हम सब उस राहत शिविर के खुले मैदान में चार मास तक रहे। दिनभर में एक परिवार को एक लोटा पानी और सदस्यों के हिसाब से आधी रोटी मिलती थी। पानी में नमक घोल कर उसके साथ रोटी खाते थे। दो घूंट पीने का पानी मिलता। गर्मी के दिन थे। हम सब दिन भर भूख प्यास से तड़पते रहते थे। रात्रि को कैम्प के चारों ओर मुसलमान गोलियां बरसाते थे। प्रातः काल काल कई लाशें मिलती थीं। जो मुसलमान इन कामों को कर रहे थे उन्हें आप हविश के भूखे भेड़िए भी कह सकते हो, निर्मम और पाशविक अत्याचारों के प्रतीक भी कह सकते हो , लाशों के सौदागर भी कह सकते हो और इसी प्रकार के कई अन्य विशेषणों से भी संबोधित कर सकते हो।
पिता जी एक शूरवीर योद्धा की भांति युद्ध में डटकर लोहा ले रहे थे। वह अत्यधिक आशावादी थे । यही कारण था कि वह एक जीवंत पुरुष की भांति उस समय न केवल अपने परिवार का बल्कि अन्य हिंदू बहन भाइयों का भी ध्यान रख रहे थे। प्रात: काल वे अपने लोगों को पिस्टल चलाना सिखाते थे। पिताजी जिन युवाओं को पिस्टल चलाना सिखाते थे , उनसे कहते थे कि शिविर की रक्षा करते समय उन्हें चारों ओर से पिस्टल चलाने का काम करना है। जिससे कि मुसलमानों को लगे कि यहां पर बहुत सारे सैनिक हैं। जबकि सच यह था कि कैंप की सुरक्षा के लिए वहां पर सेना के केवल दो ही जवान थे।
मामा जी के प्राण संकट में
हम आखिरी ट्रेन में सवार होकर भारत की ओर गए। मेरे मामा जी का छोटा बेटा उस समय केवल दो मास का था। खाना पीना ठीक न होने के कारण मामी जी के दूध से उसका पेट नहीं भरता था। वह भूख के कारण रोता रहता था। मेरी मामी जी को भी भरपूर खुराक नहीं मिलती थी , इसलिए दूध भी उतना नहीं बनता था, जितना बच्चे के लिए आवश्यक था। मेरे मामा जी की आर्थिक स्थिति बड़ी मजबूत थी । इस बात को गांव का प्रत्येक मुसलमान जानता था। उस समय उनकी नजरें मेरे मामाजी को खोज रही थीं। उनकी इच्छा थी कि यदि मेरे मामा जी उनके पल्ले पड़ जाएं तो उनका सारा धन जेवर आदि उनसे ले लिया जाए। मुसलमानों ने उस समय नाटक करते हुए मेरे मामा जी से कहा कि आप हमारे साथ चलें, हम आपके बच्चे के लिए आपको दूध देंगे। मेरे मामा जी ने उन पर विश्वास करते हुए उनके साथ जाना स्वीकार कर लिया ।
मुसलमान लोग मेरे मामा जी को उनके घर ले गए। उन मुस्लिमों ने मामा जी को उन्हीं के घर ले जाकर उनसे कहा कि फटाफट हमें अपना वह धन माल जेवरात आदि दे दीजिए जिसे आप दबाकर यहां से भाग रहे हो। यदि आप अपना सारा धन माल आराम से हमको दे देंगे तो उसका आधा हम आपको दे देंगे। मामा जी ने उन सभी मुस्लिमों की बात पर विश्वास कर लिया और उन्होंने जमीन में गड़ा अपना सब धनमाल उनके सामने रख दिया। तब मुसलमानों ने एक बोतल दूध देकर मामाजी को वहां से यह कहकर भगा दिया कि जाओ ! अपनी खैर मनाओ कि हम आपको मार नहीं रहे हैं ।
मामा जी वस्तुस्थिति को समझ चुके थे और उन्हें पता था कि ये मुसलमान लोग नीचता के किस बिन्दु तक जा सकते हैं ? उन्होंने बड़े सहज भाव से उनसे धन्यवाद कहकर वहां से चलना ही उचित समझा।
