लड़कियां बोझ नहीं, ताकत हैं
हेमा रावल
गनीगांव, उत्तराखंड
हाल ही में संसद के विशेष सत्र में पास किये गए महिलाओं के लिए लोकसभा और विधानसभा में 33 प्रतिशत आरक्षण विधेयक को राष्ट्रपति ने भी मंज़ूरी प्रदान कर दी है. इसके साथ ही यह ऐतिहासिक विधेयक अब कानून का रूप ले चुका है. इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महिला शक्ति को नमन करते हुए महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए अपनी सरकार की प्रतिबद्धता को दोहराया. इस अवसर पर उन्होंने कहा कि उनकी सरकार विभिन्न योजनाओं के माध्यम से न केवल महिला सशक्तिकरण पर विशेष ज़ोर देती रहेगी बल्कि उन्हें प्राथमिकता भी देगी. उन्होंने महिलाओं के स्वावलंबन के लिए हर स्तर पर प्रयास करने पर भी ज़ोर दिया ताकि देश की आधी आबादी को भी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं और अधिकार समान रूप प्राप्त हो. इसमें कोई शक नहीं कि केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकार महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास करती रहती हैं. इसके अंतर्गत कई योजनाओं संचालित की जा रही हैं, फिर चाहे वह मुद्रा लोन के रूप में उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाना हो या फिर सुकन्या समृद्धि योजना के अंतर्गत उनका भविष्य उज्जवल बनाना हो.
सरकार की इस पहल का सबसे अधिक लाभ नई पीढ़ी की किशोरियों को मिलने वाला है. जो शिक्षा के माध्यम से सशक्त और आत्मनिर्भर बनने की दिशा में अग्रसर हैं. हालांकि एक ओर जहां सरकार सराहनीय प्रयास कर रही है वहीं सामाजिक रूप से भी महिलाओं के सशक्तिकरण के प्रयास किये जाते रहे हैं. लेकिन शहरों की तुलना में अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में नारी की सामाजिक स्थिति में कोई विशेष सुधार देखने को नहीं मिल रहा है. उन्हें आज भी ऐसी कई प्रचलित और अमानवीय प्रथाओं से गुज़रना होता है, जिससे उन्हें न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से भी यातनाओं को सहना पड़ता है. लड़की के जन्म के साथ ही उसे बोझ समझा जाने लगता है. पराया धन के नाम पर परिवार उसे शिक्षा और अन्य बुनियादी आवश्यकताओं से भी वंचित कर देता है. रूढ़िवादी धारणाओं के नाम पर उसे आगे बढ़ने से रोक दिया जाता है. अपनी पहचान के नाम पर उसे केवल पुरुष की सेवा करने वाली जीव की संज्ञा दी जाती है. पहले पिता और भाई और फिर पति और पुत्र की सेवा के आधार पर ही उसके स्वर्ग और नर्क का फैसला सुना दिया जाता है.
देश के ऐसे कई दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है. उसे शिक्षा से वंचित रखने का प्रयास किया जाता है. समाज की यह सोच बनी हुई है कि लड़की को शिक्षित करने से कहीं अधिक उसे चूल्हा चौका में पारंगत होना आवश्यक है. ऐसी ही संकीर्ण सोच का उदाहरण पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गनीगांव में देखने को मिलता है. जहां देवी शक्ति के रूप में उसकी आराधना तो की जाती है लेकिन महिला अधिकार के नाम पर समाज की सोच संकुचित हो जाती है. इन क्षेत्रों में महिला समानता से अधिक रूढ़िवादी धारणाएं हावी हैं. यहां लड़कियों की तुलना में लड़कों को अधिक प्राथमिकता दी जाती है. उसके लिए शिक्षा प्राप्त करने और आगे बढ़ने के लिए पूरा समाज प्रयास करता है, जबकि यही समाज लड़कियों के सपनों को घर की चारदीवारियों तक सीमित करना संस्कृति समझता है. वह बार बार लड़कियों को यह याद दिलाता है कि वह पराई है और उसका स्थाई ठिकाना उसका ससुराल होगा. केवल शादी होने तक ही वह इस घर में रह सकती है. यही कारण है कि लड़कियों को पढ़ाई करने के लिए भी स्कूल कम ही भेजा जाता है और बेटों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है.
