देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय -17 ग मुसलमान मित्र की मानवता
हमारा मकान बहुत बड़ा था। बहुत बड़े आंगन में चारपाईयां डली हुई थीं। पिताजी इस बात को लेकर बहुत ही चिंतित और आशंकित रहते थे कि न जाने बदमाशों की कोई टोली कब घर में प्रवेश करने में सफल हो जाए ? और यदि वह इस प्रकार प्रवेश करने में सफल हो गई तो उससे आगे का मंजर उनकी आंखों में अनायास ही उतर आता था। जिसे वह किसी बदमाश की बदमाशी के माध्यम से अपने घर में होते देखना नहीं चाहते थे। वह चाहते थे कि ऐसा कुछ भी होने से पहले वे स्वयं ही अपने परिवार को समाप्त कर डालें। इसी प्रकार की उधेड़बुन में रहते हुए आज उन्होंने निर्णय ले लिया कि अब बचने की कोई संभावना नहीं है, इसलिए परिवार का सफाया कर देना उचित रहेगा। तब पिताजी ने तलवार उठाई और माता जी को कहा कि आप चारपाई पर लेट जाओ, पहले आप को ही मारूंगा। फिर अपनी चारों बेटियों को समाप्त करूंगा । ज्यों ही तलवार उठाई, उसी समय अचानक उनका एक मुसलमान मित्र वहां आ गया। उसने तलवार छीन ली। उस व्यक्ति ने मित्रता का कर्तव्य निर्वाह करते हुए पिताजी को धैर्य से काम लेने की सलाह दी। उसने कहा- ‘मेरे साथ चल, अभी लौट आएंगे।’
पिताजी को अब अपने उस मित्र पर भी अधिक विश्वास नहीं था। वह समझ रहे थे कि उसके ऐसा कहने में भी कोई रहस्य छुपा हो सकता है। वह नहीं जानते थे कि उनका वह मित्र उन्हें कहां ले जा रहा था ? और क्यों ले जा रहा था ? वे यह भी नहीं जानते थे कि उसके साथ जाने का परिणाम क्या होगा ? उस समय हर व्यक्ति के पास सवाल अधिक थे, उनका उत्तर कुछ भी नहीं था। पिताजी की भी यही मनःस्थिति बन चुकी थी। वह एक अजीब से द्वंद्वभाव में फंसे हुए थे। चारों ओर बड़े-बड़े प्रश्नचिन्हों के घेरे में अनेक प्रकार के विचार उनके मानस में आ जा रहे थे।
विचारों का प्रवाह भी बड़ा तेज हो रहा था। इतना तेज कि उन्हें पकड़ना भी कठिन हो रहा था। एक – एक पल पहाड़ की भांति दिखाई दे रहा था। जीवन बेभरोसे की गाड़ी बन चुका था। ऐसा लगता था कि कभी भी कोई गिद्ध जीवन पर झपट्टा मार सकता है। पल पल जीना कठिन होता जा रहा था।
माताजी को मिली धर्म निभाने की जिम्मेदारी
ऐसी मन:स्थिति और परिस्थिति में फंसे पिताजी ने अपने उस मुसलमान मित्र से थोड़ा बचकर माता जी को एकांत के एक कोने में बुलाकर उनके कान में कहा कि मुझे नहीं पता कि मैं अब लौटूंगा भी या नहीं ? यदि मैं बचकर लौट न पाऊं तो तुम बच्चों को विष खिला देना और अपने आप भी खा लेना। पिताजी चाहते थे कि हर स्थिति में अपने धर्म और सम्मान की रक्षा होनी चाहिए। मेरी माताजी भी शेरनी थीं। उन्होंने पिताजी का हर स्थिति परिस्थिति में पूर्ण तन्मयता से साथ निभाया था। उस समय उन्होंने पिताजी को आश्वस्त किया कि वे नि:संकोच चले जाएं । समय आने पर मैं अपने कर्तव्य का निर्वाह कर लूंगी।
