( जूम मीटिंग के माध्यम से चल रहे मेरे एक भाषण में जब मैंने देश विभाजन के समय की घटनाओं का उल्लेख किया और बताया कि किस प्रकार उस समय लगभग 20 लाख हिंदुओं को मार दिया गया था, तब उस मीटिंग में उपस्थित रहीं माताजी आर्या चंद्रकांता जी की आंखें सजल हो उठीं और वे अतीत की स्मृतियों में खो गईं । उन्होंने उस समय बहुत कुछ लुटता , पिटता, कटता और मिटता देखा था। उसके पश्चात उन्होंने अपनी ओर से उस मीटिंग में 2 मिनट अपनी बात रखने का प्रयास किया पर उनकी आंखों से बह चली अश्रुधारा ने बहुत कुछ स्पष्ट नहीं कहने दिया। यद्यपि उनके आंसू बहुत कुछ बयान कर रहे थे कि दर्द बहुत गहरा है। तब मैंने उनसे निवेदन किया कि वह अपने कटु अनुभवों को हमारे साथ सांझा करें। जिन्हें हम इस पुस्तक में प्रकाशित करेंगे। बस, उसी का परिणाम है यह लेख। आर्या चंद्रकांता जी से उनके अनुभवों को सांझा करने के पश्चात इसका संपादन मेरे द्वारा किया गया है। हमारा प्रयास है कि उस समय की वस्तुस्थिति लोगों के सामने आए और उन्हें पता चले कि 1947 का सच क्या था ? देश के विभाजन की पीड़ा कितनी भयावह थी और हमारे लोगों को किस प्रकार की त्रासदी से गुजरना पड़ा था ? आर्या चंद्रकांता जी देश के विभाजन के समय 5 वर्ष की थीं। उसके उपरांत भी उन्होंने कई चीजों का बड़ी सजीवता से वर्णन किया है।
– लेखक )
14 अगस्त 1947 को भारत का बंटवारा हुआ। अंग्रेजों ने देश का बंटवारा करने में बड़ी चालाकी से काम लिया था। उन्होंने पहले अपना मनचाहा एक अलग देश अर्थात पाकिस्तान बनाया और फिर मूल देश अर्थात भारत को आजाद किया। इससे पता चलता है कि अंग्रेज इस बात की पूरी योजना बनाए हुए थे कि उन्हें हिंदुस्तान का बंटवारा करना ही करना है। अपनी योजना को सफल बनाने के लिए उन्होंने पाकिस्तान को पहले जन्म लेने दिया। उन्हें डर था कि यदि आपने हिंदुस्तान को पहले आजाद किया और फिर हिंदुस्तान पर इस बात को छोड़ दिया कि वह पाकिस्तान का हिस्सा अलग करता है कि नहीं, तो यह घाटे का सौदा भी हो सकता है। कुल मिलाकर अंग्रेज मुस्लिम लीग के साथ मिलकर अपनी योजना को अपने हाथ में सत्ताधिकार रहते हुए निपटा देना चाहते थे।
बड़ी कष्टकारी त्रासदी थी वह….
जिन लोगों ने हिंदुस्तान की सीमाओं को ईरान और अफगानिस्तान से मिलते हुए देखा था, उनके लिए विभाजन की नई रेखा बहुत ही कष्टकारी थी। आज के पाकिस्तान में रहने वाले उस समय के अनेक हिंदुओं को इस बात की कल्पना भी नहीं थी कि उन्हें कभी अपने देश को ही छोड़कर उजड़ना पड़ेगा और फिर अपने ही देश अर्थात हिंदुस्तान में जाकर शरण लेनी पड़ेगी। सचमुच वह बहुत भयानक त्रासदी थी। लोग रो रहे थे, चीख रहे थे, चिल्ला रहे थे। अपने ही लोगों से बिछुड़ने का उन्हें गहरा सदमा था । अपने जिस देश के लिए वह चल दिए थे, उसमें वह सुरक्षित पहुंच भी पाएंगे या नहीं, वह कुछ नहीं जानते थे। उन्हें इस बात का भी कोई भरोसा नहीं था कि यदि वे हिंदुस्तान सुरक्षित पहुंची भी गए तो वहां पर उनका काम धंधा कैसा जमेगा, चलेगा ? गमों की स्याह रात्रि उनके चारों ओर पसर चुकी थी। नहीं पता था कि इस गहरी स्याह रात का सवेरा होगा भी कि नहीं।
उस समय सब कुछ अनिश्चित था। भरोसा साथ छोड़ रहा था। विश्वास डगमगा चुका था। देश टूटने का गम था । देश छोड़ने का गम था और सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाने की बहुत बड़ी चुनौती थी। इस दौरान मौत और जिंदगी लुकाछिपी का खेल खेलते रहे। कभी जीवन की आस दिखाई देती थी तो कभी दीया बुझता हुआ दिखाई देता था। लोगों ने कल्पना की थी कि जब आजादी आएगी तो सुख, समृद्धि, वैभव सब उनके चारों ओर बिखर जाएगा। उन्होंने यह तो सोचा भी नहीं था कि आजादी भयानक बर्बादी के रूप में उनके प्राणों का सौदा करती हुई आएगी ।
