प्राचीन अभिलेखों में कान्हाशैल, कृष्णगिरी, कान्हागिरी के नाम से उल्लिखित कान्हेरी, मुम्बई के उत्तर में स्थित है। कान्हेरी सलसेत्ती द्वीप में स्थित है और थाणे से 6 मील की दूरी पर है। कई स्थानों पर इन पहाडियों की ऊंचाई औसत समुद्र तल से 1550’ है। कान्हेरी की ख्याति इस बात से है कि यहां एक ही पहाड़ी में सर्वाधिक संख्या में गुफाओं का उत्खनन हुआ है। इसके पश्चिम में बोरीविली रेलवे स्टेशन है और खाड़ी के पार अरब सागर है। कन्हेरी गुफ़ाएँ महाराष्ट्र के शहर मुंबई में कई पर्यटन स्थलों में से एक हैं। कन्हेरी गुफ़ाएँ मुंबई शहर के पश्चिमी क्षेत्र में बसे बोरीवली के उत्तर में स्थित हैं। ये गुफ़ाएँ संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान के परिसर में स्थित हैं और मुख्य उद्यान से 6 कि.मी. और बोरीवली स्टेशन से 7 कि.मी. दूर हैं।
पश्चिम रेलवे के बोरीवली स्टेशन से एक मील पर कृष्णगिरि पहाड़ी में तीन प्राचीन गुहा मंदिर है, जिनका सम्बंध शिवोपासना से जान पड़ता है। एक गुफ़ा में अनेक मूर्तियाँ आज भी देखी जा सकती हैं। बोरीवली स्टेशन से पांच मील पर कन्हेरी है, जो कृष्णगिरि पहाड़ी का एक भाग है। ‘कन्हेरी’ शब्द कृष्णगिरि का अपभ्रंश है। यहां 9वीं शताब्दी की बनी हुई लगभग 109 गुफ़ाएं हैं। एक है जो काली के चैत्य के अनुरूप बनाई गई है। इस चैत्यशाला में बौद्ध महायान सम्प्रदाय की सुंदर मूर्तिकारी है। गुफ़ा की भित्तियों पर अजंता के समान ही चित्रकारी भी थी, जो अब प्रायः नष्ट हो चुकी है।
कान्हेरी इसलिए फूला-फला क्योंकि यह सोपारा (सुरपरक, द सुपारा आफ ग्रीक; अरबी लेखकों का सुबारा; उत्तरी कोंकण की प्राचीन राजधानी) एक विकसित पत्तन- कल्याण, चेमुला, ग्रीक भूगोलविदों का सामिल्ला, ट्राम्बे के द्वीप पर शिलाहारों का चेमुला जैसे प्राचीन समुद्री पत्तन शहरों के निकट था; वस्य, शायद वसाई अथवा बस्सीन, श्री स्तानर अथवा थाणा, घोड़ाबंदर जैसी अन्य नजदीकी प्राचीन बसावटें थी। प्राय: ऐसा विश्वास किया जाता है कि बौद्ध धर्म सर्वप्रथम सोपार स्थित अपरंथ (पश्चिमी भारत) में आया जो कान्हेरी के अत्यंत निकट है। इन गुफाओं का उत्खनन तीसरी शताब्दी ई.पू. के मध्य में किया गया था और ये 11 वीं शताब्दी ईसवी तक इस्तेमाल में रहीं। इनका उल्लेख 16 वीं शताब्दी में पुर्तगालियों जैसे आंरभिक आगंतुकों तथा यूरोप के अन्य यात्रियों और समुद्री यात्रियों द्वारा किया गया।
यहां पाए गए अनगिनत संदाता अभिलेखों में प्राचीन नगरों जैसे सुपारक (सोपारा), नासिका (नासिक), चेमुली (चेमुला); कल्याण (कल्याण), धेनुकाकट (धान्यकटक, आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में आधुनिक अमरावती) का उल्लेख मिलता है। संदाताओं में राजपरिवारों के सदस्यों से लेकर आम आदमी तक समाज के सभी वर्गो के व्यक्ति शामिल थे। अभिलेखों में वर्णित प्रतिष्ठित राजपरिवारों में गौतमीपुत्र सातकर्णी (लगभग 106-130 ई.); वसिष्ठीपुत्र श्री पुलुमावी (लगभग 130 से 158 ई.) श्री यज्ञ सातकर्णी (लगभग 172 से 201 ई.); मधारीपुत्र शकसेना (लगभग तीसरी शताब्दी ई. के अंत में); सातवाहन राजवंश के शासक जिनकी प्राचीन राजधानी प्रतिष्ठान थी (आधुनिक पैठन, जिला औरंगाबाद); राष्ट्रकूट राजवंश के अमोघवर्ष जिसका काल 853 ई. था, आदि शामिल हैं।
