सारी बुराईयों का मार्ग – ‘वर्तमान शिक्षा’
विद्यार्थी सत्यपाल आर्य
आर्ष गुरुकुल टटेसर जोन्ती – दिल्ली- 41
स्त्रोत – समाज संदेश जुलाई 1974
यह दुःख का विषय है कि हमारा आजका विद्य जीवन बड़ा ही विकृत और अस्वस्थ रूप लिए है । आज विद्यार्थियों को जो शिक्षा प्रदान की जाती है. वह कोरे पुस्तक ज्ञान तक सीमित रहती है। ज्ञान का सच्चा आलोक उन्हें नहीं मिलता। पुस्तकों के सफेद पन्नों पर विद्यार्थियों की प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है। प्रकृति के मुक्त वायु मण्डल से वंचित विद्यार्थीगण कक्षा के सीमित क्षेत्र में बन्द होकर पुस्तकों के अक्षरों पर अपने मस्तिष्क का अपव्यय करते हैं ।
मैं स्वयं एक विद्यार्थी हूं, मुझे यह अनुभव गुरुकुल ‘टेटसर’ में रह कर कुछ उत्तम पुस्तकों का स्वाध्याय करने से हुआ है। वास्तव में विद्वानों के सम्पर्क में आने से व्यक्ति पर अनेक विचारों का अवश्य ही प्रभाव होता है । सर्व प्रथम मुझे स्वामी रतनदेव जी ( कुलपति गुरुकुल कुम्भा खेड़ा) का सहारा मिला था। उस समय उन्होंने संन्यास नहीं लिया था, बल्कि आर्य विद्यालय निडाना ( जींद) में मास्टर रतनसिंह जी के नाम से अध्यापक थे। उस समय उनके विचार इतने उत्तम एवं आदर्श थे कि मैं वर्णन नहीं कर सकता, उन्होंने शादी न करने की प्रतिज्ञा की थी। अध्यापक जीवन में ही सर्व त्यागी होकर समाज सेवक बन ‘संन्यास’ ग्रहण कर आज अनेकों छात्रों का चरित्र निर्माण कर रहे हैं। स्वामी इन्द्रवेश जी ( वर्तमान प्रधान ‘आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब’) 25-8-1973 ‘शनिवार’ को सायं जीप द्वारा गुरुकुल में आये कुछ ही क्षण ठहर कर ब्रह्मचारियों को आशीर्वाद दिया तथा मेरा कुछ परिचय लेते हुए पुनः जीप में जाने के लिए सवार हो गए। उनकी वाणी से मैं बड़ा ही प्रभावित हुआ और सोचा कि कॉलिज की शिक्षा और गुरुकुल की शिक्षा में महान् अन्तर है। 9-2-74 को ग्रेटर कैलाश में स्वामी अग्निवेश जी के मीठे वचन सुने, बड़ा ही आकर्षण था उन शब्दों में। 16-3-74 को आर्य समाज नरेला के उत्सव पर पूज्य स्वामी ओमानन्द के प्रभावशाली शब्द गूंज रहे थे। कहां तक वर्णन करू आर्य विद्वानों का और उनकी आदर्श शिक्षा का ।
यह वह अध्यात्मिक शिक्षा है जिसकी तरफ एक कॉलिज के रंग में रंगीन छात्र बलात् आकर्षित हो जाता है- उदाहरण के लिए स्वयं ‘मैं’। इसके विपरीत स्कूल कॉलिजों में प्रचलित वर्तमान शिक्षा पद्धति में धार्मिक शिक्षा का नितान्त अभाव है।
धर्म-प्रारण भारत में धार्मिक शिक्षा के प्रभाव से अनेक दुष्प्रवृत्तियां प्रविष्ट हो गई हैं। अनैतिकता बढ़ रही है। शुभाशुभ कर्म का कोई विचार नहीं है। देश की सभ्यता और संस्कृति अपना अस्तित्व खो रही है। जिस आर्य जाति के अन्दर यथार्थ दृष्टा का लक्षण “मातृवत् परदारेषु पर द्रव्येषु लोष्ठवत् । आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः ।। ” आज उस आर्य जाति को चरित्रहीनता के काले धब्बे इतना कलंकित कर चुके हैं जो कि पृथक् होने असम्भव हो गए हैं। जिस मातृ-भूमि को सुजलाम् सुफलाम् शस्यश्यामला कहा जाता था, आज वह दाने-दाने को भिखारिन क्यों बनी हुई है ? ऋषि मुनियों का यह देश जहां के वनों में सदा वेद मन्त्रों की मधुर गुजार सुनाई पड़ती थी और सर्वत्र शांति का साम्राज्य था, आज उसी आर्यवर्त के अन्दर अत्याचार तथा भ्रष्टाचार का बोलबाला है। धर्म को गिराया जा रहा है मानवता खुले बाजार में दिन दहाड़े बिक रही है । दानवता खुलकर नृत्य कर रही है। जिधर भी नजर दौड़ाते हैं उधर ही अशांति का साम्राज्य दृष्टि गोचर आता है। इन सब का मूल कारण वर्तमान शिक्षा प्रणाली है जो राष्ट्र समाज तथा मनुष्यों को घुण की तरह खाए जा रही है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के 26 वर्ष पश्चात् भी शिक्षा के इस रोग का इलाज नहीं हो पाया है। एक चालाक अंग्रेज के मस्तिष्क की उपज आज भी स्कूल एवं कॉलिजों में पूर्व की भांति चल रही है। इस शिक्षा प्रणाली के दुष्परिणाम आज हम अपनी आंखों से देख रहे हैं। यूनिवर्सिटियाँ जलाई जा रही हैं, देश की सम्पत्ति फूंकी जा रही है। प्रिंसीपल, प्रोफैसर और अध्यापक गुरुजनों की उन्हीं के शिष्य पिटाई करते हैं। उनका घेराव करते हैं। पुलिस के साथ मार-पीट, गलत नारे तथा हड़ताल एवं बसों का अपहरण तो प्रतिदिन का क्रम बन रहा है ।
महर्षि दयानन्द सरस्वती के वचन वास्तव में खरे उतर रहे हैं जो कि उन्होंने अपने पवित्र ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखे हैं अर्थात् “जब तक मनुष्य धार्मिक रहते हैं, तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैं, तब ( राज्य ) नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। आज राज्य के नष्ट-भ्रष्ट होने में कोई कसर नहीं है क्योंकि देश में सर्वत्र हाहाकार की ध्वनि सुनाई पड़ रही है। यह थोड़ी बहुत कृपा है, तो उन आर्य विद्वानों की जो आरम्भ से ही इस राष्ट्र की रक्षा के लिए तन, मन, धन से अग्रसर रहते हैं।
हमारे राष्ट्रीय नेता अपने भाषण में कहा करते हैं कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन होना चाहिए। सरकार स्वयं भी यही कहती है कि आधुनिक शिक्षा पद्धति से देश का हित असम्भव है, इसे बदलना चाहिए। स्टेज पर खड़े होकर अपने शब्दों को केवल आकाश में गुजाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। केवल परिवर्तन होना चाहिए, परन्तु कैसे ? इस ‘कैसे’ पर विचार नहीं किया जाता। ‘कैसे’ पर विचार करने वाले हैं, तो वे हैं आर्य विद्वान् ।
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