बहुत से लोग कहते हैं, "मैं आत्मा को नहीं मानता." उनसे पूछा जाता है, कि "आप आत्मा को क्यों नहीं मानते?" वे उत्तर देते हैं कि "आत्मा आंखों से दिखाई नहीं देता, फिर कैसे मानें, कि आत्मा नाम की कोई चीज है?"
हम उनसे पूछते हैं, "क्या आपके सिर में बुद्धि है?" वे कहते हैं, कि "हां है।" हम पूछते हैं, "क्या आपने अपनी बुद्धि को आंखों से कभी देखा है?" वे कहते हैं, "नहीं देखा." हम कहते हैं, "जब आपके सिर में विद्यमान बुद्धि को आपने अपनी आंखों से कभी नहीं देखा, तो क्या इसका यह अर्थ माना जाए, कि आपके सिर में बुद्धि नहीं है?" ऐसा तो नहीं मान सकते। "जब बुद्धि को आंखों से देखे बिना माना जा सकता है, तो आत्मा को भी आंखों से देखे बिना माना जा सकता है।
फिर वे कहते हैं कि "बुद्धि आंखों से भले ही न दिखे, परन्तु प्रमाण से सिद्ध हो जाती है।" अर्थात "जिसका व्यवहार ठीक है, सामाजिक नियमों के अनुकूल है, तो यह माना जाता है, कि "उसमें बुद्धि है और ठीक भी है।" "जिसका व्यवहार सामाजिक नियमों के विरुद्ध होता है, उसके विषय में लोग ऐसा मानते और कहते हैं, कि "इसमें बुद्धि तो है, परंतु ठीक नहीं है, इसकी बुद्धि खराब है।" "क्योंकि वह जो व्यवहार करता है, उसमें कुछ तो बुद्धि का प्रयोग करता ही है। परन्तु बुद्धि का प्रयोग ग़लत होने से ऐसा कहते हैं, कि इसकी बुद्धि खराब है।"
तो हम कहते हैं, कि "जैसे व्यवहार रूपी इस प्रमाण से बुद्धि की सत्ता सिद्ध हो जाती है, भले ही वह आंखों से न दिखाई दे; ऐसे ही इच्छा द्वेष आदि गुणों के प्रमाण से आत्मा की सत्ता भी सिद्ध हो जाती है, भले ही वह भी आंखों से न दिखाई दे।"
वे कहते हैं कि "अच्छा तो आत्मा की सत्ता है", इस बात में क्या प्रमाण है? हम कहते हैं, इसमें यह प्रमाण है कि "क्या आपके अंदर अनेक प्रकार की इच्छाएं हैं? क्या कभी-कभी आप द्वेष भी कर लेते हैं? क्या आप सोचते हैं विचारते हैं? कुछ काम भी करते हैं? कुछ बोलते भी हैं? कभी सुखी होते हैं, कभी दुखी होते हैं, इत्यादि। ये सारे गुण आत्मा को सिद्ध करते हैं।" ये सब गुण आत्मा के हैं, शरीर के नहीं। यदि ये गुण शरीर के होते, तो शरीर जिन उपादान कारणों से बना है, उनमें भी ये गुण होने चाहिएं। क्योंकि इसमें नियम यह है, कि "जो गुण कारण द्रव्य में नहीं होता, वह कार्य द्रव्य में भी नहीं होता। जैसे हलवे के उपादान कारणों में चीनी नहीं होगी, तो हलवा मीठा नहीं बनेगा।"
"इसी प्रकार से यदि पृथ्वी जल आदि शरीर के उपादान कारणों में इच्छा द्वेष आदि गुण होते, तो उसके कार्य द्रव्य अर्थात शरीर में आते। परंतु पृथ्वी जल आदि पदार्थों में इच्छा द्वेष आदि गुण नहीं हैं, इसलिए शरीर में भी जो ये इच्छा द्वेष आदि गुण पाए जाते हैं, वे शरीर के नहीं हैं, बल्कि किसी अन्य पदार्थ के हैं। उसी का नाम शास्त्रों में आत्मा बताया गया है।"
जैसे आत्मा आंखों से न दिखते हुए भी अपने इच्छा द्वेष आदि गुण रूपी प्रमाण से सिद्ध होता है, ऐसे ही आंखों से न दिखते हुए, ईश्वर भी अपने गुण कर्मों रूपी प्रमाण से सिद्ध होता है। "सृष्टि को बनाना, इसका पालन करना, सबके कर्मों का फल देना इत्यादि ईश्वर के गुण कर्म हैं। यह ईश्वर की सत्ता का प्रमाण है।" इससे यह सिद्ध होता है कि "ईश्वर भी भले ही आंखों से न दिखाई दे, परन्तु आत्मा के समान ईश्वर की सत्ता भी है।"
"अतः वेदादि शास्त्रों को पढ़कर आत्मा और ईश्वर के गुण कर्मों को जानना चाहिए, एवं उनसे लाभ उठाना चाहिए।"
—- “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़ गुजरात।”