1686 लोगों की जनसंख्या वाले इस गांव में करीब 60 प्रतिशत उच्च जातियों की संख्या है. जबकि गांव में 60 प्रतिशत साक्षरता की दर है. जिसमें मात्र 25 प्रतिशत ही महिलाएं साक्षर हैं. इनमें भी अधिकतर नई पीढ़ी की किशोरियां शामिल हैं. गांव में महिला शिक्षा के प्रति नकारात्मक सोच किस कदर हावी है इसका एक उदाहरण 46 वर्षीय किशन सिंह हैं. जो बालिका शिक्षा का विरोध करते हुए कहते हैं कि लड़कियों को शिक्षित करने का क्या लाभ? आखिर में तो उसे ससुराल जाकर चूल्हा ही संभालना है. वह लड़कियों की शिक्षा पर अधिक खर्च करने की जगह उसके लिए दहेज़ का पैसा जमा करने का समर्थन करते हैं. वह कहते हैं कि उन्होंने अपनी बेटियों को अधिक शिक्षित नहीं किया और उनकी जल्द शादी करा दी. हालांकि किशन सिंह यह नहीं समझते हैं कि यदि उनकी लड़कियां शिक्षित होती तो वह किसी भी समस्या को आसानी से हल कर सकती हैं.
किशन सिंह के जैसी संकीर्ण सोच के कारण गांव के कई अभिभावकों ने अपनी लड़कियों को शिक्षा जैसी अनमोल उपहार से वंचित रखा है. जिसके कारण कई लड़कियों को अपने सपनों को छोड़ना पड़ा है. इस संबंध में एक किशोरी दर्शनी रावल का कहना है कि “मैं पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी. नौकरी कर उस सोच को ख़त्म करना चाहती थी जो बेटियों को बोझ समझते हैं. जब मैं अपने पिता से नौकरी करने की बात की तो उन्होंने परमिशन देने से साफ़ इंकार करते हुए कहा कि नौकरी करके क्या करना है? आखिर में तो तुम्हें घर ही संभालना है. इसलिए घर का काम सीखो. पिता के इन शब्दों ने मेरे आगे बढ़ने और कुछ करने के हौसले को तोड़ दिया. जिस वजह से मैं अपनी जिंदगी में आगे नहीं बढ़ पाई और आखिर वही हुआ जो हर एक लड़की के साथ होता है. मेरे सपनों को कुचल कर मेरी शादी कर दी गई और आज मैं ससुराल में चूल्हा में उलझ कर रह गई हूँ. दर्शनी कहती है कि पता नहीं हमारे गांव के लोगों की सोच कब बदलेगी? ताकि मेरी जैसी अन्य लड़कियों को भविष्य में इस प्रकार के भेदभाव का सामना न करना पड़े.
हालांकि बदलते समय के साथ बालिका शिक्षा के प्रति कुछ अभिभावकों की सोच में भी परिवर्तन आने लगा है. इसका एक उदाहरण गांव के ही 41 वर्षीय मदन सिंह हैं. जिन्होंने अपनी पांचों बेटियों को उच्च शिक्षा देकर संकीर्ण सोच वाले लोगों को करारा जवाब दिया है. उनकी सबसे बड़ी बेटी की शादी हो चुकी है. जबकि दूसरी बेटी होटल मैनेजमेंट, तीसरी आईआईटी और बाकि अभी स्कूल में शिक्षा ग्रहण कर रही है. मदन सिंह कहते हैं कि उन्होंने कभी भी बेटे और बेटी में अंतर नहीं समझा है. यही कारण है कि वह अपनी सभी बेटियों को उसकी इच्छा के अनुरूप शिक्षित कर रहे हैं. वह कहते हैं कि धीरे धीरे ही सही, लेकिन गांव के लोगों को भी एक दिन बालिका शिक्षा का महत्व समझ में आएगा और सभी लड़कियों को पढ़ने की आज़ादी मिलेगी. गांव की प्रधान हेमा देवी भी बालिका शिक्षा का भरपूर समर्थन करते हुए कहती हैं कि पहले की अपेक्षा गांव में लड़कियों को पढ़ने की आज़ादी मिलने लगी है. हालांकि अभी भी यह पूरी तरह से कामयाब नहीं हुआ है. लेकिन धीरे धीरे समाज किशोरियों को पढ़ने का समर्थन करने लगा है.
बहरहाल, दर्शनी जैसी कई लड़कियां हैं, जिन्हें शिक्षा से केवल इसलिए वंचित कर दिया जाता है क्योंकि वह लड़की है. दरअसल जागरूकता की कमी इस समस्या की सबसे बड़ी वजह है. जिसकी वजह से लोग यह समझते हैं कि लड़कियां शिक्षा से अधिक घर की चारदीवारी और चूल्हा चौका तक ही सीमित रहे. महिलाओं के प्रति समाज के इस सोच को बदलने की ज़रूरत है. (चरखा फीचर)