विजयदशमी का पर्व और भारत के आंतरिक आतंकवादी संगठन
पहले ही स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यह पोस्ट उन लोगों के लिये नहीं है जो जीवन के सुख त्याग कर जंगलों में कन्द-मूल-फल खा कर तपस्या कर रहे हैं, जिन्होंने परद्रव्य को लोष्ठवत समझा, जिन्होंने जीवन में कभी रैड लाइट जम्प नहीं की, जो पूरी ईमानदारी से टैक्स भरते हैं, जो अपने बाथरूम में भी बाँयें चलते हैं, जो उड़द की दाल नहीं खाते { रागदरबारी उपन्यास में श्री लाल शुक्ल जी के एक व्यापारी पात्र के अनुसार, उड़द की दाल बादी करती है। उसे खा कर ग़ुस्सा आता है और ग़ुस्सा तो हाकिमों को छजता है, हम व्यापारी लोग…….}
इस अकिंचन का सदैव से आग्रह रहा है कि हमें अपने सभी धार्मिक पर्व मनाने चाहिए और विजयदशमी उनमें से प्रमुख है। समस्या यह है कि 1860 में ही उत्तर भारत के ख़ासे बड़े भाग के दुष्ट राज्यकर्ता अंग्रेज़ों ने शस्त्र क़ानून बना कर शस्त्र रखना वर्जित कर दिया। 9″ से बड़े धारदार शस्त्र, धनुष बाण, आग्नेयास्त्र सब कुछ वर्जित कर दिये गए। आग्नेयास्त्र रखने के लिये लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया। राजाओं से युद्ध के उपरांत उन्होंने जो सन्धियाँ कीं उनमें राजाओं के सैनिकों की सँख्या सीमित की। तोपों, बंदूक़ों की संख्या कम की, उनके शस्त्रागार के कठोर नियम बनाये। अंग्रेजों के ऐसा करने का आख़िर कोई तो कारण होगा ?
आग्नेयास्त्र का लाइसेंस अंग्रेज़ प्रशासकों की दृष्टि में उपयुक्त अर्थात उनके पक्षधर लोगों को ही मिलता था। कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में इसके विरोध में प्रस्ताव भी पारित किया था मगर कांग्रेस ने भी विभाजन के बाद कटे-फटे शेष बचे भारत में इसी परम्परा का पालन किया।
वस्तुस्थिति यह है कि 1947 के बाद देश ने नक्सलवाद झेला। पंजाब का उग्रवाद झेला। माओवादी आतंकवाद अभी भी चल रहा है। इस्लामी आतंकवाद रुकने में नहीं आ रहा। कांग्रेस ने करोड़ों बांग्लादेशी उपद्रवी भारत में बसा दिए। हत्यारे रोहिंग्या भी लाखों की संख्या में भारत में घुस गए हैं। कश्मीर से हमें भगाने की दुखद स्मृति को 32 वर्ष होने को ही नहीं आ रहे हैं बल्कि देश में जगह-जगह कश्मीर उभरते आ रहे हैं। हमारी सीमाएँ असुरक्षित हो चली हैं। आंतरिक-बाह्य दोनों प्रकार का संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसे में हम यानी इस देश के मूल राष्ट्र शासन का मुँह देखते रहने के अतिरिक्त क्या करें ? थानों के भरोसे सुरक्षा छोड़ दी गयी है। थाने सुरक्षा में कितने सक्षम हैं यह बताने की आवश्यकता है क्या ?
हम अर्थात राष्ट्र के घटक सेना, पुलिस के बाद राष्ट्र की सुरक्षा की तीसरी पंक्ति बन सकते हैं मगर ख़ाली हाथ सुरक्षा कैसे हो ? यहाँ यह ध्यान दिलाना उचित होगा कि हमें आत्मरक्षा में शत्रु के प्राण लेने का क़ानूनन अधिकार है मगर आतताई के प्राण कैसे लिए जायें ? आख़िर किसी संकट के समय नाख़ूनों से तो किसी का पेट फाड़ा नहीं जा सकता। दाँतों से आक्रमणकारियों, उपद्रवियों को धमकाया नहीं जा सकता। पौरुष की अभिव्यक्ति सदैव शस्त्रों से होती है और शस्त्र हमारे पास नहीं हैं।
शस्त्र क़ानून प्रदेश सरकार का क्षेत्र है और लाइसेंस वही या उसके संकेत पर जिला मजिस्ट्रेट देंगे तो अनिवार्य बात यह कि 2024 के चुनाव से पहले अपने संभावित MLA, MP को दबोचिये कि हमें लाइसेंस दिलवाइये। चुनाव की घोषणा के बाद लाइसेंस नहीं बनेंगे अतः उससे पहले ही दबाव बनाया जा सकता है। उन लोगों के प्राण पी जाइये। उनकी हर सार्वजनिक उपस्थिति पर सबसे पहला सवाल यह रखिये कि हमारे लाइसेंस बनवाइए। उन्हें लगना चाहिए कि चुनाव से पहले अपने क्षेत्र में 20 हज़ार लाइसेंस नहीं बनवाये तो 60 हज़ार वोट नहीं मिलेंगे। खाट खड़ी हो जाएगी।
