मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे पूजनीय पिताश्री राणा सखीर चन्द जी कपूर मधियाना जिला झंग में मिडल स्कूल के प्राचार्य थे। समाज में उनका बड़ा सम्मान था। उन दिनों प्राचार्य के प्रति लोग विशेष श्रद्धा रखते थे। सभी लोग उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते थे। घर में पूरी तरह शांति थी। समृद्धि थी। प्रसन्नता थी। संपन्नता थी। हम सब उनके साथ अपने एक स्वर्ग से भी सुंदर घर में रहते थे। ग्रीष्म अवकाश के कारण हम अपने गांव कक्की नौ जो शोरकोट नगरी के पास था, गये हुए थे। वहीं हमारी खेती बाड़ी थी। खेतों का वह दृश्य बड़ा मनोरम होता था। उनकी स्मृतियां अनायास ही मुझे झकझोर डालती हैं। उस समय मैं बहुत छोटी थी और माताजी पिताजी के कंधे चढ़कर कभी कभी अपने खेतों पर जाया करती थी। तब नहीं पता था कि इन खेतों को मैं बहुत अधिक देर तक नहीं देख पाऊंगी । आज उन खेत खलिहानों को देखने के लिए आंखें तरस गई हैं। सचमुच कभी-कभी तो उनकी बहुत याद आती है। जैसे बड़ी उम्र में जाकर मामा के घर की याद आती है, नानी नाना और दूसरे संबंधी जो धीरे-धीरे विलुप्त हो जाते हैं ,पर हमारा पीछा नहीं छोड़ते ,वैसी ही स्थिति अपने खेत खलिहानों को लेकर मेरे लिए आज भी बन जाती है।
पिताजी बचपन के दिनों में हमको संस्कार देने के प्रति बड़े सजग रहते थे। इतिहास की अनेक घटनाओं को वह एक कुशल चितेरे की भांति हमारे मानस पर अंकित करने का हर संभव प्रयास करते थे। पता नहीं, शायद उनको आभास था कि कोई अप्रत्याशित त्रासदी आने वाली है। इसके दृष्टिगत वह हमें बचपन की उस भोर में मानसिक रूप से तैयार रहने के लिए प्रेरित करते रहते थे।
आ गई मुस्लिम गुंडों की टोली
एक दिन अचानक मुसलमानों की भीड़ हमारे घर के सामने एकत्र हो गई थी। शोरकोट से ‘अल्लाह हू अकबर’ चिल्लाने वाले अजनबी स्वरों की आवाज सुनाई दे रही थी। संभवत: उस समय कोई नहीं जान रहा था कि यह भीड़ क्या करना चाहती है और क्यों ऐसे नारे लगा रही है? मेरे छोटे मामा जी श्री राम नारायण मल्होत्रा वहीं रहते थे। गुंडे मुस्लिमों की टोलियां गलियों में घूमती थी। उन्हें देखकर बच्चे सहम जाते थे। बच्चों की भाव भंगिमा बताती थी कि वे भी जानते थे कि स्थिति बहुत प्रतिकूल हैं और हम सबके प्राणों को बड़ा गंभीर संकट है। जिस प्रकार वह हिंदुओं के विरोध में नारे लगाते थे , उससे पता चलता था कि वह हिंदुओं के प्रति कितने अधिक कट्टर थे ? उनकी कट्टरता उनके अत्याचारों को बढ़ाती जा रही थी। हिंदुओं को छुपने या भागने का भी अवसर नहीं मिलता था। उनकी नजरें हिंदुओं की जवान बेटियों और बहुओं पर होती थीं । जिन्हें वह अपने लिए रख लेना चाहते थे। बाकी सब परिवार वालों का कत्ल कर देना उनके लिए एक शौक बन गया था। उनकी दिनचर्या में सम्मिलित हो गया था। उन पर ‘गाजी’ बनने का शौक सवार हो गया था। स्वर्ग में मिलने वाली 72 हूरों का नशा उन्हें मानवता की हत्या करने के लिए प्रेरित कर रहा था।
उनकी सोच केवल एक थी कि हिंदुओं की जमीन – जायदाद और स्त्रियों पर अधिकार कर लो ,जो अल्लाह ने तुम्हें भोगने के लिए दी हैं। कहने का अभिप्राय है कि वह जो कुछ भी कर रहे थे उसे वह पाप न मानकर दीन के रास्ते में किया जाने वाला सबसे उत्तम और पवित्र कर्म मान रहे थे। उनकी स्थिति, मानसिकता सोच और कार्यशैली सभी सांप्रदायिकता की खूनी रंग में रंग चुके थे।
