पितृपक्ष की सार्थकता एवं वास्तविकता
श्राद्ध, तर्पण , दान सुपात्र को कुपात्र को नहीं, देव, देवी ,देवता, ऋषि,परम देव, मूर्ख,आदि पर आलेख।
सुविख्यात अभिनेता अमिताभ बच्चन के पास एक प्रतिष्ठित संस्था गुरुकुल एवं सामाजिक संस्था के संचालक एवं अधिष्ठाता रवि कावरा जी बैठे हैं। तथा एक वीडियो इस विषय की बनाई गई।
जब मैं वह वीडियो सुन रहा था तो वास्तव में मुझे ऐसा अनुभव होने लगा कि हम भारत के लोग क्या से क्या हो गए?
हम किधर जा रहे हैं?
अभी और कितना पतन इस समाज का होना बाकी है?
परंतु साथ ही साथ मैं उन श्रवण कुमारों को भी नमन करता हूं जो माता-पिता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं। जो अपने हाथों से अपने माता-पिता की गंदगी साफ करते हैं। कपड़े हमेशा स्वच्छ और साफ पहनाते हैं।माता-पिता को दाग नहीं लगने देते हैं। माता-पिता चाहे कितने बीमार हो जाएं सारे काम छोड़कर उनकी सेवा करते हैं।
परंतु इसी भारत में एक दूसरी तस्वीर भी है जिसके दर्शन करना भी आवश्यक है ।ऐसे लोगों को सन्मार्ग पर लाने के लिए उनकी आलोचना और सामाजिक बहिष्कार भी किया जाना उचित होगा ,जो माता-पिता की सेवा नहीं करते हैं अथवा सेवा करते करने का ढोंग ही करते हैं।
रवि कावरा जी अमिताभ जी को बताते हैं कि” हमारे भारतवर्ष में ऐसी संतान भी हैं जो अपने माता-पिता के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं करते। माता-पिता को अनाथ छोड़ देते हैं ।माता-पिता की माता-पिता की पिटाई करते हैं। रोगी होने पर दवाई नहीं दिलवाते। सड़क पर अनाथ छोड़ जाते हैं।”
उन्होंने ऐसा भी सुनाया कि
” एक व्यक्ति अपनी माता को लेकर गुरुकुल आश्रम में आया, उसने अपनी माता को बाथरूम में 5 वर्ष तक इसलिए बंद रखा कि वह माता अपनी संपत्ति को बेटे के नाम कर दे”।
एक अन्य प्रकरण में ऐसा संस्मरण सुनाया कि “जब एक व्यक्ति अपनी माता को लेकर आया तो उनका वजन केवल 12 किलो रह गया था ,जो भूख- प्यास से तड़पा रखी थी।”
एक संस्मरण यह भी सुनाया गया कि “एक पुत्र अपने पिता से धोखे से उसकी संपत्ति बेच कर अमेरिका चला गया और अपने पिता को एक कमरे को किराए पर लेकर उसमें छोड़ गया तथा उसमें मोटे-मोटे चूहे छोड़ दिए।”
ऐसे अनेक उदाहरण उन्होंने आरोग्य संतानों के सुनाए।
रवि कावरा जी ने बताया कि “आज तक वे 6000 लोगों का दाह संस्कार करा चुके हैं।अनाथों की सेवा अपने गुरुकुल में करते हैं। आज की संतान अपने माता-पिता को वृद्ध आश्रम में अथवा गुरुकुल में छोड़ने के पश्चात देखने को नहीं आते हैं माता-पिता की मृत्यु की सूचना देने पर भी नहीं आते। यहां तक की अस्थि विसर्जन के लिए भी नहीं आते।”
मेरे अनुभव में भी कुछ ऐसी बातें आई है कि आज हमारे भारतवर्ष में यह प्रचलन भी खूब चल चुका है कि दाह संस्कार करने के लिए माता-पिता अपने जीवित रहते हुए अपने दाह संस्कार का खर्चा एक संस्था के पास जमा कर देते हैं ,जो मृतक होने पर उनका सही से दाह संस्कार कर सके ।आपको सुनकर बहुत ही आश्चर्य होगा कि हम उस भारत के निवासी हैं जिसमें मृतक देह के रोने के लिए भी लोग किराए पर मिलते हैं।