हर व्यक्ति लाइसेंस ख़रीदने में सक्षम नहीं हो सकता मगर संकट सभी पर आ सकता है तो वो क्या करे ? आपने नगरों, गाँवों में निकलते-बढ़ते हुए गाड़िया लोहार देखे होंगे। यह मारवाड़, चित्तौड़ इत्यादि पर इस्लामी आक्रमण के समय निकले हुए लोग हैं जिनका काम लोहे से विभिन्न प्रकार की खेती की चीज़ें बनाना है। इसके अतिरिक्त सिकलीगर लोग यह कार्य करते हैं। उन्हें पकड़िए और उनसे कांते, तलवार, त्रिशूल, कुल्हाड़ी, भाले आदि बनवाइये। शस्त्र बनवाते समय ध्यान रखियेगा कि यह धार सहित होने चाहिये। गलियों में चाक़ू-छुरियों पर धार लगाने वाले तलवार पर धार नहीं लगा सकते। तलवार पर धार लगाना कला है और अब राजस्थान के अतिरिक्त अच्छी तलवार बनाने वाले, उस पर धार लगाने वाले समाप्तप्राय हैं। अच्छा तो यही होगा कि राजस्थान के किसी मित्र के ज़िम्मे धारदार तलवार दिलवाने का काम सौंप दिया जाये।
इसके अतिरिक्त गुरुद्वारों में तलवारें मिल जाती हैं मगर वो सामान्यतः टीन की बनी हुई, बेकार होती हैं। बड़े नगरों के गुरुद्वारों में मिलने वाली एक तलवार सर्वलौह कहलाती है। यह अधिक मुड़ी हुई होती है मगर इनमें भी धार की समस्या आयेगी। कोई भी विक्रेता धार लगा कर तलवार नहीं बेचता। यदि आपको वह मिल जाये तो विक्रेता से धार लगी हुई ही माँगिये। यह 12-13 सौ की मिल जानी चाहिए। शेष विक्रेता पर निर्भर करेगा। वैसे राजस्थान के सिवा मेरी जानकारी में कोई उपाय नहीं है। शस्त्र सदैव धार लगा हुआ, आवश्यकता पड़ने पर तुरंत उपयोग के लिये तैयार होना ही चाहिए।
मेरी भृकुटि यदि तन जाये तीसरा नेत्र मैं शंकर का
ब्रह्माण्ड कांपता है जिससे वह तांडव हूँ प्रलयंकर का
मैं रक्तबीज शिरउच्छेदक काली की मुंडमाल हूँ मैं
मैं इंद्रदेव का तीक्ष्ण वज्र चंडी की खड्ग कराल हूँ मैं
मैं चक्र सुदर्शन कान्हा का मैं कालक्रोध कल्याणी का
महिषासुर के समरांगण में मैं अट्टहास रुद्राणी का
मैं भैरव का भीषण स्वभाव मैं वीरभद्र की क्रोध ज्वाल
असुरों को जीवित निगल गया मैं वह काली का अंतराल
देवों की श्वांसों से गूंजा करता है निश-दिन वह हूँ जय
हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय
यह मेरी ही एक पुरानी कविता की पंक्तियाँ हैं। रौद्र रस से ओतप्रोत इस गीत को यदि आप देखेंगे तो यह छंद शस्त्रधारियों के पौरुष का मूर्त स्वरूप है। यह सभी इसी लिए पौरुष प्रकट कर पाए कि शस्त्रधारी थे। अतः समझिये कि यही शस्त्र भगवान महाकाल हैं। यही भगवती जगदम्बा हैं। यही यज्ञ की लपलपाती ज्वालायें हैं। यही शांति, अहिंसा, तप, त्याग, वैराग्य के पथ पर चलने का वातावरण बनाते हैं। इन्हीं की छत्रछाया में व्यापार, सेवा का मुक्त वातावरण उपलब्ध होता है। इन्हीं के पूजन-अर्चन-साधना-प्रयोग से सब सुख उपलब्ध होते हैं।
आप सबसे आग्रह करूँगा कि विजयादशमी पर अनिवार्य रूप से शस्त्र पूजन कीजिये। इस बार पूजन अपने निजी शस्त्र का ही करने का संकल्प लीजिये और सभी मित्र-बंधुओं को प्रेरित भी कीजिये। इस बार आग्रहपूर्वक परिवार के सभी सदस्य अपने निजी शस्त्र का पूजन करें अर्थात 5 सदस्यों का परिवार है तो सभी अपने-अपने शस्त्रों यानी 5 शस्त्रों का पूजन होना चाहिए। शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चिन्ताम् प्रवर्तते
तुफ़ैल चतुर्वेदी Tufail Chaturvedi
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