आर्य समाज और मुस्लिम सांप्रदायिकता
मुसलमानों की उस हिंसक भीड़ में से कुछ लोग मेरे मामाजी का नाम लेकर चिल्लाते कि हम अभी उन्हें परिवार सहित काट कर आए हैं। हमारी माता जी अपने भाई के परिवार के इस प्रकार काटे जाने के शब्दों को सुनकर जिस प्रकार रोती थीं, वह देखा नहीं जाता था। उनके आंसू थे कि बंद होने का नाम नहीं लेते थे। मेरे पिता जी को ग्राम में सभी जानते थे। वे कट्टर आर्य-समाजी थे। उस समय आर्य समाजी होना मुसलमानों का सबसे बड़ा शत्रु होना माना जाता था। क्योंकि आर्य समाज ने ही इस्लाम की वास्तविकता को लोगों के सामने उजागर करने का कार्य किया था। यही कारण था कि मुसलमान हिंदुओं में से आर्य समाजी को ढूंढ-ढूंढकर मारने का प्रयास कर रहे थे। प्रत्येक आर्य समाजी को उस समय राष्ट्रभक्ति का धधकता हुआ शोला माना जाता था। मुसलमान यह भली प्रकार जानते थे कि हिंदुओं को शास्त्रार्थ के माध्यम से या हथियार उठाकर विधर्मियों को या विदेशियों को मार भगाने के लिए प्रेरित करने का काम केवल आर्य समाज ने किया है। यही कारण था कि इस्लाम में विश्वास रखने वाले वे सभी संप्रदायिक हिंसक लोग आर्य समाज के लोगों से विशेष शत्रुता रखते थे।
आर्य समाज के प्रति किसी पूर्वाग्रह के चलते मुसलमान चाहते थे सबसे पहले मेरे पिताजी को ही ‘कलमा’ पढ़ाया जाए और यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनका हाल भी वही कर दिया जाए जो मेरे मामा जी का कर दिया गया था।
पिताजी ने लिया अपने जीवन का सबसे कठोर निर्णय
हिंसक बने मुसलमानों को यह विश्वास था कि यदि मेरे पिताजी को मुसलमान बना दिया गया तो सारा गांव अपने आप मुसलमान बन जाएगा। ऐसी विकट परिस्थिति में पिताजी ने बहुत ही साहसिक लेकिन अप्रत्याशित निर्णय लिया। उन्होंने निश्चय कर लिया कि इससे पहले कि मुसलमान मेरे परिवार की महिलाओं, बेटियों और बच्चियों को हाथ लगाएं, उनका वध मैं स्वयं कर दूं । मेरे पिताजी के लिए ऐसा निर्णय लेना कितना कष्टकर रहा होगा ? यह तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। क्योंकि वह बहुत ही सात्विक विचारधारा के वैदिक सिद्धांतों में विश्वास रखने वाले शाकाहारी मनुष्य थे। हिंसा उनके विचारों में दूर-दूर तक नहीं थी, परंतु ‘आपद्धर्म’ को समझते हुए उन्होंने उस समय ऐसा निर्णय लिया। प्रत्येक आर्यवीर की भांति उस समय उनके लिए प्राणों से बढ़कर धर्म हो गया था । धर्म की रक्षा इसी में थी कि कोई भी विधर्मी परिवार की किसी भी महिला को हाथ ना लगा पाए।
पिताजी शस्त्र और शास्त्र दोनों के उपासक थे। वह जानते थे कि जब शस्त्र की आवश्यकता हो और वह अपने ऊपर ही चलाना पड़े तो ऐसा करना भी धर्म होता है। मैं नहीं जानती कि उनके भीतर उस समय कैसे-कैसे मनोभाव बनते बिगड़ते रहे होंगे और उनकी मानसिक दशा ऐसे कठोर निर्णय को लेते समय कैसी रही होगी ? पर मैं इतना अवश्य जानती हूं कि धर्मवीर योद्धा की भांति वह कर्तव्य के निर्वाह को प्राथमिकता देने वाले व्यक्ति थे। भावुकता को पीछे छोड़ कर उन्होंने कर्तव्य को प्राथमिकता दी और उनका यह कर्तव्य निर्वाह ही उनके लिए उस समय राष्ट्रधर्म बन गया था। मैं आज तक अपने आप पर इस बात के लिए गर्व अनुभव करती हूं कि मैं ऐसे एक धर्मवीर महायोद्धा, राष्ट्र धर्म के संवाहक पिता की संतान हूं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)
मुख्य संपादक, उगता भारत