भूमि अधिग्रहण पर संसदीय समिति ने सिफारिश की है कि किसी भी प्रकार की कृषि योग्य भूमि चाहे वह सिंचित हो या असिंचित के अधिग्रहण पर सरकार पूरी तरह रोक लगाये। संसदीय समिति का मानना है कि जब अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, कनाडा जैसे विकसित राष्टï्रों में सरकारें निजी क्षेत्र के लिए जमीन अधिग्रहीत नहीं कर सकती है तो भारत ऐसी प्रथा को 21वीं शदी में क्यों जारी रखना चाहता है? संसदीय समिति का कहना है कि खाद्य सुरक्षा केवल गेंहूं और चावल से नही होती है देश में तिलहन और दलहन की भी भारी कमी है, जिसे तिलहन और दहलन की फसलें असिंचित कृषि क्षेत्र में ही होती हैं। ऐसे में खेती योग्य असिंचित जमीन के अधिग्रहण की स्वीकृति भी नहीं मिलनी चाहिए।
संसदीय समिति की रिपोर्ट के उक्त तथ्य सच्चाई के काफी नजदीक है। देश में बड़ा मुनाफा कमाने के लिए प्रॉपर्टी डीलिंग का काम बड़ी तेजी से पनपा है। नोएडा, ग्रेटर नोएडा, दिल्ली और पूरे एन.सी.आर. में प्रॉपर्टी के काम में लगे लोगों की चांदी कट रही है। मौजूदा कानून भी इन लोगों की मदद कर रहा है। खेत के मूल कास्तकार को जिसने कि अपनी जमीन पीढिय़ों से अपने पास रखी और उसे मां कहकर सम्मानित किया उसे दस रूपये प्रति वर्ग मीटर से लेकर 300 रूपये प्रति वर्गमीटर तक नोएडा जैसे शहर में मुआवजा मिला और जिस डीलर ने मूल कास्तकार से खरीदकर जमीन को अपने पास दो चार साल रख लिया उसे 3000 रूपये प्रति वर्ग मीटर से भी अधिक का मुआवजा मिला। इसके अतिरिक्त अथॉरिटी ने फिर उसी जमीन को तीस हजार प्रति वर्गमीटर से भी अधिक रेट पर विक्रय किया। यह मूल कास्तकार का शोषण नहीं तो क्या है?
हमारी प्रचलित व्यवस्था में हर जगह एक दलाल खड़ा है। हर क्षेत्र में इस दलाल नाम के कीड़े ने व्यवस्था में घुन लगा रखा है। किसान की भूमि का अधिग्रहण अपेक्षित प्रति कर के भुगतान के साथ करना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन जिस आदमी को अपेक्षित प्रतिकर का ना तो पता हो और ना ही पता चलने दिया जाए। उसके साथ यह ज्यादती नहीं तो और क्या है, कि उसकी जमीन को कुछ दलाल जाकर जबरन लेने का प्रयास करते हैं और बीच में मुनाफा कमाते हैं, अंसल वाले हों चाहे, रिलायंस वाले चाहे हाईटेक सिटी वाले सभी ने आम कास्तकार तक अपनी पकड बनाने के लिए कुछ अपने खास आदमियों को लगा रखा है। ये खास आदमी गांव में कुछ अपने दलालों को पकड़ते हैं और ये गांव में दलाल, कास्तकारों को शराब पिलाकर बहला फुसलाकर और कभी कभी डरा धमकाकर जबरन उक्त कंपनियों के लिए जमीन लिखवाते हैं, व्यवस्था दलालों की गुलाम होकर रह गयी है।
इसलिए संसदीय समिति ने जो सिफारिश की है कि अधिग्रहण की व्यवस्था समाप्त हो वह एक दम सही है। अमेरिका, ब्रिटेन, जापान आदि विकसित राष्टï्रों ने इसीलिए विकास किया कि वहां अधिग्रहण की कार्यवाही भारतीय ढंग से क्रूरता पूर्वक नहीं होती। इन देशों में भू अधिग्रहण न होकर भी शहरों का विस्तार होता है।
विकास होता है और सारी व्यवस्था सुचारू रूप से संपन्न होती है। क्या भारत अपने यहां इस प्रकार की व्यवस्था को लागू नहंी करा सकता है?
देश में भू अधिग्रहण संबंधी प्रचलित कानून अंग्रेजों के जमाने का है, यह कानून पूरी तरह अलोकतांत्रित है। इससे लगता है कि जमीन को सरकार जब चाहे जनहित में अधिग्रहीत कर सकती है। जनहित शब्द डालकर अपनी राजशाही को छिपाने का प्रयास किया गया है। स्वतंत्र भारत में भी जनहित के नाम पर राजशाही ढंग से जमीनों का अधिग्रहण किया गया है। आजादी से पूर्व 1911-12 में देश के राष्टï्रपति भवन (तब वायस रीगल हाऊस) इंडिया गेट आदि के लिए मालचा , रायसीना आदि कुल 12 गांवों की जमीन को अंग्रेज सरकार ने संगीनों और तोपों की धमक व गरज से मूल कास्तकारों से जबरन खाली कराया था। कहीं कहीं नाम मात्र का मुआवजा दिया गया। मालचा गांव की तत्कालीन खतौनी में 72 खाते थे, जिनमें से आधे से अधिक खातेदारों ने अपना मुआवजा नहंी लिया तो जनवरी 1913 में उनका मुआवजा यथावत सरकारी खजाने में जमा करा दिया। असन्तुष्टï किसान 1947 तक अपनी जमीन के उचित मुआवजे की मांग करते रहे। 35 वर्ष वाद बाद जब हिंदुस्तानी सरकार सत्ता में आयी तो किसी ने भी इन असंतुष्टï किसानों की बात नहीं सुनी।
1894 के भू अधिग्रहण को जनहित की बात अंग्रेजों ने स्वहित में व्याख्यामित की तो स्वतंत्र भारत की सरकार ने 1947 में उसे स्वहित में अपने तरीके से व्याख्यायित किया। न्याय कानून की बारीकियों में उलझ कर दम तोड़ गया। इसलिए भू अधिग्रहण की प्रचलित व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए। इस व्यवस्था ने कुछ लोगों को रातों रात कंगाल किया है तो कुछ को रातों रात मालामाल किया है।
देश में हम एक भ्रांति में जी रहे हैं कि यहां सरकारें चलायी जाती हैं। सचमुच यह एक भ्रांति है यहंा सरकारें नहीं चलाई जाती हैं-बल्कि सरकारें बिकतीं हैं और पार्टियां चलायी जाती हैं। सरकारों को दलाल और पंूजीपति अपनी ओर से मोटा नजराना देकर खरीद लेते हैं और सरकारों के मुखिया उन मोटे नजरानों से अपनी पार्टी चलाते हैं, उसका जनाधार मजबूत करने के लिए तथा अपनी पीढिय़ों के लिए रकम इक_ïा करने पर अपना ध्यान देते हैं। इसका परिणाम होता है कि आम कास्तकार उत्पीडऩ दलन और दमन का शिकार होकर रह जाता है। इसलिए संसदीय समिति की सिफारिशों को मनवाने के लिए निचले स्तर तक यह कार्य होना चाहिए। किसानों को और किसानों की राजनीति करने वाले संगठनों को या दलों को सरकार पर दबाब बनाना चाहिए कि वह संसदीय समिति की सिफारिशों को करने और किसानों के उत्पीडऩ व शोषण को रोकने के उपाय खोजें व सोचें।
-राकेश कुमार आर्य