इस पुस्तक के लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ राकेश कुमार आर्य हमारी ऐसी वीरांगनाओं के किस्से सुनाया करते हैं। जिन्होंने अपने पति को युद्ध के मैदान के लिए सहर्ष भेज दिया और भेजते समय अपने पति को यह विश्वास भी दिला दिया कि वे अपना कर्तव्य निभाएं, मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगी। किसी भी स्थिति में धर्म को भ्रष्ट नहीं होने देंगे और ना ही शत्रु के समक्ष शीश झुकाएंगे। जब जब भी डॉ आर्य इस प्रकार के प्रसंग लाते हैं तब तब मैं अपनी माताजी और पिताजी के बारे में सोचने लगती हूं। निश्चय ही मेरी मां ने भी उस समय एक ऐसी ही वीरांगना नारी का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया था। जिसे याद कर आज भी आंखों में आंसू आ जाते हैं।
माताजी ने पिताजी के आदेश को शिरोधार्य किया। वह एक सच्ची वीरांगना थीं और पति के प्रति उनकी अगाध निष्ठा थी। अपने धर्म के प्रति उनका गहरा अनुराग था। अतः कोई प्रश्न ही नहीं था कि वह उन परिस्थितियों में अपने आपको किसी भी दृष्टिकोण से पीछे हटाती।
डाला गया मुसलमान बनने का दबाव
अपने उस मुसलमान मित्र के साथ पिताजी काफी देर बाहर रहे। बाहर ले जाकर पिताजी पर मुसलमान बनने का दबाव डाला गया। पिताजी टस से मस नहीं हुए। उन्होंने सिख गुरुओं, बंदा बैरागी, दीवार में चुनवाए गए गुरु पुत्र फतेह सिंह और जोरावर सिंह, भाई सती दास, मती दास, वीर हकीकत राय जैसे अनेक वीर पुरुषों के किस्से पढ़ रखे थे। जिन्होंने अपने जीवन को देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए बलिदान देना तो उचित माना पर धर्म को गवाना उचित नहीं माना । वैसे भी पिताजी पर स्वामी दयानन्द जी महाराज की आर्य विचारधारा का रंग बड़ी गहराई से चढ़ा हुआ था। वह एक संकल्पशील व्यक्ति थे और धर्म के प्रति उनका अनुराग बहुत गहरा था। वैदिक धर्म के सिद्धांतों में उनकी गहरी निष्ठा थी। जिसे खोना उन्हें किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं था। इस्लाम के अत्याचारों के बारे में उन्होंने अच्छी प्रकार पढ़ रखा था और आर्य विचारधारा में रचे बसे होने के कारण वह यह भी भली प्रकार जानते थे कि मुसलमानी शासन में किस प्रकार हिंदुओं पर अत्याचार किए गए थे ? इस्लाम को मानने वाले लोगों को प्रोत्साहन देना अपने आपको जीते जी मृत घोषित कर लेने जैसा है। यही कारण था कि पिताजी रोज रोज मरने की अपेक्षा एक दिन मरने को प्राथमिकता दे रहे थे।
कुछ समय उपरांत पिताजी को उनका वह मुस्लिम मित्र हमारे घर छोड़ गया। अगले दिन सारा गांव हमारे घर पर एकत्रित हो गया। घर को चारों ओर से दो दिन तक मुसलमानों ने घेरे रक्खा। पिताजी के साथ अपने उसी मुसलमान मित्र के कारण कोई अनहोनी नहीं हुई। पिताजी को सकुशल लौटा हुआ देखकर परिवार के सभी सदस्यों ने राहत की सांस ली। सभी ने ईश्वर को धन्यवाद ज्ञापित किया।
मेरे अपने निजी अनुभव
मैं उन दिनों बहुत छोटी थी। उस छोटी सी अवस्था में ही जीवन मरण के कई अनुभव मैं कर चुकी थी। मुझे इतना ज्ञात था कि जो कुछ भी हो रहा है वह बहुत ही दुखदायक है और कभी भी हमारे जीवन का अंत हो सकता है। परिवार के सभी लोग एक दूसरे को टकटकी लगाकर देखते थे। वैसे नींद आती तो नहीं थी पर फिर भी सोने से पहले सब एक दूसरे को देखते अवश्य थे। उसका कारण केवल एक था कि सभी इस बात को लेकर सशंकित रहते थे कि पता नहीं कल की सुबह हम देख भी पाएंगे या नहीं। उस समय जीवन की उमंग तो थी, पर उस पर मौत की काली छाया इतनी गहरी थी कि उमंग बार-बार फीकी पड़ जाती थी। मौत की उस काली छाया से बाहर निकलने का परिश्रम हम सब कर रहे थे, उपाय भी खोज रहे थे, परंतु गहरी काली छाया में कहीं कुछ दिखता नहीं था। कहते हैं जब भाद्रपद की रात हो और काली घटा छाई हो तो उस समय बिजली की कड़क भी कई बार रास्ता दिखा दिया करती है। पर हमारे साथ तो ऐसा भी नहीं था।