अनुभव में यह भी आया है कि श्रवण के मास में अपने पिता से झगड़ा करके , यहां तक की जमीन अथवा कोई आभूषण गिरवी रखवा कर,पैसा वसूल कर कांवर लेने के बहाने मौज मस्ती करने, नशा करने ,भांग पीने के लिए युवक जाते हैं।
अगर हम श्रद्धा के सही अर्थ को उचित संदर्भ में लें तो इसमें अपने जीवित पितरों के कल्याण और सेवा का भाव छिपा है।
इसलिए आज आवश्यकता है पितृपक्ष की सार्थकता को वास्तविकता को समझने की।
पितृ पक्ष के काल में बहुत से साथी समाचार पत्रों में अपने माता-पिता के प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रकट करते हैं ,तथा उनके जीवन की कुछ न कुछ अच्छाई ग्रहण कर उन्नति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा लेते हैं।
इस लेख को आज इसी उद्देश्य से मैंने लिखा है।
पितृ- यज्ञ, पितृ- तर्पण, देव -तर्पण, ब्रह्मचर्य व्रत धारी, श्रोत्रिय ,अनूचान,ऋषि, कल्प, भ्रूण, देव और परम देव को महर्षि दयानंद -कृत अमर- ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास का जब अध्ययन कर लें , उसके वास्तविक अर्थ को समझ लें तो न तो कोई इसको हल्के में लेगा और न हीं कोई इसके अर्थ का अनर्थ कर सकेगा। इसी विश्वास के साथ हम लिखना चाहते हैं।
मुख्य पाठ पर आने से पहले कुछ परिभाषाएं प्रस्तुत करना चाहूंगा जो निम्न प्रकार हैं।
शंका —जिसका केवल यज्ञोपवीत हुआ हो उसे क्या कहते है?
समाधान—- उसे ब्रह्मचर्य व्रत धारी कहते हैं।
शंका—+ऐसा ब्रह्मचर्यव्रतधारी यदि वेदों का कुछ भाग पढ़ ले तो उसको क्या कहते हैं?
समाधान —ऐसे ब्रह्मचर्यव्रतधारी को ब्राह्मण कहते हैं।
शंका—जो वेदों की एक संपूर्ण शाखा को पढ़ ले उसे क्या कहते हैं?
समाधान —+उसे श्रोत्रिय कहते हैं।
शंका—वेदों के कुछ अंगों को पढ़ने वाला क्या कहा जाता है?
समाधान —उसको अनूचान कहते हैं।
शंका— जो कल्प के पढ़ने वाला हो उसे क्या कहते हैं?
समाधान— उसे ऋषिकल्प कहते हैं।
शंका—सूत्रों और भाष्यों के पढ़ने वाले को क्या कहते हैं?
समाधान— उसे भ्रूण कहते हैं।
शंका—चारों वेदों के पढ़ने वाले को क्या कहते हैं?
समाधान –उसको ऋषि कहते हैं।
शंका—ऋषि से आगे क्या पदवी है।
समाधान—- ‘देव ‘कहा जाता है।
शंका ——देव से भी आगे क्या पद है?
समाधान—- उसे परम विद्वान कहते हैं।
यद्यपि देव आदि शब्दों की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं की जाती रही हैं किंतु इन सब परिभाषाओं का निष्कर्ष एक जैसा ही है।
शंका—पितृ यज्ञ क्या होता है?
समाधान —-जिसमें देव, विद्वान ऋषि जो पढ़ने पढ़ने वाले होते हैं की सेवा करनी चाहिए। हमारे पितर जो माता-पिता आदि वृद्ध, ज्ञानी और परमयोगी होते हैं उनकी भी सेवा करनी चाहिए।
शंका—-“पितर “शब्द को और स्पष्ट करें?
समाधान —पितर शब्द का बहुत ही व्यापक अर्थ है । अर्थात वह अपने माता-पिता तक ही सीमित नहीं है। बल्कि उसमें माता-पिता के अतिरिक्त कोई भी वृद्ध, ज्ञानी और परम योगी हो वह भी पितर की परिभाषा में सम्मिलित है।
अर्थात इसका सीमित अर्थ न करें। इसको संकुचित अर्थ में ना लें।
शंका—–पितर -यज्ञ कितने प्रकार के होते हैं?
