देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय -18 क दंगों का वह विकराल रूप

मेरा जन्म मुल्तान जिले के जस्सो कावेन गांव में हुआ था। मेरा वह गांव और शहर आज केवल यादों में शेष रह गए हैं। उनकी मिट्टी की सोंधी – सोंधी खुशबू आज तक मेरा पीछा कर रही है। अपने देश से उजड़ना और अपनी मिट्टी से बिछुड़ना कितना कष्टकर होता है ? यह वही लोग जान जानते हैं जिन्हें विभाजन की उस दर्दनाक पीड़ा से दो-चार होना पड़ा और अपने घर-बार छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह उस समय और भी अधिक दर्दनाक हो जाता है जब अपने ही देश से अपने ही लोगों के कारण उजड़ना पड़े और अपने ही देश में बेगानों की तरह जाकर जिंदगी जीने के लिए मजबूर होना पड़ जाए। अपने ही लोगों पर हम पीढ़ियों से भरोसा करते चले आ रहे थे। इसका एक कारण यह भी था कि वे अपने लोग पीढ़ियों पहले और भी अधिक अपने थे। क्योंकि उनका और हमारा धर्म एक था , खान-पान, वेशभूषा, बोलचाल सब एक थे। पर मजहब ने उन्हें आज हमें उनके लिए दुश्मन बना दिया था। आज वह मजहब के नाम पर हमारे लिए भेड़िया बन चुके थे।
कावेन बहुत ही छोटा सा गांव था। पर वहां के लोग बहुत अच्छे थे। सब एक दूसरे के दु:ख दर्द में सम्मिलित होते थे और पूरा गांव एक परिवार जैसा लगता था। यदि कोई मुसलमान भी था तो वह भी अपने अतीत से भली प्रकार परिचित था और वह जानता था कि हम भी हिंदुओं की ही संतानें हैं। यही कारण था कि वे हिंदुओं से अपनेपन का भाव दिखाकर बर्ताव करते थे। पर बंटवारे की बात सुनकर उनके दिमाग में इस्लाम का भूत सवार हो गया और उन्हें लगा कि यदि यहां अपनों को ही मारकर या भगाकर समाप्त कर दिया जाए तो उनकी सारी जमीन जायदाद मिल सकती है।

आर्य समाज की भूमिका

पंजाब के हर क्षेत्र में उन दिनों आर्यसमाज का बोलबाला था। ऋषि दयानंद के शिष्यों के प्रति लोगों में विशेष प्यार देखा जाता था। ऋषि दयानंद के दीवाने जिधर निकल जाते थे उस ओर ही इत्र की खुशबू बिखर जाती थी। उन लोगों के प्रति लोगों में एक विशेष सम्मान और आदर का भाव देखा जाता था। उसी का परिणाम था कि हिंदू घरों में गायत्री और गाय का मान बढ़ चला था। वेदों के प्रति लोगों में गहरी श्रद्धा बढ़ चली थी। वैदिक संस्कृति को लोग हृदय से स्वीकार करते जा रहे थे। उन्हें अपने आपको ‘आर्य’ कहलाने में गर्व और गौरव की अनुभूति होती थी। आर्य समाजियों के बारे में उस समय यह एक गहरी मान्यता थी कि वह एक साथ वेदभक्त, ईश्वरभक्त और देशभक्त तीनों होता है। इसी मान्यता के चलते आर्य समाज उस समय देशभक्ति का प्रतीक बन चुका था। एक आर्य समाजी 1000 पौराणिक हिंदुओं में देशभक्ति के भावों का संचार करने के लिए पर्याप्त होता था। आर्य समाज सनातन धर्म का उद्धारक था। अपने पौराणिक भाइयों को साथ लेकर देश को आजाद करने की धुन यदि उस समय किसी संस्था में थी तो वह केवल आर्य समाज था।
उस समय किसी आर्य समाज जी को अपने बीच देखकर लोग सुरक्षा का आभास करते थे। इसके साथ ही साथ प्रत्येक आर्य समाजी की चारित्रिक मजबूती पर सबको विश्वास होता था। यहां तक कि मुसलमान और ईसाई भी उनकी चारित्रिक मजबूती का सम्मान करते थे। जहां तक देशभक्ति की बात है तो आर्य समाजी लोगों की देशभक्ति के उबाल को देखकर मुर्दा भी जिंदा हो उठते थे।

