- सुरेश सिंह बैस ‘शाश्वत’
आज पृथ्वी पर मनुष्य नामक जीव ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है। इसीलिये अब मनुष्य यह भूल बैठा है , कि पृथ्वी में अन्य जीव जंतुओं को भी रहने का उतना ही अधिकार है जितना मनुष्य को। मनुष्य और वन्यप्राणी एक सिक्के के दो पहलू हैं। सृष्टि के प्रारंभ से वे एक दूसरे के पूरक रहे हैं। हमारे पौराणिक ऐतिहासिक ग्रंथो में यदाकदा मानव और वन्य प्राणियों के प्रगाढ़ संबंधों के प्रमाण मिल जाते हैं। वस्तुतः मनुष्य जीवजगत और वनस्पति एक दूसरे के पूरक भी हैं। इनके हितों में कोई टकराव नहीं है। किन्तु मानव जैसे-जैसे सभ्य होता गया, वह सह-विकास, सहसृजनात्मकता और सहयोग की भावनाओं को नजर अंदाज कर उनकी जान का दुश्मन बन गया, वह उन्हें मनोरंजन, शानो-शौकत और धन जोड़ने का साधन समझने लगा! परिणामस्वरुप वन्यप्राणियों की खालें और उनसे बनने वाली अन्य वस्तुयें सजावट के काम आने लगीं। वन्यजीव विनाश का बाजार गर्म हो गया! वन्य प्राणियों की संख्या न्यून होते लगी और उनका जीवन ही नहीं अब तो उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है! हमारे देश में जीवन संरक्षण की परंपरा बहुत पुराना है, धर्म कला आदि सभी में जीवनधारियों. का समान महत्व दिया गया है। भारतीय संस्कृति तथा दर्शन में तो मानव सहित अन्य जीवधारियों को प्रकृति की सृजन योजना का अभिन्न अंग माना गया है! आदिकाल में शिकार जोखिम और बहादुरी का प्रतीक था, तो मध्यकाल में यह शान-शौकत का काम समझा जाने लगा तथा आजकल तो यह व्यवसाय में बदल गया है। यह एक सुखद अनुभव है कि अब पूरी दुनिया के अधिकांश लोग वन्यप्राणी संरक्षण की जरूरत महसूस करने लगे हैं। यह एक शुभ लक्षण है। प्रदेश में वन्व प्राणियों के संरक्षण की दिशा में प्रभावी कदम उठाये गये हैं। प्रदेश में शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध है। प्रदेश में राष्ट्रीय उद्यान तथा अभ्यारणों में प्राकृतिक रहवास, संरक्षण तथा विकास के साथ-साथ वैज्ञानिक रुप से सफलतापूर्वक वन्यप्राणियों का प्रबंध किया जा रहा है। इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान केन्द्रीय सहायता प्राप्त प्रोजेक्ट टाइगर के अंतर्गत प्रबंधित है। अभ्यारणों में बसे ग्रामीणों के समग्र विकास के लिए भी विकास योजनाएं चलाई जा रही हैं। वन्यप्राणी संरक्षण की समूची योजना को जनता से जोड़ने, पारस्परिक समझ और सहयोग के मुद्दे को व्यवहारिक ढंग से जनता तक प्रचारित किया जा रहा है। प्रदेश में वन्य प्राणियों के संरक्षण एवं विकास के फलस्वरुप इनकी संख्या में वृद्धि हुई है। इन वनों में विकास कार्यक्रमों के अंतर्गत वन्य प्राणियों के लिये समुचित पानी, चराई, नियंत्रण एवं सहान गश्त के माध्यम से वन्य प्राणियों के. रिहायशी स्थानों को सुरक्षित रखकर बन अपराधों पर नियंत्रण रखा जा रहा है! अभ्यारणों एवं राष्ट्रीय उद्यानों में स्थित अथवा उनके सीमावतीं ग्रामों का पर्यावरणीय विकास भी किया जा रहा है! वन्य प्राणियों से जो जनहानि अथवा पशुहानि होती है, उसकी क्षतिपूर्ति शासन द्वारा की जाती है! हिंसक वन्य प्राणियों के द्वारा व्यक्ति के घायल होने की स्थिति में क्षतिपूर्ति की राशि अधिकतम पांच हजार प्रतिव्यक्ति देने का प्रावधान है। इसी प्रकार हिंसक वन्य प्राणियों द्वारा मारे गये व्यक्तियों के परिवार को क्षतिपूर्ति की राशि दस हजार रुपये प्रति व्यक्ति देने का प्रावधान है।
