माता-पिता से छुपकर फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप आदि सोशल साइट्स पर अवांछित व अश्लील सामग्रियां देखने व डालने में मशगूल हैं. जिसका प्रतिकूल असर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है. बच्चों का परिवार के साथ संवाद कम हो रही है. माता-पिता बच्चों को पढ़ने के लिए अवश्य कहते हैं और खुद सोशल साइट्स पर मग्न रहते हैं.

दरअसल, किशोरावस्था के बच्चों में मोबाइल फोबिया हो गई है. वे हरेक विषय की जानकारी के लिए स्मार्टफोन पर निर्भर होते जा रहे हैं. विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास से संबंधित सिद्धांत के बारे में दिमाग का इस्तेमाल कम और सर्च इंजन का इस्तेमाल अधिक करते हैं. फलस्वरूप स्मरण शक्ति क्षीण हो रही है. दूसरी ओर इमेजिंग करने के बजाय स्मार्टफोन पर निर्भर रहना बच्चों की बौद्धिक क्षमता को प्रभावित कर रहा है. यह बात जरूर है कि ग्रामीण या शहरी क्षेत्र के पढ़ने वाले बच्चे फोन का सदुपयोग करके प्रतियोगी परीक्षाओं की बेहतर तैयारी करके नौकरी भी प्राप्त कर रहे हैं. विद्यार्थी भी वांछित लक्ष्यों को प्राप्त कर रहे हैं. ऐसे में यह अधिक आवश्यक है कि माता-पिता फोन को समय तालिका बनाकर बच्चों के पठन-पाठन के लिए उपयोग कराएं, तो निश्चित रूप से बच्चों का ज्ञानवर्द्धन होगा. वरना छोटी सी लापरवाही बच्चों के भविष्य को अंधकार में धकेल सकती है. (चरखा फीचर)

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