- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को 1964 में जम्मू कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान से गोलमेज़ कान्फ्रेंस करने के लिए पाकिस्तान भेजा था । इसकी चर्चा यथास्थान की जाएगी । अब श्रीनगर की जामिया मस्जिद के मीरवाइज सैयद उमर फ़ारूक़ ने आग्रह किया है कि कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान से बातचीत कर लेनी चाहिए । वे काफी लम्बे अरसे बाद 22 सितम्बर 2023 को मस्जिद में आए थे । वे इस मस्जिद से अपने भक्तों को प्राय सम्बोधित करते रहते हैं और उन्हें दिशा निर्देश भी देते रहते हैं । मीर का अर्थ मुख्य होता है जिसे अंग्रेज़ी में चीफ़ भी कह सकते हैं । वाइज़ का अर्थ प्रचारक है । लेकिन यहाँ प्रचारक का अर्थ इस्लाम का प्रचारक है । मीरवाइज यानि इस्लाम का मुख्य प्रचारक । मीरवाइज मस्जिद में मुसलमान बच्चों को मजहब की शिक्षा भी देते हैं । लेकिन पिछले आठ नौ दशकों में उन्होंने कश्मीर कि राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभानी शुरु कर दी है । 1931 में मुस्लिम कान्फ्रेंस की स्थापना में भी एक मीरवाइज का ही हाथ था । श्रीनगर में दो मीरवाइज हैं । एक तो जामिया मस्जिद के मीरवाइज हैं और दूसरे खानगाहे मौला के मीरवाइज हैं , उन्हें मीरवाइज हमदानी भी कहा जाता है । लेकिन इन दोनों मीरवाइजों के पूर्वज सैयद अली हमदानी हैं । हमदानी ईरान में तैमूरलंग के सताए हुए थे । उसी के डर से वे भागकर कश्मीर आ गए थे । लेकिन अब सैयद अली हमदानी की संतानें दो भागों में बँट चुकी हैं । एक जामिया मस्जिद में मीरवाइज है और दूसरा खानगाहे मौला में मीरवाइज़ है । इतना लम्बा कालखंड गुज़र जाने के कारण , अब ये परस्पर विरोधी ही नहीं हैं , बल्कि कई बार इनके भक्त आपस में मारपीट भी करते हैं । ये दोनों मीरवाइज मुसलमानों की अशरफ/एटीएम श्रेणी से आते हैं । मुसलमानों की अशरफ या एटीएम श्रेणी में अरब , तुर्क व मुगल मंगोल मूल के मुसलमान आते हैं । कश्मीर विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष रहे स्व० बशीर अहमद डाबला इन्हें muslims of foreign origin कहते हैं । कश्मीर में मुसलमानों का दूसरा बहुत बड़ा समूह डीएम या देसी मुसलमानों का है । ये स्थानीय लोग हैं जो पिछले छह सौ साल में किन्हीं भी कारणों से अपनी विरासत छोड़ कर इस्लाम पंथ में चले गए थे । पिछले दिनों जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने यह बात कही भी थी । आज़ाद देसी मुसलमानों की जमात से ताल्लुक रखते हैं । अशरफ मुसलमान देसी मुसलमानों को अलजाफ/पसमांदा/ अरजाल न जाने क्या क्या कहते हैं । कश्मीर घाटी में मीरवाइजों को एटीएम/अशरफ मूल के मुसलमानों का नेता भी माना जाता है । एटीएम और डीएम में प्राय झगड़ा भी होता रहता है । कई बार तो झगड़ा जरुरत से ज्यादा भी बढ़ जाता है । कई दशक पहले झगड़ा उतना बढ़ गया था कि कश्मीर के देसी मुसलमानों ने स्वयं को शेर और मीरवाइज के अशरफ मुसलमानों को बकरा कहना शुरु कर दिया था । परोक्ष रूप से शेर-बकरा का यह झगड़ा किसी न किसी रूप में आज तक चला हुआ है । 1947 में जामिया मस्जिद के मीरवाइज मोहम्मद युसूफ शाह भाग कर पाकिस्तान चले गए थे । पाकिस्तान सरकार ने उन्हें तथाकथित आज़ाद कश्मीर का राज्यपाल भी बनाए रखा । उस वक़्त कशमीर के देसी मुसलमानों ने आवाज भी उठाई थी कि अब मीरवाइज का पद किसी देसी मुसलमान को मिलना चाहिए । लेकिन यह पद आज तक परम्परागत ही चला आ रहा है । वर्तमान मीरवाइज सैयद उमर फ़ारूक़ के पिता को आतंकवादियों ने गोली से उड़ा दिया था । वे वैसे तो आतंकवादियों की बोली ही बोलते थे लेकिन बीच में उन्होंने पाकिस्तान द्वारा निर्धारित रास्ते से एक दो क़दम अलग से चलने की कोशिश की थी , जिसका खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा । उमर फ़ारूक़ लम्बे अन्तराल के बाद 22 सितम्बर 2023 को जामा मस्जिद में अपने श्रद्धालुओं के बीच पहुँचे थे । रिकार्ड के लिए वे अभी भी तथाकथित हुर्रियत कान्फ्रेंस के अध्यक्ष हैं । वहाँ उन्होंने कश्मीर की आजकल की राजनीति को लेकर भी सुझाव दिए । उनका मानना था कि कश्मीरी हिन्दु वापिस कश्मीर में आ सकें , इसके लिए माहौल बनाना चाहिए । उनका कहना था कि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान से बात करनी चाहिए । ऐसा सुझाव पिछले दिनों फारुख अब्दुल्ला और उनके सुपुत्र उमर अब्दुल्ला भी