समाधान-+-पितर -यज्ञ दो प्रकार के होते हैं। पहला श्राद्ध और दूसरा तर्पण।
शंका—-श्राद्ध शब्द का अर्थ बताएं?
समाधान- इसके लिए पहले श्रत् शब्द को समझ लें। श्रद्धा पद का संधि विच्छेद कर लें ।इसमें ‘श्रत्’ और ‘धा ‘ दो शब्द हैं।’श्रत्’ का अर्थ सत्य है।
और ‘धा ‘शब्द का अर्थ धारण करने से अथवा ग्रहण करने से है।
इन दोनों के संधि करने से श्रद्धा शब्द की उत्पत्ति होती है।
शंका —श्राद्ध क्या है?
समाधान—- श्राद्ध का अर्थ होता है कि जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाए उसको श्रद्धा और जो श्रद्धा से कार्य किया जाए उसका नाम श्राद्ध है।
शंका —तर्पण क्या है?
समाधान—- जिस -जिस कर्म से माता-पिता, ऋषि, वृद्ध, ज्ञानी, परम योगी तृप्त होते हैं अर्थात प्रसन्न होते हों तथा प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हों, आशीष देते हों, उसी का नाम तर्पण है।
शंका—यह श्राद्ध और तर्पण मृतकों के लिए है अथवा जीवितों के लिए है?
समाधान—-श्रद्धा जीवित के लिए होती है मृतकों के लिए नहीं होती ।तर्पण भी जीवितों का होता है क्योंकि जो जीवित होंगे उन्ही की सेवा हो सकती है ।मृतक की सेवा नहीं हो सकती। अथवा जो वृद्ध, ज्ञानी, परम योगी और माता-पिता जीवित होते हैं उन्हीं के प्रति श्रद्धा हो सकती है।
शंका —तो फिर देव तर्पण क्या है?
समाधान —-शतपथ ब्राह्मण 3/7/3/10 में ऐसा उल्लेख है कि जो विद्वान हैं, उन्हीं को ‘देव,’ कहते हैं ।जैसा ऊपर भी बताया जा चुका है। अर्थात जो चारों वेदों के संपूर्ण जानने वाले हों उनका नाम ब्रह्म और जो उस कम पढे हों उनका भी नाम देव अर्थात विद्वान हैं ।उनके समान उनकी विदुषी स्त्री ब्रह्माणी देवी और उनके गुण कर्म स्वभाव के अनुसार ही पुत्र एवं शिष्य तथा उन्हीं के समान उनके सेवक हों, उनकी भी सेवा करना श्राद्ध और तर्पण है।
शंका—ऋषि तर्पण क्या है? समाधान—-जो ब्रह्मा के पुत्र आदि विद्वान होकर पढाऐं,उनके समान विद्या युक्त उनकी स्त्रियां कन्याओं को विद्याध्यन करायें, उनके पुत्र ,शिष्य और उनके ही समान सेवक हों, उन सबका सेवन और सत्कार करना ऋषि तर्पण है।
शंका—पितृ तर्पण क्या है?