कान्हेरी में हुए उत्खनन इस प्रकार के हैं :- (i) चैत्यगृह, बौद्ध समुदाय का पूजा स्थल (ii) विहार या बौद्ध विहार- इनमें एक या अनेक प्रकोष्ठ होते हैं जहां बौद्ध भिक्षु रहा करते थे। (iii) पौड़ियां अथवा जल कुंड, जिनका उत्खनन वर्षा जल संचयन के लिए बुद्धिमत्तापूर्वक किया गया था ताकि इस जल को ग्रीष्म काल के दौरान प्रयोग में लाया जा सके और (iv) चट्टानों को काटकर बनाई गई बेंचे और आसान।
कान्हेरी में चट्टान काट कर बनाई गई गुफाओं के उत्खनन का आंरभ संयोगवश अपरंथ में बौद्ध धर्म के आगमन से जुड़ा हुआ है। ये गुफाएं आम तौर पर छोटी हैं और इनमें एक प्रकोष्ठ है जिसमें आगे की ओर स्तंभ युक्त बरामदा है जिस तक सीढ़ीयों का मार्ग जाता है। इन गुफाओं में जल संचयन के लिए निरपवाद रूप से एक जलकुंड है। आंरभिक उत्खनन बहुत छोटे और सीधे-सादे थे। उनमें कोई आलंकारिक तत्व नहीं थे। स्तंभ सपाट वर्गाकार या अष्टकोणीय थे और इनमें आधार फ़लक नहीं हैं जिनका प्रचलन बाद में शुरु हुआ। कान्हेरी में जो सर्वाधिक विशिष्ट उत्खनन हुआ, वह गुफा संख्या-3 का उत्खनन है जो कि एक चैत्यगृह है जिसका उत्खनन यज्ञ सातकर्णी (लगभग) 172 से 201 ई.) के शासन काल के दौरान किया गया था। यह चैत्यगृह भारत के सबसे बड़े चैत्यागृहों में से एक है। इससे बड़ा चैत्यगृह केवल करला का है जो पुणे जिले में है। यह चैत्यगृह करला के चैत्यगृह से बहुत अधिक मेल खाता है। निर्माण योजना की दृष्टि से इसमें एक आयताकार हॉल है जो गजपृष्ठीय है। एक बरामदा है और आगे की ओर एक खुला प्रांगण है। हॉल की लंबाई 26.36 मीटर, चौड़ाई 13.6 मीटर और ऊंचाई 12.9 मीटर है। 24 स्तंभों की एक पंक्ति हॉल को एक केंद्रीय मध्य भाग और पार्श्व गलियारों में विभक्त करती है। मध्य भाग की छत ढ़ोलाकार महराबी है जबकि गलियारे सपाट हैं। मध्य भाग की मेहराबी छत में काष्ठ की कड़ियों के प्रावधान के प्रमाण हैं जो अब प्रचलन में नहीं है। हॉल के स्तंभ एक जैसे नहीं हैं और विभिन्न शैलियों और आकारों के हैं और इनमें एक रूपता नहीं है। हॉल के अर्धवृत्तकक्ष में एक स्तूप निर्मित है जिसका व्यास 4.9 मीटर और ऊंचाई 6.7 मीटर है। हॉल का अग्रभाग दो बंधनों के दो समूहों के साथ तीन द्वारों द्वारा वेधित है। प्रत्येक समूह को द्वारों के बीच आयताकार आलों में तराशा गया है। अलंकरण रहित एक विशाल चैत्य खिड़की प्रकाश की व्यवस्था के लिए बनाई गई थी। पार्श्वभित्तियों पर वरद मुद्रा में खड़े बुद्ध की दो विशाल प्रतिमाओं तथा अन्य बोधिसत्व प्रतिमाओं को बारीकी से उकेरा गया है। ये मूर्तियां बाद में जोड़ी गई हैं और इनका काल लगभग पांचवीं से छठी शताब्दी ई. है।
कान्हेरी में दूसरी शताब्दी ई. में चट्टानों को काट-छांट कर 90 गुफाओं का निर्माण किया गया। कन्हेरी चैत्यगृह की बनावट कार्ले के चैत्यगृह से मिलती है। कन्हेरी के चैत्यगृह के प्रवेश द्वार के सामने एक आंगन है जो अन्य किसी चैत्यगृह में नहीं मिलता। कन्हेरी गुफ़ाएँ बौद्ध कला दर्शाती हैं। कन्हेरी शब्द कृष्णागिरी यानी काला पर्वत से निकला है। इनको बड़े बड़े बेसाल्ट की चट्टानों से बनाया गया हैा।
कन्हेरी की गुफ़ाओं के समूह को भारत में विशालतम माना जाता है। कन्हेरी की गुफ़ाओं में एक ही पहाड़ को तराश कर लगभग 109 गुफ़ाओं का निर्माण किया गया है। यह बौद्ध धर्म की शिक्षा हीनयान तथा महायान का एक बड़ा केंद्र रहा है। पश्चिम भारत में सर्वप्रथम बौद्ध धर्म सोपारा में ही पल्लवित हुआ था जो कभी उत्तर कोंकण की राजधानी रही थी। उसी समय से कन्हेरी को जो सोपारा के क़रीब ही है, धार्मिक शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। इस अध्ययन केंद्र का प्रयोग बौद्ध धर्म के उत्थान एवं पतन में निरंतर 11वीं सदी तक किया जाता रहा है।