लोगों में आ रहे थे क्रांतिकारी बदलाव

सभी हिंदुओं के अपने खेत खलिहान थे। आर्य समाज के लोगों के द्वारा सांस्कृतिक जागरण और देश जागरण के कारण हर घर में गाय पालन अनिवार्य था। यज्ञ हवन की खुशबू हर घर से फिर से आने लगी थी। गीता, गाय और गंगा के प्रति लोगों में फिर से श्रद्धा बढ़ती जा रही थी । इसके अतिरिक्त वेदों की चर्चा लोगों में सामान्य रूप से होने लगी थी। इस प्रकार के परिवेश ने संस्कृति प्रेम और देश प्रेम को बढ़ावा दिया। गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी शुद्ध संस्कृत का उच्चारण कर वेद मंत्र बोलते थे तो लोगों का ध्यान अनायास ही उनकी ओर चला जाता था। देशभक्ति के आगार बने उन ब्रह्मचारियों के ब्रह्मबल और तेज बल को देखकर हर कोई समझ लेता था कि उनकी देशभक्ति अनुपम और अद्वितीय है। देशभक्ति के उन अंगारों को देखकर उनके तेज के सामने शत्रु टिक नहीं पाता था।
आर्य समाज के कारण पढ़े लिखे लोगों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। देशभक्ति के दीवाने और महर्षि दयानंद के शिष्य वे आर्य युवक जिधर भी निकलते थे, उधर ही देश भक्ति का रंग बिखर जाता था। देश का युवा वर्ग अपने उन क्रांतिकारी युवाओं के पीछे हो लेता था और उनके नेतृत्व में काम करने में अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करता था।

अपनी जन्मभूमि से विदा होने का कष्ट

हिंदू समाज के लोग किसी भी प्रकार की गुलामी के विरोधी थे। उन्होंने सैकड़ों वर्ष तक अपनी आजादी की लड़ाई को जारी रखा था। जिस इस्लाम के विरुद्ध वे अपनी आजादी के लिए लड़ते रहे, आज उसी के लोग उसके लिए प्राणलेवा सिद्ध हो रहे थे। जिस भारत माता को अपना सर्वस्व सौंपकर भी हर हिंदूवीर के मन मस्तिष्क में कुछ और भी सौंपने की इच्छा बनी रहती थी, आज उसी पवित्र भूमि से उसे विदा होना पड़ रहा था। अपने खेत – खलिहान, पेड़ – पौधे ,मकान – दुकान आदि को छोड़ते समय हिंदुओं के दिल पर क्या बीत रही होगी ? यह मुझे उस समय तो आभास नहीं था, पर आज अवश्य आभास होता है।
बहुत देर बाद जाकर मुझको पता लगा कि वह कष्ट किस प्रकार का था और उन विपरीत परिस्थितियों में अपने आपको जीवित बनाए रखना भी कितनी बड़ी चुनौती बन चुकी थी?
ऐसी परिस्थितियों में :-

उत्तम खेती मध्यम व्यापार,
निखह चाकरी धूल समान।

हर हिंदू की यही भावना थी। मेरे पिताजी अध्यापक थे। साथ ही मुस्लिमों की रग -रग से परिचित भी थे। वे जानते थे कि मुस्लिम अपने मजहब की कट्टरता के सामने किसी को कुछ नहीं मानता। समय आने पर वह हर काफिर के लिए तलवार लेकर बाहर निकलता है। वह तब तक ही किसी के साथ रहने को तैयार होता है जब तक वह कमजोर होता है। थोड़ी सी उर्जा मिलते ही वह काफिरों के खून का प्यासा हो जाता है।
1947 में बंटवारे की घोषणा से मुस्लिमों के उपद्रव बढ़ चुके थे।
मुस्लिम समाज के लोग उस समय हिंदुओं की जमीन – जायदाद, मकान – दुकान, बहू – बेटियों को हड़पने के लिए लालायित था।
वैसे तो उनके भीतर इंसानियत होती ही नहीं और यदि कुछ थी भी तो अब वह भी समाप्त हो चुकी थी । वे पूरी पाशविकता के साथ हिंदुओं पर टूट पड़ते थे। शस्त्रविहीन निस्सहाय हिंदू उनके आक्रमण का सामना पूरे प्रतिकार के साथ करते तो थे, पर फिर भी जानमाल की हानि अधिकतर हिंदुओं को ही उठानी पड़ती थी। इसका कारण था कि पूरा शासन-प्रशासन मुस्लिमों का साथ दे रहा था। दूसरे , हिंदू उजड़ रहा था , जिससे उसका मनोबल भी टूट चुका था।