भारत सरकार ने वन्य प्राणियों के अस्तित्व की अनिवार्यता को महसूस कर उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से वर्ष 1971 में पूरे राष्ट्र में शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लागू कर प्रभावी कदम उठाया. राज्य सरकारों ने वर्ष 1974 में वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम बनाकर उन्हें प्राकृतिक वातावरण में स्वछंद रहने के लिये उनकी संख्या में वृद्धि करने के लिये राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभ्यारणों की स्थापना की! इस दिशा में निरंतर प्रयासों के परिणाम स्वरुप अब राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों की संख्या पर्याप्त बढ़ चुकी है। प्रदेश में राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण स्थापित करने के लिये उन क्षेत्रों का चयन किया गया है, जो वन्य प्राणियों के लिये उपयुक्त है अथवा जहां लुप्त हो रही वन्य प्रजातियां थी!वन्य प्राणियों के संरक्षण का एकमात्र तरीका संबंधित वन क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान अथवा अभ्यारण के अंतर्गत लाकर वहां उन्हें पूरी सुरक्षा प्रदान करता है। इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभ्यारणों की स्थापना की गई है। प्रदेश का इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान, बारह सिंघा की दक्षिणी नस्ल का आखिरी आश्रयस्थल है! ‘वह दिन प्रदेश के लिये अत्यंत अशुभ दिन होगा जब वहां के सुंदर सघन साल वनों में हरिण परिवार के शानदार सदस्य बारह सिंघे की आवाज गूंजना बंद हो जायेगी।’ इस सदी के प्रारंभ में जब प्रसिद्ध प्रकृतिविद् मिस्टर ब्रांडर ने यह आशंका व्यक्त की थी तब उन्हें क्या मालूम था कि वे भविष्यवाणी करने जा रहे हैं। बस्तर में कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान है। मध्यप्रदेश में बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान को वर्ष 1982 से बाघ तथा श्रंगधारी वन्य प्राणियों की बढ़ती आबादी को आवास स्थल का रूप देने के लिये चार गुना क्षेत्र में बढ़ा दिया गया है।
सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान पचमढ़ी की वादियों में स्थित है उसमें सांभर, तेंदुआ, और आदि वन्य प्राणी है। यह स्थल वन्य प्राणियों के लिये श्रेष्ठतम स्थानों में से एक हैं। कृष्ण मृगों की संख्या में वृद्धि करने के लिये बगदरा अभ्यारण स्थापित किया गया। राष्ट्रीय चंबल केन, सोन, अभ्यारण और इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान में घड़ियाल पाले जा रहे हैं। भोपाल में वन विहार राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की गई हमारे सरगुजा संभाग के अंतर्गत एक राष्ट्रीय उद्यान स्थित है जो सरगुजा जिले में स्थित है। ये उद्यान संजय उद्यान के नाम से प्रसिद्ध है। वहां बाघ, तेन्दुआ, चीतल आदि वन्यजीव बहुतायत से पाये जाते हैं! यह 1938 वर्ग किलोमिटर क्षेत्रफल में स्थित है। यहां नवम्बर से जून के मध्य भ्रमण करने के लिये अच्छा समय माना जाता है। इसी प्रकार इस क्षेत्र में बादलखोल अभ्यारण जो जशपुर जिले में स्थित है। यहां बाघ, तेंदुआ, चीतल, सांभर, गौर आदि वन्य जीव मुख्य रुप से पाये जाते हैं! रायगढ़ जिले में गोमरडा अभ्यारण स्थित है।, यहां तेंदुआ, गौर, सांभर बहुतायत से पाये जाते हैं। सरगुजा जिले में समरसोत अभ्यारण स्थित है, यहां बाघ, तेंदुआ, सांभर और घीतल वन्यजीव मिलते हैं। सरगुजा में ही तमोर पिंगला अभ्यारण है जो 608.52 वर्ग - किलोमिटर क्षेत्र में फैला है जहां बाघ तेंदुआ, सांभर, चीतल आदि वन्यप्राणी मिलते हैं। बिलासपुर जिले में एकमात्र अचानकमार अभ्यारण स्थित है यह टाइगर रिजर्व के रूप में भी विख्यात है। जो 551.55 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में व्यवस्थित है। यहां बाघ, तेंदुआ, चीतल, सांभर, गौर, आदि वन्य जीव पाये जाते हैं!!