दूध लेकर मामाजी सुरक्षित कैंप लौट आए। हम सबकी चिंता दूर हुई। हममें से किसी को भी उस समय इस बात का बुरा नहीं लगा कि मामा जी सारे सोने चांदी को देकर हमारे पास लौटकर आए थे। उस समय प्राण बच जाना ही सबसे बड़ी बात थी। ऐसी कितनी ही घटनाएं हो रही थीं, जिन्हें देखकर मानवता लज्जित हो रही थी।
……और हम भारत पहुंच गए
आखिर वह दिन भी आ गया जब हम लोग ट्रेन में बैठकर भारत आए। उधर लाहौर स्टेशन पर पाकिस्तान की ओर से आ रही हिंदुओं की दो गाड़ियां काटने के लिए रोक दी गईं । कुछ ही क्षणों में वहां पर हिंदुओं का काटा जाना आरंभ हो गया। वह दृश्य अत्यंत दर्दनाक था। गाड़ियों में बैठे हिंदुओं को जीवन की अंतिम आशा भी अपने हाथों से खिसकती हुई नजर आ रही थी। जब रेल में बैठकर पाकिस्तान से हिंदुस्तान के लिए चले थे तो कुछ आशाएं जीवंत हो उठी थीं, पर अब उन पर भी तुषारापात हो गया था। ट्रेन में बैठे सभी हिंदुओं को अब मौत साक्षात नजर आ रही थी। तभी भारत से पाकिस्तान के शासकों के लिए फोन आया कि यदि आपने दो गाड़ियों को काटा तो हमने हिंदुस्तान से पाकिस्तान जाने वाली मुसलमानों से भरी हुई चार गाड़ी रोकी हुई हैं। हम उन्हें काट कर भेजेगें। बताया गया था कि इस संदेश के पीछे उस समय सरदार वल्लभभाई पटेल की कड़कती हुई आवाज काम कर रही थी। उनका साहस बोल रहा था। उनकी राष्ट्रभक्ति बोल रही थी। इस साहसिक निर्णय के बाद स्थितियों में तुरंत परिवर्तन आया। कटने वाली पंक्ति में लाहौर में मामा जी का पांचवा नंबर था। सौभाग्य से वे बच गए। भारत में सुरक्षित लौट आए।
भारत आकर हमारे लिए पुनर्वास का काम सबसे बड़ी समस्या था। हमने उस समय की पहली जंग जीत ली थी। भारत आकर अब कम से कम हमको इतना तो आभास हो गया था कि अब प्राणों के लिए संकट बहुत कम हो गया है। हमने अपने आपको सिद्ध करने के लिए और जीविकोपार्जन हेतु हर छोटे से छोटा काम किया। पिताजी का निर्देश था कि किसी के भी सामने हाथ नहीं पसारना है। अपने परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर आगे बढ़ना है। अतः पिताजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर हमने किसी के आगे हाथ नहीं पसारा। परिश्रम करके ही अपना भरण पोषण किया । 1968 में मेरा विवाह श्री धर्मवीर आर्य जी के साथ हुआ वह गृह मंत्रालय में सेक्शन ऑफिसर थे। तब तक कई प्रकार के घावों को सहन करके भी जिंदगी ने कुछ आगे बढ़ना आरंभ कर दिया था।
बंटवारे की फाइलें रोंगटे खड़े हो गए । पता चला कि पाकिस्तान में कई स्थानों पर हिंदू महिलाओं को निर्वस्त्र कर उनके साथ इस प्रकार के अत्याचार किए गए जिन्हें लेखनी लिखते हुए भी कांपती है। बड़ी ही जालिम कौम है मुसलमान। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि ये लोग कितने निम्न स्तर के अपराध बड़ी आसानी से कर लेते हैं ?