गाय माता ने रुला दिया था हम सबको

मैं तब 15 साल का था, हमारा गांव अत्यंत पिछड़े क्षेत्र में था, संकट की परिस्थितियों में वहां से किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंच पाना नितांत आवश्यक था। मेरे पिताजी को वहां के मुस्लिमों के गुप्त षड़यंत्रों को भांपने में तनिक भी देर न लगी। वे भविष्य की आपदा का अनुमान लगा चुके थे। मुसलमानों को झांसा देने के उद्देश्य से प्रेरित होकर एक दिन पिताजी ने अचानक यह प्रचारित किया कि मैं अपने पूरे कुटुम्ब के सभी सदस्यों के संग कुछ दिन बाहर रहने के लिए जाऊंगा। उन्होंने यह भी कहा कि हम अपने साथ पहनने योग्य वस्त्र व भोजन खाने पकाने के कुछ आवश्यक बर्तन लेकर जाएंगे। शेष सब कुछ यहीं पर रहेगा। भाग्य ने साथ दिया तो लौट आएंगे। निर्धारित तिथि को हम घर से निकल पड़े थे। गाय माता को पहले ही खुला छोड़ दिया था। पर वह हमें छोड़ जाने को तैयार ही नहीं थी। वह ऐसी निगाहों से हमें निहार रही थी- .मानो हम उसके साथ अत्याचार कर रहे हैं। यह सब देखकर हम सबकी आंखें भर आई थीं। वह समझ रही थी कि यह कैसी 'विदा' है और इसका परिणाम क्या होगा? उस निरीह प्राणी को अत्याचारियों के हाथों छोड़ना हमारे लिए घोर पाप था। बहुत ही दु:खी दिल के साथ हमने अपने उस निर्णय के साथ समझौता किया था। आज तक भी उस दृश्य को हम याद करते हैं तो आंखें भर आती हैं। उस निरीह प्राणी के साथ हमारी वह अंतिम बातचीत थी। जिसे वह और हम दोनों ही केवल आंसुओं के माध्यम से प्रकट कर रहे थे। आंसुओं ने एक दूसरे को बहुत कुछ समझा दिया था। 
सभी हिंदुओं ने अपनी-अपनी गाय माताओं के साथ यही कुछ किया था। सालों बीत जाने के बाद भी हर उस व्यक्ति के भीतर अपनी गाय माता को लेकर गहरा पश्चाताप रहा, जिन्हें उस समय पाकिस्तान से हिंदुस्तान आना पड़ा था। मेरे परिवार के भी प्रत्येक सदस्य की यही स्थिति थी। अपनी गौ माता से आंसुओं के माध्यम से स्थापित हुआ अंतिम संवाद घर के प्रत्येक प्राणी को रोने के लिए सालों तक मजबूर करता रहा।

अचानक पिताजी ने मार्ग बदल दिया

उस दिन हमें कुछ दूर स्थित जोधपुर नामक एक बड़े गांव में पहुंचना था। वहां जाने का प्रचलित मार्ग बड़ा ही सुगम व सीधा सपाट था। पिताजी ने बार-बार प्रचारित किया था कि हम उसी मार्ग से जाएंगे ताकि दोपहर पूर्व तक जोधपुर पहुंच जाएं।
हम गांव से बाहर पहुंच चुके थे। वहां से पिताजी ने सुगम मार्ग को छोड़, बड़े ही दुर्गम, बड़े-बड़े गड्ढे वाले गहन रेतीले तथा नुकीले कांटेदार झाड़ियों वाले मार्ग को चुना। हम सब कुछ पूछते इससे पूर्व ही पिताजी ने हमें चुप रहने का इशारा किया।
जब हम घर से निकले 15 या 20 मिनट हुए थे। तभी एक बुद्धिमान व्यक्ति ने पिताजी से कहा था….. जोधपुर जाने वाले मार्ग पर मुस्लिमों ने जल पर प्रतिबंध लगा रखा है। छोटे बच्चे हेतु पानी साथ लेते जाओ। तब पिता जी ने कहा था …..हमें तो सीधे मार्ग से ही जाना है… तब पिताजी ने मेरे बड़े भ्राता के सिर पर लदी कीमती सामान वाली गठरी नीचे फिंकवा दी। एक पानी से भरा कनस्तर उसके सिर पर रखवा दिया, तभी हम आगे बढ़े थे। हमारे ही गांव के श्री राम दत्ता जी को यह विश्वास ही न हो रहा था कि उन्हें अपने जन्म स्थान को त्यागना होगा। उन्होंने हमारे साथ चलने से मना कर दिया था।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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