दे चुके हैं । यहाँ तक की पीडीपी की अध्यक्षा सैयदा महबूबा मुफ़्ती भी यही बात कह चुकी हैं । इन लोगों का यह सुझाव सचमुच काम का है और ये लोग इसमें महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकते हैं । जम्मू कश्मीर व लद्दाख का बहुत बड़ा हिस्सा पाकिस्तान ने बलपूर्वक अपने कब्जे में रखा हुआ है । उसको लेकर पाकिस्तान से तीन लडाईयां भी हो चुकी हैं । लेकिन उसके बावजूद जम्मू कश्मीर व लद्दाख का वह हिस्सा मुक्त नहीं करवाया जा सका । सभी मानते हैं कि लडाई की बजाए शान्ति से मसलों का हल होना चाहिए । यदि पाकिस्तान बल पूर्वक क़ब्ज़ाए गए हिस्से शान्ति पूर्ण तरीक़े से छोड़ दे तो मसले का इससे बेहतर क्या हल हो सकता है ? लडाई के मैदान में जाने की बजाए मेज पर बैठ कर पाकिस्तान से इस विषय पर बातचीत कर लेनी चाहिए कि वह प्रदेश के क़ब्ज़ाए गए हिस्से पर कब्जा कब छोड़ेगा । लेकिन पाकिस्तान से बातचीत करने से पहले वार्ताकारों को स्वयं कम से कम दो तथ्य स्पष्ट होने चाहिए । पहला तो यह कि पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर और लद्दाख के कुछ हिस्से पर 1947 से कब्जा किया हुआ है । दूसरा यह कि पाकिस्तान से बातचीत करते समय एजेंडा क्या होना चाहिए । जहाँ तक पहले तथ्य का सवाल है , तो मीरवाइज , सैयदा महबूबा मुफ़्ती , फारुख अब्दुल्ला , उमर अब्दुल्ला इतना तो जानते ही होंगे कि पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर और लद्दाख के कुछ हिस्सों पर कब्जा किया हुआ है । मीरवाइज के पितामह पाकिस्तान में जाकर तथाकथित आज़ाद कश्मीर के सदर हो गए थे । अब्दुल्ला और मुफ़्ती प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं । प्रदेश के मानचित्र से ही पता चल गया होगा कि पाकिस्तान ने कितना हिस्सा हड़पा हुआ है ।
दूसरा प्रश्न है बातचीत के एजेंडे का । यह एजेंडा भारत की संसद ने दशकों पहले नियत कर दिया था । संसद ने प्रस्ताव पारित किया हुआ है , जिसमें मुफ़्ती और अब्दुल्ला दोनों परिवारों की हिस्सेदारी है , कि पाकिस्तान से क़ब्ज़ाया गया जम्मू कश्मीर का हिस्सा उससे मुक्त करवाना है । ऐसा नहीं कि भारत ने कश्मीर को लेकर , इससे पहले पाकिस्तान से बातचीत का प्रयास नहीं किया । फ़ारूख अब्दुल्ला तो जानते ही हैं कि 1964 में पंडित जवाहर लाल नेहरु ने उनके पिता मरहूम शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को बातचीत के लिए पाकिस्तान भेजा था । लेकिन तब भारत ने देशी विदेशी शक्तियों के दबाव या बहकाने में आकर अपने एजेंडा में परिवर्तन कर लिया था । यह परिवर्तन था कि जम्मू कश्मीर का जितना हिस्सा पाकिस्तान के पास है वह उसी के पास रहने दिया जाए और वास्तविक नियंत्रण रेखा को दोनों देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए । लेकिन क़ुदरत को ही शायद एजेंडा में यह परिवर्तन मंज़ूर नहीं था । शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब से इस एजेंडा पर बातचीत कर ही रहे थे कि पंडित नेहरु का देहान्त हो गया । तब से लेकर अब तक हालात में अनेकों परिवर्तन हो गए । पाकिस्तान ही टूट गया । पूर्वी बंगाल उससे अलग हो गया । बलूचिस्तान व खैबर पख्तूनिस्तान अलग होने की कोशिश में लगे हैं । जम्मू कश्मीर को लेकर भारत भी मूल एजेंडा पर पहुँच गया है । संसद में प्रस्ताव पास कर इसे स्पष्ट भी कर दिया है । इस एजेंडा पर पाकिस्तान गोलमेज़ कान्फ्रेंस करने में कोई नुक़सान नहीं है । पिछली बार बातचीत करने के लिए नेहरू ने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को भेजा था , इस बार उन्हीं के पुत्र और पौत्र फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला को भेजा जा सकता है । बस इतना ही बातचीत का एजेंडा उन्हें स्पष्ट रहना चाहिए । वैसे इस डेलीगेशन में मीरवाइज और महबूबा मुफ़्ती को भी ले लेना चाहिए ।
मीरवाइज और महबूबा मुफ़्ती तो सैयद वंश से ताल्लुक रखते हैं । कहा जाता है कोई इस्लामी देश सैयदों की बात टाल नहीं सकता । भारत सरकार को चाहिए कि मीरवाइजों , मुफ़्ती और अब्दुल्ला परिवार के प्रतिनिधि मंडल को पाकिस्तान के पास भेजना चाहिए । पाकिस्तान के साथ जिस बातचीत का सुझाव ये दे रहे हैं , उस बातचीत से यदि ये पाकिस्तान के जम्मू कश्मीर का क़ब्ज़ाया हुआ हिस्सा वापिस ले आते हैं तो उससे उत्तम क्या हो सकता है ?
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