कन्हेरी की गुफ़ाओं के प्रारंभिक निर्माण को तीसरी सदी ईसा पूर्व का माना जाता है और अंतिम चरण के निर्माण को 9वीं सदी का माना जाता है। प्रारम्भिक चरण हीनयान सम्प्रदाय का रहा जो आडम्बर विहीन है। सीधे सादे कक्ष, गुफ़ाओं में प्रतिमाओं को भी नहीं उकेरा गया है। दूसरी तरफ अलंकरण युक्त गुफ़ाएँ महायान सम्प्रदाय की मानी जाती हैं।
चैत्यगृह के निकट कभी दो संरचनात्मक स्तूप हुआ करते थे। एक स्तूप पत्थर का था जिसमें तांबे के दो कलश मिले थे जिनमें राख थी। एक छोटा सोने का बॉक्स है जिसमें कपड़े का एक टुकड़ा, एक चांदी का बॉक्स, एक माणिक, एक मोती, सोने के कुछ टुकड़े, तांबे की दो प्लेटें थी जिनमें से एक सन् 324 की थी। दूसरा स्तूप ईंटों का बना था जिसमें से एक उत्कीर्णित पत्थर मिला जिसकी लिपि पाँचवीं से छठी शताब्दी ई. की है।
गुफा संख्या-1 एक अधूरा निर्मित चैत्यगृह है जिसमें मूल रूप से एक स्तंभ युक्त हॉल के अलावा, दो मंजिला बरामदा और एक द्वारमंडप बनाने की योजना थी। यह गुफा पांचवीं से छठी शताब्दी की है क्योंकि संपीडित कुशन या अमलक शीर्ष वाले स्तंभ आम तौर पर उसी अवधि के प्रतीत होते हैं।
दरबार हॉल’ के नाम से ज्ञात गुफा संख्या-11 में सामने की ओर बरामदे सहित एक विशाल हॉल है। इस हॉल की पृष्ठभित्ति में मंदिर है और दोनों ओर प्रकोष्ठ हैं। हॉल का फर्श, दो पत्थर की कम ऊंची बेंचे एलोरा की गुफा सं. 5 से मेल खाती हैं। बुद्ध की धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा मंदिर के सौंदर्य को चार चांद लगा देती है। गुफा में विभिन्न कालों के 4 अभिलेख हैं- एक शक 775 (सन् 853) का है जो राष्ट्रकूट वंश के राजा अमोघवर्ष और उसके सामंत शिलाहार राजकुमार, कपार्दिन के शासन काल का है। इस अभिलेख में पुस्तकों की खरीद और क्षतियों की मरम्मत के लिए उपलब्ध कराए गए विभिन्न उपहारों और निधियों के दान को लेखबद्ध किया गया है।
यहां की अद्भुत् मूर्ति कला दर्शनीय़ है। बुद्ध की छवि या मुद्रा या तो खड़े हुए रूप में है या बैठे हुए रूप में। बैठी हुई मुद्रा की मूर्तियों में कुछ मामलों में बोधिसत्व भी उनकी बगल में बैठे हुए हैं और बहुत ही विरले मामलों में उनके संगी- साथी भी उनके साथ आसीन हैं। यहां बुद्ध के अलावा अवलोकितेश्वर की मूर्ति भी विद्यमान है और जिसे यहां महत्व प्राप्त है। (अवलोकितेश्वर ने सभी प्राणियों की मुक्ति तक बुद्धत्व प्राप्त करने से इन्कार कर दिया था)। अवलोकितेश्वर की मूर्ति प्रमुख रूप से गुफा संख्या 2, 41 और 90 में देखी जा सकती है जिनमें वे आठ बड़े संकटों अर्थात् पोतभंग, अग्निकांड, जंगली हाथी, शेर, सांप, चोर, कारावास, दानव से अपने भक्तों को बचने के लिए उपदेश दे रहे हैं। अवलोकितेश्वर की एक अन्य रोचक मूर्ति गुफा संख्या 41 में पाई गई है जिसकी चार भुजाएं और ग्यारह मुख हैं। यह अपनी किस्म की भारत में एकमात्र मूर्ति है। इस रूप की उपासना चीन, चीनी तुर्कीस्तान, कम्बोडिया और जापान में 7वीं – 8वीं सदी में लोकप्रिय थी। जातक कथाएं भी चित्रित पाई जाती हैं। उदाहरण के लिए गुफा सं. 67 में दीपांकर जातक की कथाएं हैं। यहां पत्थर निर्मित और ईंट निर्मित संरचनात्मक स्तूप, प्रतिष्ठित संन्यासियों के जले हुए अवशेषों पर निर्मित भी पाए गए हैं।
इस महान कलाकृतियों एवम् सांस्कृतिक धरोहरों से सजे दर्शनीय़ स्थल को हमें अवश्य़ ही देखना चाहिए।
प्रस्तुति,
पंडित नागेश चन्द्र शर्मा
स्थानीय सम्पादक – महाराष्ट्र