डरावनी आजादी
लाखों लोगों के खून के गारे में सनी आजादी जब आई तो उसका चेहरा इतना डरावना था कि उसे देखकर हर कोई सहम गया था। लोगों के लिए वह डरावनी आजादी पूरी तरह बेमानी हो चुकी थी । उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि जब आजादी आएगी तो वे लाशों के जंगल में अपने आपको अकेला देख रहे होंगे। सचमुच ऐसी आजादी की लोगों ने कल्पना तक नहीं की थी। लोगों के सपने कुछ और थे और उस समय उन्हें मिल कुछ और गया था।
अपने पिताजी से मुझे बहुत कुछ सुनने को मिला था। वह इतिहास के एक गंभीर विद्यार्थी थे। वह बताया करते थे कि किस प्रकार अपने भारत देश की रक्षा के लिए, धर्म और संस्कृति की रक्षार्थ लोगों ने यहां रहकर सदियों से अपने अप्रतिम बलिदान दिए हैं ? उन बलिदानों के कारण देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने का कार्य किया गया है। पर उस समय हम जो कुछ देख रहे थे उससे लगता था कि हमारे पूर्वजों के सब बलिदान व्यर्थ गए। आज देश भी टूट रहा है, धर्म और संस्कृति पर भी अप्रत्याशित खतरा मंडरा रहा है और हम सबके प्राण भी संकट में हैं।
वे दुखद दृश्य
जो कुछ मिला था उसकी कड़वी यादें अब तक मन को कचोटती हैं। उस समय मैं मात्र 5 वर्ष की थी। इसके उपरांत भी मेरे मानस में उस समय के भयावह दृश्य मानो जीवन भर के लिए स्थायी डेरा डाल कर बैठ गए। जैसे ही वे चित्र मेरे मानस में उभरते हैं एक अजीब सी सिहरन अभी तक मेरे शरीर में बिजली की तरह कौंध जाती है। कुछ ऐसे दृश्य हैं जिन्होंने मेरे मानस के साथ अपना स्थायी संबंध स्थापित कर लिया है। जिन्हें मैं भूलना चाहती हूं पर वे भूले नहीं जाते। जीवन में ऐसे अनेक क्षण या दृश्य आते हैं जो अंतर्मन को छू जाते हैं और उनमें से भी कुछ ऐसे होते हैं जो अंतर्मन में अपना डेरा डाल लेते हैं। जब भी प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त को हमारा स्वाधीनता दिवस आता है, और देश उस समय ढोल नगाड़ों की मस्ती में झूमने लगता है, तब मेरे मानस में स्थायी डेरा डाले हुए वे दृश्य अनेक गमगीन चेहरों को लेकर मुझे भीतर से हिला डालते हैं। मैं खो जाती हूं अतीत की उन भूली बिसरी यादों में जो मेरे अपनों से जुड़ी हैं, जो मेरे देश की माटी से जुड़ी हैं और जो मेरे इर्द-गिर्द रहने वाले अनेक लोगों के जीवित परिजनों के साथ जुड़ी हैं। उनकी यादों के बड़े-बड़े सवालिया निशान जब मेरे जीवन में बनते हैं तो मैं उनका जवाब नहीं दे पाती और खामोश हो जाती हूं। उस समय की खामोशी मुझसे बहुत कुछ कहती है। बतियाती है। रातों को जगाती है। मुझे दूर अकेले जंगल में ले जाकर अनेक प्रकार की चीखों से अवगत कराती है।
मैं सोते में अपने बिस्तर पर उछल पड़ती हूं। सब कुछ ऐसा लगता है कि जैसे आज ही घटित हो रहा है। जीवन की उस त्रासदी को बीते हुए 75 वर्ष कब व्यतीत हो गए, कुछ पता ही नहीं चला। क्योंकि उनकी कड़वाहट और उनका दर्द सदा एक जैसा बना रहा है। चीजों को दूरी से नापा जा सकता है कि कौन सी घटना कितनी दूर की है ? पर जब घटना पूरी शिद्दत के साथ संग निभाती रहे तो वह दूरी नहीं बना पाती और दूरी नहीं बना पाती तो यह पता नहीं चलता कि घटना कितनी देर पहले घटित हो चुकी है और हम कितनी दूर निकल आए हैं?
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)