छोटी बच्ची होने के कारण मैं खेलने के लिए निकल जाती तो बाहर चौपालों या किसी भी व्यक्ति की बैठक पर बैठे मुसलमान लोगों के पास खेलते – खेलते नाटक करती हुई पहुंच जाती। वे लोग हम हिंदुओं के बारे में जो कुछ भी बात कर रहे होते थे , उसे गहराई से सुनती – समझती और आकर पिताजी को बता देती थी। उस समय यह जिम्मेदारी बहुत बड़ी थी। जीवन के उस महासंग्राम में मेरी जैसी बच्ची कि इससे बड़ी कोई भूमिका हो भी नहीं सकती थी। इस प्रकार उस संग्राम की मैं एक नन्हीं सी सिपाही थी। मुझे संतोष है कि मैं अपनी भूमिका को उस समय बहुत ही उत्तमता से निर्वाह कर रही थी।
मुसलमानों के लिए मैं बालिका नहीं थी। उनके लिए मैं एक हिंदू की बेटी थी और मेरे साथ उस समय कुछ भी होना संभव था। इस सबके उपरांत भी मैं अपनी उस भूमिका का निर्वाह करते हुए अत्यंत आनंद का अनुभव करती थी। ऐसा नहीं था कि मैं ऐसे समाचार केवल मुसलमानों के यहां से ही लेती थी और उन्हें पिताजी को जाकर यथावत सुनाती थी, मैं हिंदुओं के बीच जाकर भी उनके मन की बात लेती और पिताजी को जाकर बताती।
मिली राहत भरी खबर
जीवन मरण से जूझ रहे हम हिंदुओं के लिए कुछ राहत भरी खबर सुनने को मिली। पता चला कि हिंदू सेना शीघ्र ही हमारी प्राण रक्षा के लिए आ रही है। ठीक 3 दिन बाद हिंदू सेना आई। वह सब हिंदू महिलाओं को ट्रकों में बैठाकर दूर सुरक्षित स्थानों पर ले जाने लगे। उस समय हिंदू पुरुषों और महिलाओं के लिए वहां से 56 कोस दूरी पर और शोरकोट में खुले मैदान में बाड़ लगाकर एक कैंप लगाया गया था। यह कैंप हिंदू शरणार्थी राहत शिविर था। हमारी हिंदू सेना के सिपाही महिलाओं को बड़े सम्मान के साथ ट्रक में ले जाकर वहां छोड़ आते। बारी-बारी से सभी महिलाओं और पुरुषों को वहीं छोड़ा गया ।
पिताजी महिलाओं के हर ट्रक के साथ जाते थे । उन्हें विश्वास नहीं होता था कि वह हिंदू सेना है या नहीं । जब यह सैनिक हिंदू महिलाओं को उस राहत शिविर में छोड़ देते तो पिताजी को एक अजीब सी राहत अनुभव होती थी। जिसे वह प्रकट तो नहीं करते थे पर उनके चेहरे पर आए भावों से उसे समझा जा सकता था। पिताजी का इस प्रकार उन ट्रकों के साथ हर बार आना जाना उस समय अपने प्राणों को जोखिम में डालने के समान था। यद्यपि पिताजी जोखिमों से डरते नहीं थे, पर हम सबको उनकी अनुपस्थिति में उनकी बहुत चिंता होती थी। पिताजी इस बात को लेकर कुछ आश्वस्त थे कि जीवन की कुछ आशाएं अब बनने लगी थीं। यद्यपि संकट टला नहीं था, पर फिर भी वह अब पहले से कहीं अधिक प्रसन्न नजर आ रहे थे। जितने अनुपात में पिताजी निश्चिंत दिखाई देते थे ,उतना ही हम सब परिवार वाले अपने आपको प्रसन्न अनुभव करते थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)
मुख्य संपादक, उगता भारत