समाधान—जो परमात्मा और पदार्थ विद्या में निपुण हों, जो अग्नि विद्युत आदि पदार्थों के जानने वाले हों, जो उत्तम विद्या वृद्धि युक्त व्यवहार में स्थित हों, जो ऐश्वर्यादि के रक्षक और औषधि रस का पान करने से रोग रहित और अन्य के ऐश्वर्य के रक्षक औषधियों को देकर रोग नाशक हों, जो मादक और हिंसा कारक द्रव्यों को छोड़कर भोजन करने वाले हों, जो जानने के योग्य वस्तु के रक्षक और घृत,दुग्ध आदि खाने-पीने वाले हों, जिनका अच्छा धर्म करने का सुख रूप समय हो ,जो दुष्टों को दंड और श्रेष्ठों का पालन करने वाले न्यायकारी हों, जो संतानों का अन्न और सत्कार से रक्षक वा जनक हो, जो पिता का पिता हो, और जो पितामह का पिता हो, जो अन्न और सत्कारों से संतानों को मान्य करें माता , अथवा जो पिता की माता हो, अपनी स्त्री तथा भगिनी तथा अन्य कोई भद्र पुरुष या वृद्ध हो, उन सबको अत्यंत श्रद्धा से उत्तम अन्न ,वस्त्र ,सुंदर यान आदि देकर अच्छे प्रकार जो तृप्त करना अर्थात जिस कर्म से उनकी आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहे, उस -उस कर्म से प्रीति पूर्वक उनकी सेवा करनी वह श्राद्ध
और तर्पण कहा जाता है।
लेकिन यह सब जीवित माता-पिता, दादा- दादी ,नाना- नानी, कोई भी विद्वान परोपकारी मनुष्य,,गुरु , वृद्ध,योगी, परम योगी, देव, परम विद्वान, पितामह, प्रपितामह, पितामही, प्रपितामही के लिए ही है ।इनके मरने के उपरांत कोई श्रद्धा नहीं होती। तो कोई श्राद्ध भी नहीं होता। और नहीं तर्पण माना जाता।
क्योंकि मनुष्य का अन्य मनुष्य से संबंध केवल तब तक है जब तक वह जीवित है। मरने के पश्चात उसका उनसे कोई भी नाता नहीं रहता ।मरने के पश्चात निमित्त किए हुए दान- पुण्य आदि का फल भी उसे मरने वाले को नहीं मिलता ।किसी भी शुभ -अशुभ कर्म का फल उसके करता को ही मिला करता है ,किसी अन्य को नहीं मिलता। यह ईश्वर की व्यवस्था में उसके न्याय में हस्तक्षेप करने के समान होगा। हम जानते हैं कि ईश्वर न्यायकारी है । उसको इसलिए न्यायकारी कहा जाता है कि वह प्रत्येक जीव को उसके कर्मों का उचित फल देता है। उस ईश्वर के न्याय में किसी की कोई सिफारिश नहीं चलती ।ईश्वर कोई उत्कोच (रिश्वत )नहीं लेता। किसी मनुष्य के द्वारा लिया गया दान का पैसा ईश्वर तक नहीं पहुंचता ,ना ईश्वर उसको कभी स्वीकार करता। ईश्वर और आत्मा के बीच में कोई मध्यस्थ (बिचौलिया) नहीं हो सकता।इस प्रकार उस ईश्वर के न्याय में कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। लेकिन जो ऐसा कहता है ,वह केवल पाषंडी( जो पाषाण पूजा अर्थात मिथ्याज्ञान के कारण मूर्ति -पूजा करते और कराते हैं, इसी शब्द का अपभ्रंश पाखंडी शब्द बना )है। यह केवल दुकानदारी है। वह भी केवल जठराग्नि को शांत करने के लिए है।
माता-,पिता ,आचार्य ,अतिथि, एवं दंपति केवल पांच ही देव पूजने के योग्य होते हैं।
श्राद्ध और तर्पण के नाम पर पाषँडी(पाखंडी) से बचें। पाषंडी उनको कहते हैं जो वेदनिंदक हैं, जो वेद के विरुद्ध आचरण करते हैं ,जो वेद विरुद्ध कर्म करता है ,जो मिथ्या भाषण करता है, जो प्राणियों को मार कर अपना पेट भरता है, जो हठी है, जो दुराग्रही है ,अभिमानी, कुतर्क करने वाला, जो कहता है ब्रह्म और जगत मिथ्या है ,वेद आदि शास्त्र और ईश्वर को भी कल्पित कहता हैं ,जो बगुला भगत है, ऐसे अधर्म -युक्त लोगों से बचें।
जो तप रहित है, जो बिना पढ़ा लिखा है ,जो दूसरे से दान लेने में रुचि रखता है, यह तीनों पत्थर की नौका से समुद्र में उतरने के समान अपने दुष्कर्मों के साथ ही दुःख सागर में डूबते हैं। लेकिन वह तो डूबता ही हैं परंतु दानदाताओं को भी डूबा देते हैं। ऐसे लोगों को दान देना सर्वथा अनुचित है ।जैसे पत्थर की नौका में बैठकर जल में तैरने वाला डूब जाता है वैसे ही अज्ञानीदाता और ग्रहिता दोनों अधोगति अर्थात दुख को प्राप्त होते हैं ।इसलिए ऐसे पाखंडियों को तर्पण करते समयदान ना दें अथवा श्राद्ध के नाम पर भी ना दें।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट चेयरमैन उगता भारत समाचार पत्र नोएडा
चल भाष
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