वन्य प्राणियों की लुप्त हो रही प्रजातियों को सरंक्षण देने के लिये निम्न कदम उठाये जा रहे हैं! पहाड़ी मैना (राज्य पक्षी) की लुप्त प्रजाति को बचाने के लिये बस्तर क्षेत्र में अभ्यारण बनाये गये हैं! तो मध्यप्रदेश में खरमोर पक्षी को पूर्ण संरक्षण प्रदान करने के लिये धार एवं झाबुआ जिलों में दो अभ्यारण सरदारपुर एवं सैलाना में स्थापित किये गये हैं। घडियालों की संख्या में वृद्धि करने के लिये चंबल राष्ट्रीय वन और सोन अभ्यारणों की स्थापना की गई है। वर्ष 1986 में इनकी कुल संख्या 1300 हो गई थी ! बाघों के संरक्षण के लिये केन्द्र सरकार की सहायता के दो टायगर प्रोजक्ट कान्हा एवं इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान में चल रहे हैं! वर्ष 1974 में कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में बाघ परियोजना कियान्वित की गई! परियोजना के अंतर्गत कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में बंजर तथा हलो घाटी का क्षेत्र अभ्यारण में जोड़कर 935 वर्ग किलोमिटर क्षेत्र का कान्हा टाइगर रिजर्व निर्मित किया गया जिसे बाघ परियोजना का केन्द्र स्थल कहा गया! दो वर्ष पश्चात बंजर तथा हलों घाटी के अभ्यारण क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जी देकर और सीमावर्ती क्षेत्र मिलाकर कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में शामिल कर दिया गया, जिससे कान्हा राष्ट्रीय उद्यान का पूरा इलाका राष्ट्रीय उद्यान के अंतर्गत आ गया। इसी प्रकार बस्तर जिले के इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान जिसका वनक्षेत्र 1258 वर्ग किलोमीटर है। इसे वर्ष 1982 में बाघ परियोजना के अंतर्गत लाया गया। इस परियोजना के लागू होते ही बाघों की संख्या में संरक्षण मिलने के कारण अपेक्षित वृद्धि हो रही है।
यह छत्तीसगढ़ का सौभाग्य है कि हमारे यहां अभी भी वन्यप्राणियों की अधिकता है। प्रदेश में वन्यप्राणियों के प्रबंधन की दृष्टि से प्रदेश में अधिकतम वनक्षेत्र को घेरा गया है। हमारे राष्ट्रीय उद्यान देश भर में प्रसिद्ध हैं। प्रदेश में वन्यप्राणी संरक्षण की ओर गत वर्षों में राज्य एवं केन्द्र शासन ने विशेष ध्यान दिया है। वन्यप्राणी संरक्षण में एकरुपता लाने के लिये वर्ष 1972 में वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम लागू किया गया ! संरक्षण के लिये सघन एवं सफल प्रयास के लिए वन्य प्राणी शाखा की स्थापना की गई। भारत में इस शताब्दी के प्रारंभ में बाघों की संख्या लगभग चालीस हजार थी, परंतु यह संख्या वर्ष 1972 में घटकर मात्र 1700 गई। केंद्र सरकार का ध्यान इस तेजी से घटते हुये बाघों का संख्या पर आकृष्ट हुआ। प्रोजेक्ट टाइगर का मुख्य उद्देश्य सिर्फ बाघों की संख्या को बढ़ाना नहीं है। वरन् उसके रहने के लिये प्राकृतिक वातावरण का निर्माण तथा भोजन योग्य वन्य प्राणियों का भी संरक्षण करना है! मध्य प्रदेश में पेंच तथा बांधवगढ़ को भी टाइगर प्रोजेक्ट में रखा गया है। वहीं दूसरी और छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी अचानकमार वन अभ्यारण सहित बस्तर में स्थित राष्ट्रीय उद्यान सहित सरगुजा राष्ट्रीय उद्यान को भी टाइगर रिजर्व के लिए स्थापित किया गया है।।वन्य प्राणी संरक्षण सप्ताह मनाना दरअसल वन्य प्राणियों के संरक्षण की दिशा में जनता के मन में जागृति पैदा करने की दिशा में ही एक प्रयास है, वन्य प्राणी सप्ताह में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित कर समाज में सभी प्राणियों के संरक्षण के प्रति जागृति पैदा की जाती है। इस दौरान लोगों का ध्यान इस ओर भी आकृष्ट किया जाता है कि पर्यावरण और मानव जीवन के लिये वन्य प्राणियों का महत्व तथा आवश्यकता कितनी है। वन्यप्राणियों से हमें बहुत फायदे हैं। परंतु कभी-कभी विशेष प्रकरणों में ये मनुष्य के लिये हानिकारक भी होते हैं। वनसीमा के आसपास के क्षेत्रों में ग्रामीणों की फसलों का भी काफी नुकसान वन्य प्राणियों द्वारा पहुंचाया जाता है। टिड्डी दल के द्वारा भी कभी-कभी फसलों का नुकसान हो जाता है विशेष परिस्थितियों में कुछ शेर एवं आदि वन्य जीव नरभक्षी हो जाते हैं एवं जनहानि भी करते हैं, यह सत्य है, परंतु उसके पीछे मनुष्य की गल्तियों की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। अतः यदि वन्य प्राणियों के रहने के स्थान अर्थात उनके प्राकृतिक वातावरण पर अतिक्रमण न किया जाय तो यह स्थिति सामने नहीं आयेगी। आज भी अवैध शिकार मनुष्य द्वारा किये जा रहे हैं, वही जानते हुए भी मनुष्य पर्यावरण का दुश्मन बन बैठा है। मनुष्य को अब यह अच्छी तरह से जान एवं समझ लेना होगा कि प्रकृति ने हमें वन्य जीव एवं वनस्पतियों को अपना बनाये रखने के लिये समानांतर भूमिका में दायित्व साँप रखा है, अगर मनुष्य उसकी व्यवस्था में जरा भी बाधा डालता है तो वह स्वयं भी अपने अस्तित्व के लिये खतरा बन जायेगा।
- सुरेश सिंह बैस ‘शाश्वत’
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