अंत में सावरकर जी के बारे में
आजादी के 4 – 5 वर्ष पश्चात जब मैं कुछ और बड़ी हुई तो पता चला कि सावरकर जी उस समय एक हिंदू नेता के रूप में जाने जाते थे। वह अपनी स्पष्टवादिता के कारण खासे चर्चा में रहते थे। पाकिस्तान से भारत आने वाले जितने भर भी हिन्दू उस समय भारत के तत्कालीन नेतृत्व ने और विशेष रूप से कांग्रेस ने मुसलमानों के रहमोकरम पर छोड़ दिए थे, वे सारे के सारे किसी सरकार या किसी व्यवस्था के कारण सुरक्षित नहीं रह पाए थे, अपितु किसी अदृश्य सत्ता ने उन्हें मुसलमानों की निर्मम तलवारों से बचा लिया था। नेहरू और गांधी के प्रति लोगों में उस समय बड़ा गहरा आक्रोश था। गांधीजी जिस प्रकार की बातें कर रहे थे उससे हिंदू विरोध को प्रोत्साहन मिलता था। लगता था कि सरकारी स्तर पर भी वही किया जा रहा होगा जो गांधी कह रहे थे। कुछ लोग उस समय मुसलमानों के एक धर्म स्थल में प्रवेश कर गए थे। जिसका मुसलमानों ने भारी विरोध किया था। उनका कहना था कि काफिरों के हमारे धर्म स्थल में प्रवेश करने से वह धर्म स्थल अपवित्र हो गया है ।
1947 के अक्टूबर नवंबर माह की बात है, जब कुछ हल्की बारिश हो जाने के कारण शरणार्थी हिंदुओं ने मुस्लिमों के धर्मस्थल में बचाव के लिए प्रवेश कर लिया था। इस पर भी गांधी जी ने इस प्रकार प्रवेश करने वाले हिंदुओं को ही दोषी माना था। ऐसी घटनाओं से लोगों ने गांधीजी के प्रति आदर का भाव लगभग समाप्त हो गया था। यद्यपि सावरकर जी उस समय भी हिंदुओं के समर्थन में अपने स्पष्ट वक्तव्य दे रहे थे।
मुसलमानों की जैसी अमानवीय घटनाओं को हमने अपने साथ घटित होते देखा या झेला उससे यही कहा जा सकता है कि उनकी सांप्रदायिकता उनके लिए सबसे बड़ी है अर्थात वह हर स्थिति परिस्थिति में अपनी संप्रदायिक मान्यताओं को ही प्राथमिकता देते हैं। सावरकर जी बार-बार गांधीजी और नेहरु जी को यही समझा रहे थे कि जब कोई विषम परिस्थिति आएगी तो यह लोग हमारे हिंदू बहन भाइयों के साथ किसी भी प्रकार का मानवीय दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे । इन पर अधिक भरोसा करने की आवश्यकता नहीं है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य ही था कि गांधीजी और नेहरू जी सावरकर जी की इस प्रकार की सलाह को मानने को तैयार नहीं थे।
सच यह है कि उस समय की परिस्थितियों में गांधीजी अपने ‘अहिंसा दर्शन’ का इतना अधिक शिकार हो गए थे कि वे और उनकी राजनीति अपना धर्म ही भूल गए थे। यदि गांधीजी विषम परिस्थितियों में राजनीति के धर्म को सही ढंग से समझ गए होते या उसकी सही व्याख्या कर रहे होते तो वह अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध अपने आपको मजबूत करते और मुस्लिमों के अत्याचार का सही प्रत्युत्तर देते।
प्रस्तुतिकर्ता : आर्या चन्द्र कान्ता क्रान्ति”
आर्या चन्द्र कान्ता” क्रान्ति”
सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी
शिक्षा विभाग ,हरियाणा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)